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गालिब असद भोपाली: हमारी फिल्म 'जोगीरा सारा रा' टिपिकल प्रेम कहानी नही है

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By Shanti Swaroop Tripathi
गालिब असद भोपाली: हमारी फिल्म 'जोगीरा सारा रा' टिपिकल प्रेम कहानी नही है
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छोटी उम्र में ही लेखक जलीस शेरवानी के साथ बतौर सहायक, फिर निर्देशक प्रदीप मैनी के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम करते हुए बतौर लेखक चर्चित सीरियल "शक्तिमान" से कैरियर की शुरुआती करने वाले गालिब असद भोपाली लगातार काम करते जा रहे हैं. वह अब तक 'वजहः रीजन टू किल','हम दम','सीआईडी','भिंडी बाजार', 'मुबई मीरर','बाबूमोशाय बंदूकबाज' सहित कई सीरियल व फिल्मों का लेखन कर चुके हैं. इन दिनों वह 26 मई को सिनेमाघरों में प्रदर्षित होने वाली फिल्म "जोगीरा सारा रा" को लेकर सूर्खियों में है, जिसमें नवाजुद्दीन सिद्दिकी की मुख्य भूमिका है और फिल्म का निर्देशन कुषान नंदी ने किया है.

प्रस्तुत है गालिब असद भोपाली से हुई बातचीत के अंष...

आपके पिता जी फिल्म नगरी से गीतकार के रूप में जुड़े हुए थे, इसी के चलते आपने भी फिल्मइंडस्ट्री से जुड़ने का फैसला किया?

बिलकुल नही. मैने लिखने के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं था. लेकिन मुझे बचपन से ही फिल्में देखने का शौक रहा है. बचपन से ही फिल्मों में काम करना है, यह भी सोच लिया था. स्कूल के दिनो में मैं अभिनय किया करता था. मैं डिबेट व भाषण प्रतियोगिताओं में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेता था. जहां तक षायरी का सवाल है, तो बचपन में तुकबंदी किया करता था. जिसके लिए डॉट भी खानी पड़ती थी. लेकिन लेखन से दूर दूर तक कोई नाता नहीं था. जब मैं दसवीं या बारहवीं में पढ़ रहा था, तब मैं 'राजश्री प्रोडक्षन' में अभिनय करने के लिए गया था. वहां पर लेखक के तौर पर जलीस षेरवानी भाई काम कर रहे थे. उन्होने मुझसे सवाल किया -"अभिनय करके क्या करोगे? आगे जिंदगी में क्या है? मैने उनसे कहा कि मैं कैरियर के लिए नही आया हॅूं. मुझे अभिनय करने का शौक है, इसलिए आया हॅूं. उन्होने मुझसे कहा कि यदि कैरियर बनाने के लिए करना है,तो कुछ तकनीकी काम करो. उन्होने मुझसे कहा कि लेखन में मैं उनका सहायक बन जाउं. मैने कहा कि कर लूँगा. तब उन्होने कहा कि तो आज से ही शुरु हो जाओ. तो मैं लेखन में सहायक हो गया. वहां पर प्रदीप मैनी निर्देशक थे. जलीस भाई के साथ काम करते हुए मुझे आठ दस दिन हो गए थे. तभी प्रदीप मैनी जी ने मुझसे पूछा कि जो कर रहे हो, वह कब खत्म होगा. मैने कहा कि कम से कम एक माह लगेगा. उन्होने कहा कि ठीक है, उसके बाद निर्देशन में सहायक बन जाना. तो एक माह बाद मैं निर्देशन में सहायक हो गया. तब तक लोगों को पता चल चुका था कि मैं षायरी करता हूँ, तो मुझसे गाने लिखने के लिए कहा गया. मैं संगीत की बैठकों में भी हिस्सा लेने लगा. मतलब यह कि मुझसे जो भी कहा गया, मैं वह काम करके अनुभव लेता गया. जब मैं प्रदीप मैनी के साथ बतौर सहायक काम कर रहा था, तब एक फिल्म की स्क्रिप्ट तो उनकी थी, पर संवाद किसी अन्य से लिखवाए थे,जो कि मजेदार नही थे. प्रदीप ने मुझसे दोबारा सिच्युएषन के अनुसार संवाद लिखने के लिए कहा. तो 'घोस्ट राइटिंग' से शुरुआती हुई. फिर निर्देशक ज्योति सरुप से अभिनेता हरीष पटेल ने बात करायी.ज्योतिसरुप ने मुझसे स्क्रिप्ट, संवाद व गीत तीनों लिखवाए. तो सिलसिला जिस तरह से चलता रहा, वह काम मैं करता रहा. मेरी सोच यह थी कि मैं अभिनेता बनू, या स्पॉट बॉय बनू या लेखक बनू या निर्देशक बनूं, मगर यह तय था कि फिल्मों में ही काम करना है. मजेदार बात यह थी कि मेरे पिता जी फिल्मइंडस्ट्री से सख्त नफरत करते थे. और मेरा स्वभाव विद्रोही किस्म का था. मैं हमेशा पिताजी के खिलाफ सोचा करता था. वह जिस काम को करने के लिए मना करते, मैं वही काम करता.

