अब तो किसी भी निर्देशक की अपनी पहचान नहीं रही: मेहुल कुमार

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By Shanti Swaroop Tripathi
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अब तो किसी भी निर्देशक की अपनी पहचान नहीं रही: मेहुल कुमार

बॉलीवुड में पिछले 45 वर्षों से कार्यरत लेखक, निर्देशक व निर्माता मेहुल कुमार की अपनी एक अलग पहचान है. 1977 से अब तक वह ‘जनम जनम ना साथ’, ‘चंदू जमादार’, ‘रणचंदी’, ‘ढोली’, ‘मेरू मिलन’ व ‘मंदा ना मोर’ सहित 18 गुजराती फिल्में निर्देशित करने के अलावा ‘फिर जनम लेंगे हम’, ‘मरते दम तक’, ‘नाइंसाफी’, ‘नफरत की आंधी’, ‘तिरंगा’, ‘क्रांतिवीर’ व ‘जागो’ सहित 19 हिंदी फिल्में बना चुके हैं. उनकी लगभग सभी फिल्में सुपर डुपर हिट रही है. राजकुमार और नाना पाटेकर के साथ तीन फिल्में बनाकर उन्होने एक नया रिकॉर्ड बनाया. कोई भी निर्देशक इन दोनों कलाकारों के साथ एक से अधिक फिल्में नही बना सका. मेहुल कुमार ने धर्मेंद्र व जीतेंद्र के साथ भी चार चार फिल्में की. मगर जब कारपोरेट व स्टूडियो सिस्टम के चलते कलाकारों की दखंलदाजी बढ़ी, तो उन्होंने फिल्में बनाना बंद कर दिया. उन्होंने अपने पैतृक शहर जामनगर में मल्टीप्लैक्स भी बनवाया है. हाल ही में मेहुल कुमार से मुलाकात हुई. तो हमने उनसे उनके करियर व सिनेमा की बदलती दशा व दिशा पर एक्सक्लूसिव लंबी बातचीत की. 

पत्रकारिता से थिएटर, थिएटर से गुजराती फिल्मों के निर्देशक, फिर हिंदी फिल्मों के लेखक, निर्देशक के तौर पर आपका एक लंबा करियर रहा है. आज आप अपने इस करियर को किस तरह से देखते हैं?

