‘फिल्म ‘जहां चार यार’ में मैंने एक दब्बू किस्म की महिला शिवांगी का किरदार निभाया है’-Swara Bhaskar

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By Mayapuri
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‘फिल्म ‘जहां चार यार’ में मैंने एक दब्बू किस्म की महिला शिवांगी का किरदार निभाया है’-Swara Bhaskar

2010 में ‘‘माधोलाल कीप वाॅकिंग’’ से करियर शुरू कर ‘‘तनु वेड्स मनु‘‘ में नायिका (कंगना रनोट  ) की सबसे अच्छी दोस्त पायल की भूमिका निभाकर बतौर अभिनेत्री खुद को स्थापित कर लेने वाली स्वरा भास्कर बाद में ‘‘निल बटे सन्नाटा‘‘ में 15 साल की बेटी की माँ और ‘‘अनारकली ऑफ आरा‘‘ में अति बोल्ड किरदार निभाकर सबको चैंका देने वाली स्वरा भास्कर बाद में वेब सीरीज ‘रसभरी’, फ्लैश’, ‘भाग बन्नी भाग’ व ‘मेरे कमरे में कौन रहता है’ में अपने अभिनय से सभी को चैंकाती आयी हैं. अब वह 16 सितंबर को प्रदर्शित हो रही फिल्म ‘जहां चार यार’ को लेकर सूर्खियों में हैं. प्रस्तुत है स्वरा भास्कर से हुई एक्सक्लूसिव बातचीत के अंश...

 आपके 12 वर्ष के करियर के टर्निंग प्वाइंट्स क्या रहे?

मैं सबसे पहले स्पष्ट कर दॅूं कि मेरी पहली प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ नहीं थी. मेरी पहली प्रदर्शित होने वाली फिल्म थी-‘‘माधोलाल कीप वाॅकिंग’’, जो कि 2010 में प्रदर्शित हुई थी. लेकिन मेरे करियर का पहला टर्निंग प्वाइंट ‘तनु वेड्स मनु’ थी. इसके लिए मुझे कई पुरस्कार भी मिले थे. इसके बाद टर्निंग प्वाइंट ‘रांझणा’ थी. ‘रांझणा’ से जो प्यार मिला, जो पहचान बनी, उसी का मैं आज तक खा रही हॅूं. इसके बाद अगला टर्निंग प्वाइंट ‘‘प्रेम रतन धन पायो’’ रही. क्योंकि ‘प्रेम रतन धन पायो’ ने मुझे मेरी आने वाली फिल्मों के लिए मुझे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान दी. ‘प्रेम रतन धन पायो’ विदेशों में मिडल इस्ट, अमरीका, यूके में जबरदस्त सफल हुई थी, जिसके चलते एनआरआई दर्शक मुझे पहचानने लगे.  इसके बाद टर्निंग प्वाइंट रहा ‘‘निल बटे सन्नाटा.’‘. मेरे करियर की ‘निल बटे सन्नाटा’ पहली सोलो हीरोईन फिल्म थी, जिसे जबरदस्त सफलता मिली थी. इस फिल्म ने अपनी लागत से पांच छः गुणा ज्यादा कमाया था. ‘निल बटे सन्नाटा’ से मुझे निजी स्तर पर जो संतुष्टि मिली, वह कमाल की रही. मुझे पहली बार अहसास हुआ कि मैं भी एक लीड एक्ट्रेस हँू. मुझमें भी वही काबीलियत है, जो दूसरे हीरो हीरोईनों मंे है. एक कलाकार के तौर पर जो स्वाभाविक असुरक्षा की भावना होती है, वह खत्म हो गयी. कलाकार के मन में एक एन्जाइटी रहती है. वह हर दिन अखबार खोलकर देखती है कि कौन क्या कर रहा है? लेकिन सच कह रही हॅॅंू फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ के बाद मैने यह जानना छोड़ दिया कि दूसरा कलाकार क्या कर रहा है. मुझे समझ में आ गया कि मेरी अपनी यात्रा है, मेरी अपनी एक अलग राह है और मुझे उसी राह पर आगे बढ़ना है. मुझे सिर्फ अपना काम करना है. मुझे किसी से कोई लेना देना नही है. इसी के साथ मेरे प्रति फिल्म इंडस्ट्ी में इज्जत भी बढ़ी. मुझे याद है कि एक दिन वरूण धवन बड़े प्यार से मुझसे मिला और मेरे काम की तारीफ की. इसके बाद मेरे करियर मे टर्निंग प्वाइंट रहा- फिल्म ‘‘अनारकली आफ आरा’’. यह फिल्म इसलिए टर्निंग प्वाइंट रही, क्यांेकि इस फिल्म में मैने अपने विश्वास पर अभिनय किया था. कलाकार का अपना जो कंविक्शन होता है, उस पर काम किया था. ‘अनारकली आफ आरा’ मेरे लिए शुद्ध परफार्मेंस है. पर इस फिल्म में अभिनय कर मैंने बहुत बड़ी रिस्क उठायी थी. फिर टर्निंग प्वाइंट रही-‘वीरे दी वेडिंग’. इस फिल्म को करने से प्यार भी मिला और गालियां भी मिली. यदि हम 2018 और 2019 के बाद के टर्निंग प्वाइंट की बात करें, तो जो कंट्रोवर्सी का दौर चला, वह भले ही फिल्मांे से संबंधित नहीं है, पर मुझसे आकर चिपक गया. मेरे चार वर्ष तो सिर्फ कंट्रोवर्सी में ही निकल गए. 2018 के बाद तीन माह ऐसे नही बीतते हैं, जब कोई कंट्रोवर्सी न हो. इसमें कुछ अच्छा है और कुछ बुरा भी है. बुरा यह है कि लोग आपको अपनी फिल्म में लेने से डरते हैं. पर अच्छा यह है कि मेरा नाम रोशन होता रहता है. कंट्रोवर्सी मुझे लोगों के बीच जिंदा रखती हैं. मतलब अब मैं हर इंसान के दिमाग के किसी न किसी कोने में रहती हॅूं. आप से भी बात होती रही है. यह हालत तब है, जब कि पिछले चार वर्ष से सिनेमाघर में मेरी कोई फिल्म प्रदर्शित नहीं हुई है. डेढ़ वर्ष से ओटीटी प्लेटफाॅर्म पर भी मेरा कुछ नहीं आया. यह सब भी एक कलाकार के लिए जरुरी है. मुझे लगता है कि लोगों की ट्रोलिंग से मुझे फायदा ही होता है. मुझे ट्रोल करने वाले समझ ही नहीं रहे हंै कि यह मुझ पर अहसान कर रहे हैं. यह सभी ट्रोलर्स मेरा नाम जिंदा रख रहे हैं. अब मैं उम्मीद कर रही हॅूं कि मेरी 16 सितंबर को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘‘जहां चार यार’’ भी टर्निंग प्वाइंट साबित होगी.