अपने अब तक के कैरियर को अब आप किस तरह से देखते हैं?

मैने जो कुछ किया, उससे खुश हॅूं. मैने अब तक हर काम अपनी सहूलियत से करता आया हॅूं. इश्वर ने मुझे हमेशा खुश रखा. मैने टीवी सीरियल, डेली सोप, छोटी फिल्में, बड़ी फिल्में, वेब सीरीज सब कुछ कर लिया. मै सिर्फ कैरियर के इर्द गिर्द नही घूमता. मैं कैरियर की सफलता व असफलता पर विचार नही करता. मुझे पता है कि आज मै जहां पर हॅूं, उसका कारण क्या है. मैं यह कभी नहीं सोचता कि मुझे कहां होना चाहिए था.

आपने फिल्म "जोगीरा सारा रा " लिखी है. जब आप इसे लिखने बैठे, तो इसका बीज कहां से मिला?

इसका सटीक जवाब देना मुष्किल है. लेकिन इस फिल्म को लेकर हमारा थॉट प्रोसेस यह था कि जब हमने "बाबूमोषाय बंदूकबाज" लिखी थी, तो हमारी समझ में आया कि हमारी गलती यह रही कि हमने एक 'एडल्ट' फिल्म बना डाली थी. इस फिल्म के समय सेंसर बोर्ड का बहुत बड़ा हंगामा भी हुआ था. हमारी समझ में आया था कि अगर हमारी फिल्म एडल्ट न होती, तो ज्यादा दर्षक मिलते. तो हमने सोचा कि इस बार हम पारिवारिक फिल्म बनाए. इसके लिए जरुरी था कि हम संदेष देने वाली या सामाजिक फिल्में बनाएं. तो बीच में आयुष्मान खुराना की फिल्मों यानी कि सामाजिक फिल्मों का दौर आया था. समाज के हर टैबू पर फिल्में बनी. तो हमने सोचा कि हमारा टैबू वगैरह की बजाय एक साधारण पारिवारिक फिल्म बनाते हैं. हम उस ट्रेंड को फालो करते हैं, जो कि बचपन से देखते आए हैं. हम बचपन मे अमिताभ बच्चन की फिल्म देखने जा रहे होते थे, तो हमें पता होता था कि मजा आने वाला है. हमें पता होता था कि फिल्म में मारधाड़ व गाने होंगे, सेलेबे्रषन होगा. पर अब लोग आईएमडीबी पर जाकर कहानी वगैरह चेक करते हैं. पहले ऐसा नहीं था. तो हमने मनोरंजक फिल्म बनाने की सोची. मनोरंजक फिल्म में क्या क्या होता है? वह सारे तत्व इसमें पिरोए हैं. एक विचार आया कि किरदार आधारित कहानी हो. हमने सोचा कि एक जुगाड़ू किरदार हो. जो सारी चीजों का जुगाड़ करता है. दूसरों की शादी करवाता है, पर खुद शादी नही करता. वह किसी की शादी तुड़वाता है और फिर ख्ुाद शादी के चक्कर में फंस जाता है. इसी लाइन को हमने विस्तृत किया. हमने सोचा कि इसमें रोचक घटनाक्रम क्या हो सकते हैं. हमने किरदार का परिवेष भी सोचा. पहले विचार यह आया था कि एक बेचारा पुरूष परिवार की ढेर सारी औरतों के बीच में फंसा हुआ है. वह मैं स्वयं हॅूं. जब मेरे भांजे का जन्म हुआ था, उस वक्त मेरे घर में मेरी मां,मेरी बहन, भांजी, मेरी पत्नी व मेरी दो बेटियां थी. यानी कि मेरे अलावा सारी औरते हैं. इसलिए हम इस कांसेप्ट पर काम कर रहे थे कि कैसे सारी औरतों को खुश रखा जा सकता है. क्या आपको अहसास है कि सास ननद, ननद भावज, सास बहू के बीच क्या होगा? जब यह पुरुष सभी की सुनेगा, तो इसका क्या हाल होगा. हालांकि मेरे साथ इतना बुरा नही हुआ. पर मैं कल्पना कर सकता हूँ. तो मुझे लगा कि यह किरदार मजेदार हो सकता है. तो फिर सोचते हुए यह बात दिमाग में आयी कि यह किरदार शादी नहीं करता है. बल्कि दूसरों की शादी करवाता है. तब लगा कि अच्छी कहानी बन सकती है. जब हमने लिखा, तो कहानी अच्छी बन गयी. फिर हमने नवाज भाई यानी कि नवाजुद्दीन सिद्दिकी को कहानी सुनायी, वह 15 मिनट के अंदर फिल्म करने को तैयार हो गए. तो अब हमने यह फिल्म बना ली है. हम खहते है कि लोग सिनेमाघरांे में जाकर हमारी फिल्म "जोगीरा सारा रा" को जाकर देखें और सराहें. वैसे आज की तारीख में दर्षकों के सिनेमाघर में जाने या ना जाने का कोई नियम रहा नहीं. ऐसे में फिल्म को सराहना मिल जाए, तो तसल्ली मिल जाएगी.