हकीकत यह है कि आज की तारीख में जितना संघर्ष करना पड़ता है, उस वक्त इतना संघर्ष नहीं करना पड़ता था. उस वक्त आप किसी भी निर्माता या कलाकार से आसानी से मिलकर उन्हें कहानी सुना सकते थे. जहां तक मेरा सवाल है, तो मेरी शिक्षा दिक्षा मेरे पैतृक शहर जामनगर में ही हुई थी और जामनगर में बतौर लेखक, निर्देशक व अभिनेता मुझे कई पुरस्कार भी मिले थे. इसीलिए कुछ बड़ा व अच्छा काम करने के मकसद से ही मैंने मुंबई आने का निर्णय लिया था. मुंबई आने के बाद संघर्ष तो करना पडा. मैंने पत्रकार के रूप में काम करते हुए फिल्म समीक्षाएं लिखीं. थिएटर से जुड़कर थिएटर पर काफी काम किया. थिएटर में मेरे एक गुजराती नाटक को आमिर खान के पिता ताहिर हुसैन ने देखा. वह गुजराती फिल्म बनाना चाहते थे. उन्होंने मुझसे बात की और मैंने 1977 में पहली गुजराती फिल्म ‘जनम जनम ना साथ’ निर्देशित की, जिसमें रमेश देव, भावना भट्ट व आदिल अमान जैसे कलाकार थे. यहां से मेरे फिल्मी करियर की शुरूआत हुई. मैंने फिल्म उद्योग में काम करते हुए 45 वर्ष  पूरे कर लिए हैं. 1977 से पहले बतौर सहायक निर्देशक एक गुजराती फिल्मी की थी. ‘जनम जनम ना साथ’ की कहानी, पटकथा, संवाद लिखने के साथ ही निर्देशन भी किया था. यही फिल्म हिंदी में ‘फिर जनम लेंगे हम’ के नाम से बनी थी. उन दिनों गुजरात में पगड़ी व धोती वाली फिल्में बनती थी, पर मैंने अपनी फिल्म के पुरूष किरदारों को पैंट शर्ट पहनायी थी. फिल्म को इतनी सफलता मिली कि फिर मुझे रूकने की जरुरत नहीं पड़ी. मेरी एक साथ तीन चार फिल्में सुपर डुपर हिट हुई. और उसके बाद मेरी हिंदी फिल्मों की यात्रा शुरू हुई. हिंदी में मेरी पहली फिल्म थी-”लव मैरिज”. उसके बाद ‘अनोखा बंधन’. ‘अनोखा बंधन’ अरूणा इरानी के भाई की गुजराती फिल्म ‘मां बिना सूनो संसार’ का हिंदी रीमेक थी. फिर मैंने प्राणलाल मेहता के लिए एक गुजराती फिल्म निर्देशित की थी, जो कि सुपर डुपर हिट हुई थी. तब एक दिन प्राणलाल मेहता ने मुझसे कहा कि हिंदी के लिए कोई स्क्रिप्ट हो तो बताओ. मैंने कहा कि मेरे पास एक अच्छी स्क्रिप्ट है, जिसमें राज कुमार को ले सकते हैं. प्राण लाल मेहता ने कहा कि यह संभव नहीं है. प्राण लाल मेहता ने बताया कि राज कुमार दो बार उनकी फिल्म करने से मना कर चुके हैं. मैंने उनसे कहा कि मैं राज कुमार को कहानी सुनाता हॅूं, यदि वह इस कहानी पर काम करने को तैयार होंगे, तो आप निर्माण करोगे. उन्होंने हामी भर दी. उसके बाद मैं राज साहब (राज कुमार) से मिला और उन्हें फिल्म “मरते दम तक” की कहानी सुनायी, इस फिल्म से पहले पांच वर्ष से राज कुमार फिल्में नहीं कर रहे थे. तो ‘मरते दम तक’ से उन्होंने अभिनय में वापसी की थी. राज साहब को कहानी बहुत पसंद आयी. उन्होंने मुझसे पूछा कि इसका निर्माता कौन है. मैंने बताया कि प्राणलाल मेहता है. उन्होंने कहा कि अरे, उसको तो मैं दो बार ‘न’ बोल चुका हँू. पर मैं आपके लिए यह फिल्म करुंगा. 1987 में प्रदर्शित फिल्म ‘मरते दम तक’ सिल्वर जुबली फिल्म हुई. तो इस तरह 45 वर्ष के दौरान मैंने गुजराती भाषा में 18 फिल्में निर्देशित की, जिनमें से 14 सिल्वर जुबली रही. हिंदी में मैंने 19 फिल्में निर्देशित की, जिनमें से मेरी होम प्रोडक्शन फिल्में हैं- ‘तिरंगा’, ‘क्रंातिवीर’, ‘कितने दूर कितने पास’. यह सभी फिल्में सुपर डुपर हिट रहीं. मैंने शत्रुघ्न सिन्हा के साथ ‘नाइंसाफी’, धर्मेंद्र के साथ चार फिल्में, जीतेंद्र के साथ चार फिल्में की. तो इस तरह मेरा गुजराती व हिंदी फ़िल्मों का सफर चलता रहा. लेकिन उस दौर की तुलना आज के वक्त से करें, तो फिल्म इंडस्ट्री में बहुत बड़ा फर्क आ चुका है.

आपके 45 वर्ष के करियर में टर्निंग प्वाइंट्स क्या रहे?