 फिल्म ‘‘जहां चार यार’’ करने की कोई खास वजह रही?

फिल्म ‘‘जहां चार यार’’ की विषय वस्तु और मेरे अनूठे किरदार ने मुझे इस फिल्म को करने के लिए प्रेरित किया. यह बाॅलीवुड की पहली फिल्म है, जिसमें चार शादीशुदा महिलाओं की दोस्ती की कहानी है. इस फिल्म में उन चार गृहणियों की कहानी है, जो भारत के अलग अलग कस्बों से जुड़ी हुई हैं. जिन्हे रबिश तरीके से नजरंदाज कर दिया जाता है, वही किरदार हैं. जिन्हे लोग बहनजी कह कर अनदेखा करते हैं, उन्ही चार किरदारों से हम लोगांे को बता रहे हैं कि यही बहनजी कितनी मजेदार हो सकती है. उनका अपना शानदार व्यक्तित्व हो सकता है. इस फिल्म में हमने सारी नगेटीविटी को हटाकर पूरी पाॅजीटीविटी को उभारा है. दूसरी बात इस फिल्म में मेरा शिवंागी का ऐसा किरदार है, जिसे मैने पहले नहीं किया. मैंने इस तबके यानी कि एक जमीनी लड़की का किरदार निभाया है. हिंदी प्रदेश, जिसे अंग्रेजीदां ‘काउ बेल्ट’ कहते हैं, यानी किम मने उत्तरप्रदेश व बिहार के किरदार निभाए हैं. मैं हमेशा कहती हॅंू कि उत्तर प्रदेश व बिहार ने मेरा कैरियर बनाया. लेकिन मेरे सारे किरदार हमेशा दबंग किस्म के रहे हैं. मेरे हर किरदार के अंदर एक आत्म विश्वास झलकता है. मेरे सारे किरदारांे की अपनी खुद्दारी है कि हम अपनी किस्मत के मालिक हैं. ‘निल बटे सन्नाटा’ मे आप चंदा को ही ले लीजिए, वह अपनी किस्मत ख्ुाद संवारने में यकीन रखती है. उसका चरित्र बड़ा फ्लैम ब्वाॅय जैसा है. ‘जहां चार यार’ में मुझे पहली बार दब्बू किस्म का किरदार करने को मिला. चारों महिलाओं के बीच शिवांगी ही दब्बू है. उसकी जिंदगी में सबसे बड़ी समस्या यही है कि पति कहीं नाराज न हो जाएं. उसकी लाइने हैं-‘जरा इनसे पूछ लेती हूं’ या ‘जरा इन्हें बता देती हूं.’ वह कोई भी काम बिना अपने पति से इजाजत लिए नहीं करती. सबसे ज्यादा ट्ेडीशनल व संस्कारी है. पूरी तरह से दकियानूसी है. सभी उसका फायदा उठा रहे हैं और उसे पता ही नहीं चल रहा है कि उसका फायदा उठाया जा रहा है. शिवंागी प्यारी, भोली, पवित्र व दब्बू किस्म की औरत है. इस कदर डरी हुई लड़की का किरदार मैंने इससे पहले कभी नहीं निभाया. मेरी निजी जिंदगी में मेरा अपना एक अलग व्यक्तित्व है, तो वहीं लोगो के बीच ‘ट्वीटर वाॅरियर’, बेबाक होने, बोल्ड, निडर यानी कि दबंगई की मेरी अलग इमेज बनी हुई है. पर मैं अपने बारे मंे दबंगई की बातें सुनकर थक चुकी हूंू. तो मैंने सोचा कि कुछ अलग करके देखूं. इसलिए भी मैंने फिल्म ‘जहां चार यार’ में शिवंागी का किरदार निभाया. सहमी औरत का किरदार निभाना मेरे लिए चुनौती रही.

