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दमित, शोषित, अक्रांत, मजलूम के पलायन की दास्तां है "द कश्मीर फाइल्स"

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दमित, शोषित, अक्रांत, मजलूम के पलायन की दास्तां है "द कश्मीर फाइल्स"

-शरद राय

फिल्म को बम्पर सफलता क्यों मिल पायी है, यह सवाल निश्चय ही बड़े बड़े बॉलीवुड निर्माताओं के लिए शोध का विषय हो सकता है।लेकिन सीधे सादे दर्शकों के लिए यह सवाल कोई मायने नही रखता जो एक वाक्य में जवाब देते हैं-'कहानी मन को छू गयी, बस! लगा हमारे ही लोगों के बीच का दर्द है।' यानी बॉलीवुड के पर्दे पर एकबार फिर जीत हुई है इमोशन की, कथ्य की।

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'हमने साढ़े छः सौ लोगों से उनका दर्द सुनकर, उनका वीडियो शूट करके इस विषय पर फिल्म बनाने का काम शुरू किया था। और जो सच सामने आया वही बनाया है।' यह कहना है ''द कश्मीर फाइल्स'' फिल्म के लेखक- निर्देशक विवेक अग्निहोत्री का।जो बताते हैं कि वो महीनों हिमालय की कंदराओं में बैठकर '' द कश्मीर फाइल्स'' लिखे थे। ज़ी स्टूडियो ने जब इस फिल्म को बनाने का विचार किया तो जब भी उनकी आपस मे मीटिंग होती थी वे सभी जेनोसाइड के मुद्दे पर आकर अटक जाते थे। आज जो सवाल उठे हैं या उठाए जा रहे हैं वे सवाल तब भी निर्माताओं के जहन में थे। लेकिन सच बाहर आना चाहिए, इस बात पर सभी एकमत थे।

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फिर कुछ ऐसा ही कलाकारों को कन्विंस करने के समय हुआ था। अनुपम खेर एकदम स्ट्रांग ओपिनियन रखते थे- ''इसे तो बनाया ही जाना चाहिए।' फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' के कलाकार हैं- अनुपम खेर(पर्दे पर पुष्कर नाथ), मिथुन चक्रोबर्ती(सिविल अधिकारी ब्रह्मदत्त की भूमिका में), पल्लवी जोशी (प्रोफेसर राधिका मेनन जो यूनिवर्सिटी में 'आज़ादी' का बिगुल फूंकने में लगी है), दर्शन कुमार (कृष्णा- जो पुस्कारनाथ का पोता है और यूनिवर्सिटी में छात्र यूनियन के अध्यक्ष का उम्मीदवार है),  भाषा सुंबली( शारदा- पुस्करनाथ की बहू, कृष्णा की मां-जिसको मिलिटेंट नंगा करके घुमाते हैं)। इनके अलावा फिल्म के दूसरे खास पात्र हैं- चिंमय मंडलेकर(फारुख मालिक बिट्टा), मृणाल कुलकर्णी (लक्ष्मी दत्त), पुनीत इस्सर (DGP हरि नारायण), अतुल श्रीवास्तव (पत्रकार-विष्णु), प्रकाश वेलवाडी (डॉ. महेश) आदि।  ये सभी कलाकार अपने अपने स्तर पर आतंक की विभीषिका को झेल रहे हैं। फिल्म की कहानी एक ऐसा सच है जो 1989-90 के दौर में कश्मीर घाटी में जीवन को इतना दूभर करके रख दी थी कि वहां के हिन्दू पंडितों को भागने के अलावा कोई रास्ता नही बचा था। लेखक -निर्देशक विवेक ने कहानी को इतनी क्रमिकता से पेश किया है कि 2020 में बताया जा रहा हालात 1990 से शुरू हुए दमित, अक्रांत, शोषित और मजलूम के पलायन को रिलेट करता ऐसा चलता है कि हमे कहानी के साथ चलकर साधारण नागरिकों पर थोपी गयी धारा 370  पर खुद ब खुद गुस्सा आता है।फिल्म के अंत मे दर्शक खुद कह पड़ता है कि वहां के हालात में वर्तमान सरकार ने जो कदम उठाए हैं, चाहे वो धारा 370 का हटाया जाना ही क्यों न था, वजीब क़दम है।

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फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' को थियेटरों पर जो कामयाबी मिल रही है वह जाहिर करता है की दर्शक क्या चाहते हैं। एक सच जो दबा कर रखा गया था, एक दमन की कहानी जो उस कश्मीर में हुआ था जहां भारत की संस्कृति के पुरोधा अपने ज्ञान से पल्लवित पुष्पित हुए थे, वहां उन्ही की बंसज को कुछ आतंकवादियों के साए में दूभर ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर होना पड़ा था। सीधे सादे वैली के लोगों को कश्मीरी भाषा मे हुक्म सुनाया जाता था- 'रालीव गालिव या चल्ला' यानी- धर्म परिवर्तन करो , छोड़कर चले जाओ या फिर मरो !' इस्लामिक मिलिटेंट के इस हुक्म को ना मानने वालों को किस तरह समूह मे खड़े करके गोलियों से भूना गया था, किस तरह छोटे बच्चे और युवतियों की अस्मत से खेला जाता था, इसतरह की घटनाओं को भी फिल्म मे दिखाने का प्रयास किया गया है। शायद यही वजह है फिल्म देखने के लिए दर्शक उमड़ पड़े हैं। शुरू में 600 सिनेमा घरों में दिखाई गई इस फिल्म के लिए आज 4000 सिनेमा घर भी कम पड़ रहे हैं।फिल्म कामयाबी के रिकॉर्ड बनाते आगे बढ़ रही है।

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आरोप इसबात पर भी लग रहा है कि ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन को छूट दिए जाने से सामाजिक सौहार्दय को बिगड़ने का खतरा होता है। लेकिन साथ ही तर्क ये भी हैं कि सच को छुपाना तो और भी खतरे को दबाकर रखने जैसा है। सबको सच पता होना चाहिए। अपराधी कोई कौम या सम्प्रदाय नही होता, अपराधी कुछ लोग होते हैं। और, अपराधी सिर्फ अपराधी होता है उसका कोई दीन नहीं होता। 'द कश्मीर फाइल्स' इस बात का उदाहरण है। फिल्म को हर सम्प्रदाय के लोग देखने जा रहे हैं-हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई...और सभी कह रहे हैं- 'दबा दिए गए कडुवे सच को बाहर आना ही चाहिए चाहे वो कहीं से भी हो।' दर्शक सच देखने के लिए तैयार हैं, फिलवालों आगे बढ़ो। प्रधान मंत्री के शब्दों में कहें तो ऐसा सिनेमा और भी बनाया जाना चाहिए।

#the kashmir files
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