-सुलेना मजुमदार अरोरा
खूबसूरत रौबीला चेहरा, गोरा रंग, ऊंची कद काठी और विदेशी काउ बॉय की तरह स्टाइल, नाम जुल्फ़ीकार अली शाह खान, क्या आप समझ गए कि मैं बॉलीवुड के किस स्टार का जिक्र कर रही हूँ? ह्म्म्म्म! सोच में पड़ गए? मैं बात कर रही हूँ अपने समय के मशहूर स्टाइलिश, काउ बॉय के नाम से प्रसिद्ध स्टार फिरोज़ खान की। ये वो स्टार है जिन्होंने बॉलीवुड में पाँच दशकों तक अपनी उपस्थिति बनाए रखी और सबसे बड़ी बात यह है कि बॉलीवुड में जब उन्होंने कदम रखा था तब यहां उनका अपना कोई नहीं था। एक स्ट्रगलर की तरह उनकी एंट्री छोटे मोटे फ़िल्मों में छोटे कैरेक्टर रोल्स में हुई थी। चूँकि उनकी पैदाइश बंगलुरु में हुई थी और बिशप कॉटन बॉयज स्कूल तथा सेंट जर्मन हाई स्कूल में पढ़े लिखे थे इसलिए उनके व्यक्तित्व में एक विदेशी ठसक के कारण उन्हें उनके व्यक्तित्व के अनुसार रोल दिए जाते थे। बंगलुरु से मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में आकर उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। हैंडसम और पढ़े लिखे होने से उन्हें बॉलीवुड में कदम रखते ही 1960 में फिल्म 'बड़ी दीदी' में सेकंड हीरो का रोल मिल गया।
अगर वे चाहते तो इस फिल्म के बाद वे अच्छे ऑफर्स का इंतजार कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, जो जैसा फिल्म मिल जाए वे करते चले । यहां तक कि 1965 मे उस जमाने के चोटी के फिल्म निर्माता निर्देशक फणी मजुमदार ने उन्हें फिल्म 'ऊँचे लोग ' में बेहतरीन भूमिका दी थी जिसमें वे हिट भी हो गये थे लेकिन फिर भी उन्होंने चार दरवेश, सैमसन, एक सपेरा एक लुटेरा जैसी छोटी फ़िल्मों में काम करना नहीं छोड़ा। इन सबके बावजूद फिरोज़ खान की लोकप्रियता बढ़ती रही और धीरे धीरे उन्हें बड़े फ़िल्मों में सेकंड लीड के रोल्स लगातार मिलने लगे जैसे, आरज़ू, आदमी और इंसान, खोटे सिक्के, प्यासी शाम, गीता मेरा नाम, सफर, शंकर शंभू, उपासना, मेला नागिन। फिरोज़ खान का भाई संजय खान बतौर हीरो अपने पांव जमा चुके थे, लेकिन इतने हैंडसम और बेहतरीन कलाकार होने के बावजूद फिरोज़ सेकंड लीड में काफी समय तक बँधा रहा। इस समस्या का इलाज खुद फिरोज़ ने ढूँढ निकाला, उन्होंने अपनी प्रॉडक्शन हाऊस शुरू कर दी और अपनी इन हाऊस फ़िल्में डायरेक्ट और प्रोड्यूस करने लगे जिसमें फिल्म 'अपराध' उनकी पहली बतौर निर्देशक फिल्म थी जिसमें वे हीरो भी बने। बॉलीवुड के इतिहास में पहली बार जर्मनी में इस फिल्म के लिए ऑटो रेसिंग का दृश्य शूट किया गया जिसे दर्शकों ने खूब पसंद किया। उसके पश्चात तो उन्होंने बड़े बजट, बड़े स्टार कास्ट वाली फ़िल्मों की लाइन लगा दी जिसमें वे डायरेक्टर प्रोड्यूसर और हीरो भी थे। उनकी फ़िल्में धर्मात्मा, कुर्बानी, जांबाज़, दयावान, यलगार यादगार फ़िल्में थी।
फिल्म 'धर्मात्मा' वो पहली भारतीय फिल्म थी जो अफगानिस्तान में शूट हुई थी और इसके पीछे फिरोज़ का एक खास सेंटिमेंट था। फिरोज़ के पिता सादिक अली खान तनोली, गज़नी अफगानिस्तान के एक अफगान थे और उनकी माता फातिमा ईरान के पर्शियन वंश की थी। यही वज़ह है कि अफगानिस्तान के प्रति उनका खिंचाव था और वे अपने को असली पठान कहते थे। फिरोज़ की हर फिल्म किसी न किसी वज़ह से खास कहलाई गई, जैसे फिल्म कुर्बानी उस गाने आप जैसा कोई मेरे जिंदगी में आए तो बात बन जाए के लिए स्पेशल