मैंने पहले ही कहा कि उन दिनों हमें संघर्ष कम करना पड़ता था. मेरा करियर सहज गति से आगे बढ़ता रहा. इसके लिए हमने काफी सोच समझकर फिल्में बनायी. कहीं कोई जल्दबाजी नहीं की. पहले फिल्म इंडस्ट्री को क्रिएटिव गिना जाता था. पहले हम कहानी ढूढ़ते थे. फिर यह विचार करते थे कि इस कहानी के किस किरदार में कौन कलाकार फिट बैठेगा. तब हम उस कलाकार को कहानी सुनाते थे. मेरी होम प्रोडक्शन फिल्म ‘तिरंगा’ में राजकुमार के साथ नाना पाटेकर थे. मगर जब मैंने अपनी होम प्रोडक्शन फिल्म ‘क्रांतिवीर” में नाना पाटेकर को सोलो हीरो लिया, तो मेरे दो डिस्ट्रीब्यूटरों सी पी और राजस्थान के, ने फोन करके कहा कि वह हमारे साथ एग्रीमेंट करने को तैयार हैं, मगर अकेले नाना पाटेकर को कौन देखेगा? मैंने उनसे कहा कि मैं नाना पाटेकर के लिए ‘क्रंातिवीर’ नहीं बना रहा. मगर इसके किरदार में नाना पाटेकर ही फिट है. इसलिए उसे लिया है. मैं आपको फिल्म का ट्रायल दिखांऊगा, आपको फिल्म पसंद न आए, तो उसी दिन आप अपना पैसा वापस ले लेना. अंडर प्रोडक्शन जो पैसा दिया जाता है, वह मत देना. फिल्म की शूटिंग पूरी होने के बाद जब फिल्म की पहली कापी निकली, तो मैंने केतनव प्रिव्यू थिएटर में इसका ट्रायल रखा. दोनों डिस्ट्रीब्यूटर भी आए थे. फिल्म देखकर दोनो ने कहा कि, ‘यह तो नाना पाटेकर’ का लाइफ टाइम परफाॅर्मेंस हैं. ‘उसके बाद फिल्म को मिली सफलता से सभी आश्चर्य चकित हुए थे. लेकिन आज की तारीख में ऐसा नहीं है. मैं आपको ‘तिरंगा’ का वाकिया बताना चाहूंगा. ‘तिरंगा’ में नाना पाटेकर व राज कुमार के सामने विलेन के किरदार में मराठी रंगमंच के नए अभिनेता दीपक शिर्के को लिया था. तब सभी ने कहा था कि राज कुमार व नाना के सामने एक नए लड़के को विलेन ले रहे हो, यह तो गलत है. मैंने कहा कि उसका नाटक मैंने देखा है. वह बहुत अच्छा अभिनेता है. मुझे आतंकवादी गेंडास्वामी के किरदार के लिए जिस तरह का कद, बाॅडी और गेटअप चाहिए,वह देखने में गेदा स्वामी ही लगता है. हम उस वक्त इस तरह कलाकार का चयन करते थे. मगर आज यह संभव नहीं है. आज आप देखते है कि एक फिल्म के साथ कास्टिंग डायरेक्टर, क्रिएटिव डायरेक्टर, क्रिएटिव प्रोड्यूसर जैसे कई लोग होते हैं. पहले यह सब नहीं होते थे. तो आज की तारीख में निर्देशक किसकी सुने? जब वह चार लोगांे की सुनेगा तो स्वाभाविक तौर से वह सही निर्णय नहीं लेगा. जिसका असर फिल्म की गुणवत्ता पर पड़ना स्वाभाविक है. इसी वजह से अब कहानी साइड लाइन हो जाती है. अब स्टूडियो सिस्टम है. स्टूडियो वाले कहानी नहीं कलाकारों के नाम पूछते हैं. यदि हमने शाहरुख खान सहित बड़े कलाकारों के नाम गिना दिए, तो जो बजट हम मांगते हैं, वह तुरंत देने को तैयार हो जाते हैं. उनको कहानी में कोई रूचि नहीं है. कलाकार को भी सिर्फ पैसे में रूचि है, कहानी में नहीं. अब फिल्म नहीं सिर्फ प्रपोजल बन रहे हैं. आप किसी एक फिल्म का नाम बताएं, जो कि पिछले पंाच छह वर्षों में बनी हो, जिसे लोग दस वर्ष बाद भी याद करेंगे? अब हिंदी सिनेमा में तकनीक आ गयी है, क्रिएशन खत्म हो गया है. यही हालत संगीत की है. आज भी हर चैनल पर पुराने गाने बजते हैं. नई फिल्मों के गाने नहीं बजते. नई फिल्म के जो गाने चैनलों पर नजर आते हैं, वह फिल्म की रिलीज के तीन दिन बाद बंद हो जाते हैं.

राजकुमार और नाना पाटेकर से तो बड़े बड़े निर्देशक डरते थे. और इनसे दूर रहना पसंद करते थे. पर आपने इनके साथ भी काम किया?