 शिवांगी का किरदार निभाने के लिए कहीं से कोई प्रेरणा?

मुझे मेरी नानी की याद आयी. जैसे कि ‘निल बटे सन्नाटा’ में चंदा का किरदार निभाते हुए मैने अपनी मां से बहुत प्रेरणा ली थी. वहीं ‘जहां चार यार’ मंे शिवांगी का किरदार निभाने के लिए मैंने अपनी नानी से प्रेरणा ली. 2017 में कैंसर की बीमारी से उनका देहांत हो गया था. मैं अपनी नानी के बहुत करीब थी. बचपन से उन्होेने मुझे मां की तरह पाला है. वह बनारस की थी और उनकी शादी पंद्रह साल की उम्र में बिहार के एक बड़े जमींदार परिवार में हो गयी थी. मेरे नाना जी बहुत वेस्टर्नाइज थे. वह भी नेवी अफसर थे. इंग्लैंड से पढ़कर आए थे. नाना का ट्रांसफर मंुबई में हो गया. साठ के दशक का मुंबई और कोलाबा क्षेत्र कैसा था, आप जानते होंगे. लोग अंग्रेजी में बात करते थे और मेरी नानी को अंग्रेजी बोलना नहीं आता था. नानी मुझे सब बताती थी कि कैसे उन्हे डर लगता था. किस तरह नाना उन्हे अंग्रेजी सिखाते थे. जब नाना एक शिप पर रहते हुए विदेश मंे थे, तब मेरी नानी पटना में अपनी ससुराल में रह रही थीं. एक बार वह पेड़ पर चढ़ गयी. उनके ससुर ने देखा और कहा-‘‘अरे दुल्हिन यह क्या कर रही हो?’ तो मेरी नानी ने भोलेपन से कहा-‘‘यह सारे लड़के मुझसे कह रहे थे कि मैं पेड़ पर नहीं चढ़ सकती, तो मैने चढ़कर दिखा दिया. ’उनके ससुर ने कहा-अच्छा,तुम नीचे आओ’. नानी की बतायी हुई यह सारी बातें मुझे प्यारी लगी, तो मैंने कहा कि मंै अपनी नानी को ही लेकर शिवंागी में डाल देती हूं.

 क्या इस फिल्म में इस बात को रेखाकिंत किया गया है कि पुरूष प्रधान समाज में आज भी औरतों की क्या स्थितियां हैं?

- जी नहीं..देखिए, इस फिल्म में प्रताड़ना या यातनाएं नही दी जा रही है. हमने बहुत मजेदार तरीके से दिखाया है कि शादी के बाद कैसे औरतों के अपने शौक धूल में मिल जाते हैं. यह चारों अपनी घर गृहस्थी से इस कदर उब चुकी हैं कि वह चाहती हैं कि कम से कम एक बार तो ऐसा कुछ कर लें. फिल्म में इस बात को एक्स्प्लोर किया गया है कि जिंदगी में कम से कम एक सप्ताह तो अपने लिए ले लो. फिल्म का संदेश बहुत अच्छा है. सब कुछ बहुत मनोरंजक तरीके से बयंा किया गया है.

फिल्म ‘‘जहां चार यार’’ की शूटिंग के अनुभव?