बन गई थी जिसने पाकिस्तानी पॉप सिंगर नाज़िया हसन को विश्व प्रसिद्ध बना दिया था । मुमताज़, जीनत, हेमा मालिनी उनकी पसंदीदा हीरोइन थी। फिरोज़ का हैंडसम होना उनके पारिवारिक जीवन में कई परेशानियों का सबब भी बना। उनपर लड़कियां फिदा हो जाती थी और फिरोज़ भी बहक जाते थे। उनका सम्बंध कई नायिकाओं के साथ जुड़ने की खबरें आई जिससे उनका वैवाहिक जीवन कलहपूर्ण बन गया। पत्नी सुंदरी खान उनके इश्क के अफवाहों से नाराज और तंग थी। लेकिन आगे चलकर फिरोज़ ने मीडिया से बातचीत के दौरान बताया था कि उन्हें कभी किसी फिल्म हीरोइन से इश्क या प्यार नहीं हुआ अलबत्ता गैर फिल्मी स्त्रियों से दिल जरूर लगा था कई बार। खबरों के अनुसार फिरोज़ खान का दिल एक खूबसूरत एयर होस्टेस पर आ गया था जिसके कारण पत्नी उनसे अलग हो गई थी, हालांकि फिरोज़ ने एयर होस्टेस से विवाह करने से इंकार कर दिया था लेकिन जो दरार पति पत्नी के बीच आ गया वो कभी भर नहीं पाया।
जिंदगी और करियर की आपाधापी से थके फिरोज़ ने फिल्म 'यलगार' के बाद ग्यारह वर्ष के लिए फ़िल्मों से दूरी बना ली लेकिन फिर 2003 में उन्होंने फिल्म 'जांनशीन का निर्माण निर्देशन किया जिसमें उन्होंने अभिनय भी किया। बतौर निर्देशक ये उनकी अंतिम फिल्म थी। उन्हीं दिनों उनकी तबियत कुछ खराब होने लगी लेकिन फिर भी उन्होंने दूसरे प्रोडक्शन हाउस की फ़िल्म' एक खिलाड़ी एक हसीना' में अपने बेटे फरदीन खान के साथ काम किया जिसे उन्होंने साल 1998 में अपनी फिल्म 'प्रेम अगन' में लॉन्च किया था। बतौर एक्टर उनकी आखिरी फिल्म थी 2007 की कॉमेडी फिल्म 'वेलकम'। लेकिन तब तक उनकी तबियत और खराब होने लगी, उन्हें लंग कैंसर हो गया था। बहुत इलाज किया, अंतिम समय वे अपने बंगलौर के फार्म हाऊस में चले गए और वहीं 69 वर्ष की उम्र में, 27 अप्रैल 2009 को अंतिम साँस ली। उनकी अंतिम इच्छा थी कि निधन के बाद उन्हें बंगलुरु के होसुररोड शिआ कब्रिस्तान में उनके माता जी के कब्र के बगल में दफनाया जाय और वैसा ही किया गया। जब तक जिए फिरोज़ खान ठसक से जिए , शान से जिए, सारे शौक पूरे किए, पीने पिलाने के शौकीन, सिगरेट के शौकीन। घुड़सवारी और बिलियार्ड खेलने के शौकीन। बचपन में बेहद नटखट, जिसके कारण कई बार स्कूल बदलने पड़े, डैडी से मार खूब खाए। सो जाने के बाद डैडी चुपके से माथा चूम लेते थे, मां ने बताया था।
किसे पता था बड़ा होकर यही नटखट बच्चा स्टार फिरोज़ खान बन जाएगा और आइफा अवार्ड, फिल्म फेयर अवार्ड, ज़ी अवार्ड का हकदार होगा। वे बॉलीवुड से ज्यादा हॉलीवुड की फ़िल्मों के शौकीन थे और वैसी ही वेशभूषा रखते थे। फिरोज़ खान अपने देश से बहुत प्यार करते थे, तभी तो जब वे 2006 में अपने भाई अकबर खान की फिल्म 'ताजमहल' के लिए डेलिगेशन का हिस्सा होते हुए लाहौर गए थे और पाकिस्तान के मीडिया से मुखातिब थे तो उन्होंने सर तान कर कहा था, 'मैं एक प्राऊड इंडियन हूँ, इंडिया एक सेकुलर देश है जहां मुस्लिम बहुत तरक्की कर रहे हैं। हमारे प्रेसिडेंट मुस्लिम हैं, प्राईम मिनिस्टर सिख हैं, पाकिस्तान इस्लाम के नाम पर बना है लेकिन देखिए कैसे मुस्लिम एक दूसरे को मारते काटते हैं।' फिरोज़ खान के इस वक्तव्य ने पाकिस्तान में हंगामा मचाया था और उस वक्त के प्रेजिडेंट परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान में उनकी एंट्री पर बैन लगा दिया था।