बॉलीवुड की दशा और दिशा सुधारने की पहल कौन करे और कैसे करे?

New Update
बॉलीवुड की दशा और दिशा सुधारने की पहल कौन करे और कैसे करे?

-सुलेना मजुमदार अरोरा

इन दिनों बॉलीवुड में खासी हलचल मची हुई है, पिछले डेढ़ साल में आनन फानन जब हिंदी फ़िल्मों के सुपर स्टार्स की बड़ी बड़ी फ़िल्में रिलीज हुई तो लगा कि बॉलीवुड के अच्छे दिन आ गए हैं, चंद फ़िल्में जैसे सानिया, इंदु की जवानी, थलाईवी, सूर्यवंशी, 83, राधे, गंगूबाई  काठियावाड़ी की भरपूर चर्चा हुई तो लगा बस अब बॉलीवुड बॉक्स ऑफिस में चांदी सोने की झंकार बजने लगेगी लेकिन तभी वो हुआ जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी, साउथ से कुछ धमाकेदार फ़िल्में जैसे पुष्पा, आरआरआर और केजीएफ ने रिलीज़ होते ही हिन्दी फ़िल्मों का आधिपत्य तोड़ दिया और अवाक बॉलीवुड में ऐसी हलचल मची की हर तरफ बस साउथइंडियन फ़िल्में वर्सेस बॉलीवुड फ़िल्मों का लेखा जोखा होने लगा।

publive-image

इसके साथ ही शुरू हुआ भाषा को लेकर बहस जिसका मुद्दा ये था कि बाकी क्षेत्रों में कुछ भी हो लेकिन सिनेमा और कला के क्षेत्र में राष्ट्रीय भाषा यानी हिन्दी भाषा का कुछ लेना देना नहीं है। भाषा कोई भी हो, चाहे जिस भाषा में अभिव्यक्त किया जाए लेकिन विषय और विचार क़ीमती होनी चाहिए क्योंकि आज के जमाने में जब दर्शक जागरूक हो गए हैं और उन्हें घर बैठे अपने लिविंग रूम में तरह तरह के मनोरंजक, विचारोत्तेजक सामग्री देखने को मिल जाती है तो वो अब पहले की तरह वेवकूफ़ी वाली फ़िल्में गले के नीचे उतारने को राजी क्यों हो? तो अब विचार ये किया जा रहा है कि क्या अब भाषा की बंदिश के बिना सिनेमा जगत को  एक हो जाना चाहिए, यानी बॉलीवुड, कॉलीवुड, टॉलीवुड जैसी अलग अलग इंडस्ट्री ना होकर सिर्फ एक फिल्म इंडस्ट्री होनी चाहिए, जिसमें हिन्दी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, बंगाली, पंजाबी, मराठी यानी भारत की सारी भाषाओं की फ़िल्में एक छत के नीचे बनना शुरू हो जाए ? अब तो भारत भर में, खासकर उत्तर भारत के फिल्म दर्शक ये मानने लगे हैं कि साउथ की  फ़िल्मों ने संपूर्ण भारत में हिंदी फ़िल्मों का प्रभुत्व खत्म कर दिया है।

publive-image

हालांकि अजय देवगन का आज भी मानना है कि हिन्दी राष्ट्रीय भाषा है और मातृ भाषा भी है, ऐसा ना होता तो भला साउथ की फ़िल्में हिन्दी में डब होकर रिलीज़ क्यों होती?  खैर, हिन्दी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए या नहीं ये विवाद पिछले पचहत्तर साल से राजनीति का मुद्दा रहा है पर इन विवादों से बॉलीवुड अछूती रही। हिन्दी सिनेमा और साउथ की सिनेमा के बीच भाषा, संस्कृति, या कमाई को लेकर आपस में कभी कोई विवाद नहीं था। सब अपनी अपनी जगह मस्त थे। सत्तर के दशक में पाश्चात्य सभ्यता की हवा लेकर एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन बॉलीवुड में आए तो हिंदी सिनेमा जगत में तहलका मच गया। इसके साथ ही भारत भर में हिन्दी फ़िल्मों का वर्चस्व बढ़ने लगा, उधर साउथ की फ़िल्में भी अपनी संस्कृति, अपने स्टाइल से, अच्छी साहित्यिक कहानियों पर फ़िल्में बनाते रहे।