बहुत बढ़िया अनुभव रहे. कहानी व किरदार मेरी पसंद का था. निर्देशक कमल पांडे के साथ मेरी अच्छी ट्यूनिंग रही. कमल जी के लिए मेरे मन में बहुत आदर व सम्मान है. वह प्रतिभाशाली लेखक, निर्देशक व अच्छे इंसान हैं. मुझे तो यकीन ही नही होता कि एक मर्द इतनी खूबसूरती से, इतनी सहानुभूति से, महिलाओं से जुड़ी इतनी बारीक चीजों को पकड़कर, शादीशुदा महिलाओं के अनुभव को कहानी के ताने बाने में बुन सकता है.

बाॅलीवुड में नारी सशक्तिकरण की क्या स्थिति है?
बहुत अच्छी है. मैं हमेशा कहती हॅूं कि बाॅलीवुड समाज का आइना है. समाज में महिलाओं की जिस तरह की स्थिति है, वैसी ही बाॅलीवुड में भी है. समाज में जितनी प्रगति महिलाओं की होगी, उतनी ही बाॅलीवुड मे भी होगी. जितना नुकसान समाज में महिलाओं का होगा, उतना ही नुकसान बाॅलीवुड में महिलाओं का होगा.

आपकी अपनी एक सोच व विचार हैं. ऐसे में आप फिल्में साइन करते समय किन बातों का ध्यान रखती हैं?

मैं हमेशा सशक्त किरदार ही चुनती हॅूं. देखिए, रूढ़िवादिता को तोड़ना मेरे अभिनय कैरियर का एक हिस्सा है. मैं किरदारों को निभाते हुए कभी भी जोखिम लेने से नहीं डरती. जब मैं फिल्म उद्योग में आई थी, तब मैं फिल्म उद्योग की कार्यशैली से अपरिचित थी. लोगो ने मुझे बहन या नायिका की सबसे अच्छी दोस्त का किरदार निभाने से मना किया था. पर मैने ‘तनु वेड्स मनु’ में नायिका की सहेली पायल का किरदार निभाकर यहां तक पहुंची हॅूं. ‘तनु वेड्स मनु’ करने के पीछे मेरी सोच यह थी कि अगर लीड रोल पाने के लिए यही नियम हैं, तो उन्हें क्यों न तोड़ा जाए? अपने खुद के नियम निर्धारित करने के लिए रूढ़िवादिता से छुटकारा क्यों न पाया जाए? मुझे अनसुनी और ताजगी पूर्ण कहानियां करने में आनंद आता है. मैं वह किरदार चुनती हॅूं, जिन्हे निभाना चुनौतीपूर्ण हो और दर्शकों को मनोरंजन की एक नई खुराक प्रदान करें.

 इन दिनों बाॅयकाॅट बाॅलीवुड मुहीम चल रही है?

यह सब रबिश है. सब को सच पता चल गया है. सभी जान चुके हैं कि इस तरह की मुहीम को  चलाने के लिए पैसे दिए जाते हैं. बाॅयकाॅट अजेंडे के तहत ही किया जा रहा है. यह जनता की आवाज नही है. फिल्म की कहानी में दम हो, तो दर्शक उसे देखने जाता है.

इस फिल्म के अलावा क्या कर रही हैं?

इसके बाद मैं निर्देशक मनीष की फिल्म ‘मिसेस फलानी’ की शूटिंग शुरू करने वाली हॅूं. एंथोलाॅजी है. इसमें नौ छोटी छोटी कहानियंा हंै. हर कहानी में मुख्य किरदार एक औरत है, जिसे मैं निभा रही हॅूं.यह काफी दिलचस्प है. एक बार फिर मैं ऐसा किरदार कर रही हॅूं, जिसे मैने पहले नहीं किया है. मैंने ख्ुाद दो पटकथाएं लिखी हैं. एक प्रेम कहानी है. एक पटकथा तो छः साल से लिख रही हॅूं, जिसे आपने सुना है. दूसरी दो तीन वर्ष से लिख रही हॅूं. अब मैं इन पटकथाओ पर फिल्म बनाना चाहती हॅूं, जिनमें मैं स्वयं अभिनय करना चाहॅूंगी. निर्देशन नहीं करना चाहती. इस जद्दोजेहाद में लग गयी हॅूं.

निर्देशन क्यों नही करना है? लोग मानते हैं कि लेखक के दिमाग में किरदार व माहौल लिखते हुए बस जाता है. ऐसे में उसके लिए निर्देशन करना आसान हो जाता है?

मैं निर्देशन के लिए ख्ुाद को तैयार नही समझती. मुझे लगता है कि निर्देशक को जो नजरिया होता है, वह मुझमें नहीं है. निर्देशक को कलाकार से कहीं बढ़कर होना पड़ता है. भविष्य में शायद निर्देशन की सोचूं. फिर अभी मुझे अभिनय के क्षेत्र में काफी कुछ करना है. पर अभी मुझे निर्देशन सीखना है.  

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