जुगाड़ु इंसान के लिए शादी व्याह को ही केंद्र में क्यांे रखा? समाज की किसी समस्या को लेकर भी कहानी गढ़ी जा सकती थी?

मैने पहले ही बताया कि जब हमने कहानियां सोचनी शुरु की, तो इस बात पर विचार किया कि हम पारिवारिक या सामाजिक या थ्रिलर किस तरह की फिल्म बनाना चाहते हैं. उसका बेसिक प्रिमायसेस क्या होगा? यह अवचेतन मन का प्रोसेस था. हम परिवार, टीन एजर,महिलाएं, रिक्षा चालक कौन क्या देखेगा, इस पर विचार करते रहते हैं. देखिए, इसमें एक प्रेम कहानी भी है. जब हमने इस पर सोचना शुरु किया, तो निर्देशक ने कहा कि प्रेम कहानी से इतर सब कुछ होना चाहिए. मुझे लगा कि यही इस फिल्म में नयापन होगा. जब हम कहते है कि एक लड़की अपनी शादी तुड़वाने के लिए कहती है और यह पुरूष उस शादी में फंस जाता है, जबकि दोनों को अंत तक प्यार ही नही होता. तो क्या होगा? यह सारी चुनौतियंा थीं? हमने इन चुनौतियो को रखा. पर प्रेम कहानी रखने की वजह यह रही कि दर्षक का एक वर्ग पे्रम कहानी, एक वर्ग काॅमेडी, एक वर्ग पारिवारिक कहानी को इंज्वाॅय करता है,तो सभी को फिल्म की तरफ खींच सके, इसलिए प्रेम कहानी भी रखी.

शादी तुड़वाने वाले काॅसेप्ट पर 'जोड़ी ब्रेकर' सहित कई फिल्में बन चुकी हैं?