publive-image

बॉलीवुड में अमिताभ बच्चन, जितेन्द्र, राजेश खन्ना का राज चलने लगा जो सिर्फ सुपर स्टार ही नहीं बल्कि महंगे स्टार्स भी थे। एक वो वक्त भी था जब इन बॉलीवुड स्टार्स को मुंहमांगी कीमत देकर साउथ के फिल्म निर्माता निर्देशक, साउथ की कहानियों पर हिन्दी रीमेक बनाते थे जो सुपर  डूपर हिट होती थी और इस तरह लगातार साउथ की फ़िल्मों का हिन्दी नामकरण करके, बॉलीवुड स्टार्स के साथ रीमेक पर रीमेक फ़िल्में बनती रही। उन दिनों हिन्दी फ़िल्मों का बोलबाला इतना था कि साउथ के सुपर स्टार्स जैसे कमल हासन, रजनीकांत, चिरंजीवी ने बॉलीवुड में अपना किस्मत आजमाना चाहा परंतु बॉलीवुड स्टार्स के आगे उनकी एक ना चली। लेकिन अपना टाइम आएगा के तर्ज़ पर, साउथ का वो अच्छा समय आखिर आ ही गया, दरअसल कोरोना लॉक डाउन के बाद जब सारे थियेटर्स खुल गए तो फ़िल्मों के प्यासे दर्शकों में थिएटर जाकर फ़िल्में देखने का जुनून  चढ़ गया परंतु बॉलीवुड के पास इस प्यास को बुझाने का कोई इंतजाम नहीं था, उनके पास दर्शकों को परोसने के लिए कुछ खास नहीं था। बस, इसी मौके का इंतजार था साउथ की फिल्म इंडस्ट्री को, जिन्होंने अच्छी कहानी के साथ, कुशलता से बनी अपनी ये तीन फ़िल्में एंटरटेनमेंट के भूखे दर्शकों के सामने परोस दिया और फिर जो हुआ वो बॉलीवुड इंडस्ट्री को हिलाने के लिए काफी था।

publive-image

इन तीन फ़िल्मों ने बॉलीवुड हिट्स के सारे पैमाने तोड़ दिए। जहां बॉलीवुड हिन्दी फ़िल्में सौ डेढ़ सौ करोड़ में तसल्ली कर लेते थे, वहीं इन तीन फ़िल्मों ने रेकॉर्ड तोड़ कमाई की, पुष्पा ने 365 करोड़ कमाए तो आरआरआर ने ग्यारह सौ छः करोड़ कमाया और केजीएफ ने एक हजार पच्चीस करोड़ बना लिया। इन आंकड़ों ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को सकते में डाल दिया। इस तरह, साउथ इंडियन फ़िल्में, जैसे बाहुबली, पुष्पा, आरआरआर और केजीएफ के साथ रूपहले पर्दे पर, असली हीरोगिरी लौट आई और अब कयास लगाया जाने लगा है कि साउथ की फिल्मों ने बॉलीवुड हिंदी सिनेमा को पूरी तरह से कब्जे में कर लिया है, हर लिहाज में, रचनात्मकता में भी और कमाई के आंकड़ों में भी, क्योंकि माना जा रहा है कि हिन्दी फ़िल्मों का दरिया सूखने लगा है, अब ना यहां बेहतरीन लेखक, गीतकार, संगीतकार, मौलिक कहानीकार रह गए हैं, ना हृषीकेश मुखर्जी, मृणाल सेन, बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्या, माणिक दत्त, प्रमोद चक्रवर्ती, राज कपूर, रमेश सिप्पी, मनमोहन देसाई, मुकुल दत्त, जैसे निर्माता निर्देशक हैं और ना दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार, राज कुमार अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, जितेन्द्र, मिथुन, जैसे दिग्गज कलाकार हिंदी फ़िल्मों के हीरो रह गए हैं।

