-शरद राय
वित्त मंत्री सुश्री सीतारमण ने यूनियन बजट पेश कर दिया है जिसपर पूरे देश मे चर्चा है। हर व्यवसाय के लोग अपने धंधे, इनकम और टैक्स को लेकर विचार मंथन में हैं सिर्फ फिल्म-व्यवसाय के लोगों को छोड़कर।
फिर भी एक फिल्म निर्माता ने हमसे पूछ ही लिया- 'मौजूदा बजट का असर बॉलीवुड पर क्या होगा?' निश्चय ही यह एक गम्भीर सवाल था। जहां हज़ारों लोग काम करते हों, पूरे देश मे जो व्यवसाय लोगों के लिए एक आकर्षण हो, जिससे जुड़ी लाखों लोगों की रोजी रोटी हो, जो व्यवसाय पर्यटन स्थलों का फिल्मांकन करके उस एरिया का व्यवसाय बढा देता हो, करोड़ो रूपये सिर्फ एक फिल्म पर खर्च किया जाते हो और हर साल हजारों फिल्मों का निर्माण होता हो। उस उद्योग का व्यवसायिक बजट संसद में क्यों बहस में नहीं लाया जाता? क्या इस उपेक्षा के पीछे एक अनियोजित कारबार की सोच है या फिर प्लानिंग आयोग से कहीं कुछ छूट रहा है?
खैर हम मौजूदा बजट को लेते हैं। सरकार जब अनियोजित संस्थान के कर्मियों पर चिंता जाहिर करती है- उस समय भी भूल जाया जाता है कि सिनेमा कर्मी भी अनियोजित व्यवसाय का हिस्सा है। यहां काम करने वाला मजदूर हो या एक एक्टर हो दोनो ही 'रोजही' के मजदूर ही होते हैं। एक छोटा या क्षेत्रीय फिल्म का निर्माता जो 50 लाख से एक करोड़ बजट की फिल्म बनाता है, वो भी सरचार्ज के दायरे में आता है। उससे ऊपर बजट वाले निर्माता पर टैक्स, पीजीएसटी, जीएसटी और सरचार्ज का दायरा जकड़ता चला जाता है। यह एक सामान्य कारोबारी सोच का दायरा है। बताने वाली बात यह है कि फिल्म इंडस्ट्री एक विस्तृत कारबार का खेत्र है जो हमेशा बजट में नजरअंदाज हो जाता है। याद रहती है तो सिर्फ एक बात कि किस सितारे ने कितना टैक्स भरा है और किसका आना रह गया है।
यह बात सभी जानते हैं कि अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, रितिक रोशन सर्वाधिक टैक्स भरने वालों में हैं। यहभी विदित है कि अक्षय कुमार और सलमान खान का नाम पिछले सालों में सबसे अधिक टैक्स भरने वाला नाम रहा है। यह सब फिल्म इंडस्ट्री के लोग हैं। इनके टैक्स भरने का लेखा जोखा इनकम टैक्स की साइट पर देखा पढ़ा जा सकता है। लेकिन इस व्यवसाय को कभी बजट में तवज्जह नही दिया जाता।
आखिर क्यों जूते, कपड़े, सिगरेट, दारू और लिपस्टिक पर चर्चा होती है लेकिन फिल्म व्यवसाय पर नही?
बताने वाली बात है कि यशराज, धर्मा प्रोडक्शन, रेड चिल्ली, बालाजी, इरोज, यूटीवी, श्री अष्ट विनायक, शेमारू, केलेडोस्कोप, परसेप्ट पिक्चर्स... और न जाने कितने हैं जो हिंदी सिनेमा की पहचान हैं। इसी तरह साउथ का रिच सिनेमा उद्योग, बंगाली, भोजपुरी और पंजाबी सिनेमा का वृहद उद्योग है। कई कई कम्पनियां 50 करोड़, 200 करोड़, 500 करोड़ बजट की फिल्में बनाती हैं। यशराज बैनर में 35000, रेड चिल्ली में 19000, इरोज में 14000, यूटीवी की फिल्मों में 9000 कर्मियों के काम करने की बड़ी संख्या है। हर साल हजारों फिल्में बनती हैं।
टेलीविजन इंडस्ट्री है, म्यूजिक इंडस्ट्री है, मल्टीप्लेक्स थियर्टर्स और दूसरे थिएटर्स हैं, एडवर्टिजमेंट- एंटरटेनमेंट मीडिया के लोग हैं...ये पूरे देश मे फैले हुए हैं। क्या इस व्यवसाय से जुड़े कर्मचारियों के ग्रोथ रेट पर कभी चर्चा होती है? ये FDI से जुड़ी हैं? किसी भी व्यवसायिक-संस्थान के लिए ऐसे सवाल अनिवार्य होते हैं जिनपर बजट सत्र में चर्चा होनी चाहिए। बजट भाषण में कई बार फिल्मों की 'लाइन' तो बोली जाती है पर मुद्दों पर चर्चा नही होती। आखिर क्यों?
हमतो सिर्फ याद दिला रहे हैं!
हमतो सिर्फ याद दिलाना चाहते हैं सिनेमा उद्योग की यूनियनों को। बॉलीवुड में 6 बड़ी असोसिएशनें हैं, सभी की सदस्य संख्या लाखों में है। ये खुद कभी अपने लोगों के हितार्थ सरकार से निवेदन नहीं करती। क्यों आखिर?
जब अपने अधिकार और जरूरतों पर ये असोसिएशन आवाज नहीं उठाएंगी, सिनेमा उद्योग से चुनकर गए सांसद सदन में आवाज नहीं उठाएंगे तो दूसरों को क्या पड़ी?
काश लोग इस उद्योग पर भी ध्यान दे पाते!