आपने सही फरमाया..इस विषय पर अंग्रेजी फिल्में भी बन चुकी हैं. हमारी फिल्म पूरी होने के बाद कुछ दिन पहले एक फिल्म आयी-'तू झूठी मैं मक्कार' भी हमारी फिल्म जैैसी ही है. लेकिन जब हम अपनी फिल्म पर काम कर रहे थे, उस वक्त हमारे सामने इतने अधिक रिफ्रेंसेस नहीं थे. हमें याद नही है कि 'जोड़ी ब्रेकर' को कितने लोगो ने देखा होगा, मगर उस फिल्म की कहानी से हमारी फिल्म की कहानी का कोई लेना देना नही है. मेरा मानना है कि कहानियां एक दूसरे से मिलती जुलती होती ही है. इस वक्त की सफलतम फिल्म "पठान" है. यह फिल्म एक एजेंट की कहानी है. तो एक एजेंट की कहानी वाली कई फिल्में बन चुकी हैं. इसमें एक सिक्रेट एजेंट दूसरा भी है, तो वह भी आ चुकी है. सिक्रेट एजंेट एक लड़की है, तो वह भी आ चुकी है. कुल मिलाकर कहानियां सीमित हैं. मेरा मानना है कि कहानी बहुत थिन लाइन होती है. एक मां, जिसके दो बेटे. एक अच्छा या एक बुरा. अब वह फिल्म 'गंगा जमुना' या 'दीवार' भी हो सकती है. हमने इस बात पर गौर किया कि हम क्या नया कर सकते हैं. यदि आपको यह 'जोड़ी ब्रेकर' लगती है, तो हमने उसमें कुछ नयापन लाने की कोषिष की है.

इसमें 'लव मैरिज' को जोड़ने की वजह?

खूबसूरत बात यही है कि हमारी फिल्म में प्यार नही आया है. फिल्म के अंत में एक दृष्य है-जहंा यह दोनो शादी कर रहे हैं. तो जोगी का जो साथी और उसकी बहन है, वह कहते हैं-"इन लोगो ने शादी की है, तो यह इनका प्यार है या इनका जुगाड़ है?' तब वह कहता है कि -"षायद इनको पता भी नही है कि यह प्यार करते हैं या नहीं. " तो हमारी फिल्म दो ऐसे किरदारों की कहानी है, जिन्हे पता नहीं कि वह क्या कर रहे हैं, पर करते जा रहे हैं. जुगाड़ करते करते शादी तक कर लेते हैं. हमारी फिल्म टिपिकल प्रेम कहानी नही है. ऐसे दो लोगों की कहानी नही है, जो साथ में चलते चलते प्यार हो गया. हमारी पत्नी रेखा की सलाह थी कि इन्हे प्यार नहीं होना चाहिए. हमारे लिए यही सबसे बड़ी चुनौती थी. पर बाद में हमें लगा कि 'फील गुड' के लिए इनका कुछ हो जाना चाहिए. तो वह हमने किया है, मगर प्यार नही हुआ है.

क्या आप कहानी या पटकथा लिखते समय ही तय कर लेते हैं कि किस किरदार को कौन सा कलाकार निभाएगा?

यदि हम कलाकार को ध्यान में रखते हैं, तो लिखना आसान हो जाता है. क्योंकि फिर हम उस कलाकार के व्यक्तित्व के अनुसार ही अपने किरदार व उसके माहौल को गढ़ते हैं. उसकी कल्पना करना आसान हो जाता है. पर यह जरुरी नहीं होता कि बाद में उस किरदार को वही कलाकार निभाए. मसलन- हमारी फिल्म में चैधरी गैंग का नेता है, जिसे सभी चाचा चैधरी बुलाते हैं. हमने अपनी टीम से कहा-"यह तो काॅमिक टाइप का किरदार है, जो कि ओवर द टाॅप हो जाएगा.' फिर हमने कहा कि अगर इस किरदार में संजय मिश्रा होंगे तो नही लगेगा. लेकिन राजपाल यादव होंगे, तो किरदार अलग जोन में चला जाएगा, इसलिए वह नही जमते.

मान लीजिए आपने संजय मिश्रा को दिमाग में रखकर कहानी लिखी, पर अंत में उसी किरदार में राजपाल यादव आ गए, तब क्या होगा?

देखिए, कलाकार से अभिनय करवाना तो निर्देशक के हाथ में होता है. राजपाल यादव बहुत अच्छे कलाकार है. पर उनकी ईमेज है कि वह थोड़ा ओवर द टाॅप अभिनय करते हैं. यॅूं भी हमें जिस तरह के कलाकार की जरुरत होती है, उस तरह के कलाकारांे के चार पांच विकल्प होते हैं.   

लेखक,निर्देशक,निर्माता से लेकर कलाकार तक को कहानी व पटकथा अच्छी लगती है,फिर भी फ़िल्म असफल हो जाती है? ऐसा क्यों?