वो दिन लद गए जब एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन के सशक्त डायलॉग पर दर्शक खड़े होकर ताली बजाते थे, उन दिनों नायक के दुख में दर्शक रोते थे और खुशी में तालियां बजाते थे। किस खूबी से आम आदमी के साथ एकाकार हो जाते थे ये हीरो, जबकि आज के हीरो सिर्फ बॉडी बिल्डिंग और रोबोट की तरह हवा में उड़ते हुए एक्शन करने में लगे रहते हैं,  भला कॉमन आदमी इन रोबोट के साथ कैसे जुड़ पाए? टीवी आंकड़ों में बताया गया कि 2019 के टोटल बॉक्स ऑफिस कलेक्शन में बॉलीवुड का हिस्सा पांच हजार दो सौ करोड़ था, साउथ का हिस्सा चार हजार करोड़ और हॉलीवुड फ़िल्मों का हिस्सा पंद्रह सौ करोड़ था। 2020 में बॉलीवुड का टोटल बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 930 करोड़ पर उतर आया जबकि साउथ की फिल्मों का हिस्सा 1230 करोड़ की ऊंचाई पर रहा और हॉलीवुड का कलेक्शन 90 करोड़ हो गया था। यह कोरोना  पेंडेमिक का दौर था। 2021 में हिंदी सिनेमा का संपूर्ण बॉक्स ऑफिस कलेक्शन मात्र 800 करोड़ पर भयंकर रूप से उतर गया जबकि दक्षिण भारतीय सिनेमा का संपूर्ण बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 2004 पर चढ़ गया। हॉलीवुड बॉक्स ऑफिस कलेक्शन भी 500 करोड़ तक पहुँचा लेकिन हिन्दी सिनेमा जगत का कंडीशन पैथटिक बन गया और जब इसका कारण खंगाला गया तो चंद लूप होल्स के साथ एक बड़ा लूप होल ये सामने आया कि हिन्दी फ़िल्में अपनी हिंदी भाषा का वैसा सम्मान नहीं करते जैसे साउथ वाले अपनी-अपनी भाषा का सम्मान करते हैं।

publive-image

खबरों के अनुसार, इस बारे में  नवाज़ुद्दीन सिद्धी ने भी पॉइंट आउट करते हुए कहा था कि हिन्दी फ़िल्मों का स्क्रिप्ट उन्हें रोमन लिपि में मिलता है जिससे बहुतों को उसे याद रखने में कठिनाई होती है, हिन्दी फ़िल्मों के सेट पर निर्देशक से लेकर सहायक निर्देशक तथा लगभग पूरी टीम अँग्रेजी में बातें करते हैं जबकि साउथ में सभी कुछ उनकी अपनी भाषा में होती है, वे गर्व करते हैं अपनी भाषा पर। तो अब प्रश्न उठ रहा है कि टूटती बिखरती बॉलीवुड और हिंदी फ़िल्मों की दशा और दिशा में कैसे सुधार किया जाए? उत्तर है कि अभिव्यक्ति की भाषा दमदार होनी चाहिए, चाहे किसी भी भाषा में फिल्म बने, उसका मर्म सबके दिल को छूना चाहिए। टीवी पर भी न्यूज एंकर सुधीर चौधरी ने इसी बात पर जोर दिया कि जैसे भारत भर में इंडियन करेंसी हर भारतीय प्रांत, शहर में बिना भेदभाव के चलता है ठीक उसी तरह भारतीय फिल्म हर भाषा में पूरे भारत में हर जगह चलनी चाहिए।

publive-image

यानी अब भारतीय फ़िल्मों को साउथ की फ़िल्म, हिन्दी फ़िल्म मराठी फ़िल्म, बंगाली फ़िल्म, पंजाबी फ़िल्म, गुजराती फ़िल्म के रूप में अलहदा अलहदा नाम ना देकर उसे सिर्फ भारतीय फिल्म का नाम दिया जाना चाहिए जहां भाषा का बंधन ना हो, कोई, डिस्क्रिमिनेशन ना हो और जो हो, वो सिर्फ और सिर्फ बेहतरीन कहानी हो, आम इंसानो से जुड़ने वाले नायक या नायिका हो और अपने देश की भाषा पर गर्व का एहसास हो।

Latest Stories