यह ऐसा यक्ष प्रष्न है, जिसका जवाब किसी के पास नही. यह उसी तरह से है, जिस तरह से यह सवाल है कि मरने के बाद इंसान कहां जाता हैं? कोई नही जानता. फिल्म की सफलता व असफलता का रहस्य कोई नहीं जानता. हम सभी अपनी समझ के अनुसार अच्छी व सफल फिल्म बनाने का प्रयास करते हैं. हम दर्षक को 'टेकेन फार ग्रांटेड' नही ले सकते. हम सभी अपने अपने स्तर पर पता लगाते हैे कि दर्षक को क्या चाहिए? जब कोई फिल्म सफल होती है, तो हम सोचते हैं कि इसमें दर्षक को क्या अच्छा लगा.पर हमारा जजमेंट सही हो यह जरुरी नही. मसलन- 'पठान' सफल है. हम सोच रहे हैं कि दर्षक को 'पठान' की कहानी अच्छी लगी. पर यह भी हो सकता है कि दर्षक 'पठान' में सिर्फ षाहरुख खान को देखने गया हो, उसे कहानी पसंद न आयी हो.

इन दिनों 'उंचाई' सहित कुछ अच्छी फिल्मों को दर्षक क्यांे नही मिल रहे हैं?

'उंचाई' तो 'कोविड' व लाॅकडाउन के बाद के दौर वाली फिल्म है. इसलिए इसे इस आधार पर जज नही किया जा सकता कि वह किन दर्षकों के लिए बनी है. 'लाॅक डाउन' के बाद हमारी फिल्मों के साथ जो हो रहा है. उसकी मूल वजह यह है कि अब लोगों को घर के अंदर रहने की आदत हो गयी है. पहले 'कोविड' व लाॅक डाउन के चलते मजबूरी में घर के अंदर रहे, अब हमें घर से बाहर निकलने के लिए मोटीवेषन चाहिए. कोविड से पहले घर के अंदर रहने के लिए मजबूरी चाहिए थी, अब घर से बाहर निकलने की लिए मजबूरी चाहिए. क्या कोई चीज आपको घर से बाहर निकलने के लिए मजबूर कर रही है. पहले यदि फिल्म के रिलीज होने पर हम फिल्म नही देखते थे तो सोचते रहते थे कि इस सप्ताह फिल्म उतर जाएगी, इसलिए चलो देख आते हैं.ऐसे में लोग बुधवार या गुरूवार को भी जाकर देख आते थे. दूसरे सप्ताह फिल्म थिएटर में लगी रह जाती थी, तो लोगों के दिमाग में आता था कि चलो एक बार और देख आते हैं. इसी प्रोसेस के तहत फिल्में सफल होती थीं. अब लाॅक डाउन में ओटीटी घर बैठे लोगों को फिल्म देखने का नजरिया दे दिया. तो अब लोग सोचते हंै कि फिल्म इस सप्ताह थिएटर से उतर रही है, तो कोई बात नहीं, कुछ दिन में ओटीटी पर देख लेंगें. लाॅक डाउन के बाद पूरे देष के हर परिवार की आर्थिक हालत भी अच्छी नहीं है. घर से बाहर निकल कर फिल्म देखने का मोटीवेषन भी नही है. पिछले कुछ वर्षों के अंतराल में मिडल क्लास व हाई मिडल क्लास के बीच खाई बढ़ती ही गयी है. आर्थिक स्तर पर अब बहुत लोअर क्लास वाले हैं अथवा बहुत हाई क्लास वाले लोग हैं. यह सारी चीजें सिनेमा व्यवसाय पर असर डाल रही हैं. आर्थिक हालात के चलते अब दर्षक काफी चूजी हो गया है. तो वहीं अब उसके पास मनोरंजन के ढेर सारे साधन हैं. वह अपने मोबाइल या टीवी पर कुछ भी देख सकता है. थिएटर में जाने के लिए अब मोटीवेषन चाहिए. 'उंचाई' यदि कोविड के दौर से पहले आती, तो लोग इसे सिनेमाघरों में जरुर देखना चाहते. कुछ लोग सूरज बड़जात्या के नाम पर साफ सुथरी फिल्म देखने के लिए मध्यमवर्गीय जाता, पर अब मध्यमवर्गीय परिवारांे की आर्थिक हालत ऐसी नही हैं कि वह 'उंचाईं' देखने जाता.

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