आपने एकदम सही कहा. राजकुमार ने मेरे साथ तीन फिल्में की, इतनी फिल्में उन्होंने किसी भी निर्देशक के साथ नहीं की. नाना पाटेकर ने मेरे साथ तीन फिल्में की, दूसरे किसी भी निर्देशक के साथ इतनी फिल्में नहीं की. अमिताभ बच्चन ने मेरे साथ दो फिल्में की, जिसमें से एक उनकी होम प्रोडक्शन और एक मेरी होम प्रोडक्शन फिल्म है. धर्मेंद्र ने मेेरे साथ चार फिल्में की. राजकुमार ऐसे अभिनेता थे, जिन्हें आप कहानी कंविंस करके चलें, तो कोई समस्या नहीं आती थी. राजकुमार बहुत अच्छी और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे. मगर वह हर फिल्म की पटकथा उर्दू भाषा में मांगते थे. संवाद भी उर्दू में चाहिए होते थे. तो एक बार उनको पूरी पटकथा दे दो, उसके बाद सेट पर कभी कोई समस्या या तनाव नहीं होता था. ‘मरते दम तक’ का वाकिया बताना चाहॅूंगा. मैंने शूटिंग के लिए फस्र्ट शेड्यूल की योजना बनायी. मैं सबसे पहले फिल्म का क्लाइमेक्स ही फिल्माता था. तो सारा ताम झाम था. सैकड़ांे जूनियर आर्टिस्ट थे. गाड़ियां जलायी गयी थी. वगैरह वगैरह..तो राज कुमार ने मुझसे पूछा कि यह तो क्लाइमेक्स है? मैंने कहा कि जी हाँ! क्लाइमेक्स में ही सबसे ज्यादा पैसा खर्च होना है. अंत में जो निर्माता क्लाइमेक्स फिल्माते हैं, तो कई बार उनके पास धन की कमी आ जाती है. तब निर्माता कहता है कि चार की बजाय दो गाड़ी ही उड़ाओ. एक हजार की बजाय पांच सौ जूनियर आर्टिस्ट बुलाने के लिए कहता है. कई बार कलाकार से उतना समय नहीं मिल पाता. क्लाइमेक्स वही देना है, जो स्क्रिप्ट में लिखा है, उसमें कोई बदलाव तो होना नहीं है. इसी तरह फिरोज खान के साथ ‘कितने दूर कितने पास’ की, तो वह बोले कि मेहुल आप इतना डिटेल्स वर्क करके रखते हो. तो यदि आप राजकुमार को कंविंस करके चलो, तो समस्या नहीं आती थी. यही हाल नाना पाटेकर का रहा. नाना पाटेकर को मैं स्क्रिप्ट सुनाकर कह देता था कि इसमें कोई समस्या हो, तो मुझे कंविंस करो. क्योंकि मैं सेट पर लेखक को नहीं बुलाता और सेट पर जाने के बाद कोई बदलाव स्क्रिप्ट या संवाद में नहीं करता. तो उनके साथ मुझे कोई समस्या नहीं आयी. ‘तिरंगा’ के वक्त मुझसे कई लोगों ने कहा था कि, ‘भगवान करे तेरा यह तिरंगा लहराए.’ और हमने छः माह के अंदर फिल्म पूरी कर रिलीज कर दी थी.

अब तक आपने लगभग चालिस फिल्में बनायी. किस फिल्म के निर्माण में सबसे ज्यादा समस्याएं आयीं?

यॅूं तो मुझे कभी समस्या नहीं आयी. लेकिन जब मैंने धर्मेंद्र और जीतेंद्र के साथ चार-चार फिल्में की, तब यह काफी व्यस्त थे. एक दिन मैंने दोनो कलाकारों से निवेदन किया कि आप मुझे शिफ्ट के हिसाब से समय दें, जिससे मुझे शूटिंग करने में तकलीफ न हो. वह मेरी बात समझ गए, तो फिर वैसी कोई समस्या नहीं आयी.

2005 तक भारतीय सिनेमा में फिल्मों की पहचान निर्देशक के नाम के साथ हुआ करती थी. मसलन-यह राजकपूर की फिल्म है वगैरह वगैरह पर अब तो किसी भी फिल्म को निर्देशक के नाम से जाना ही नहीं जाता?

यह कारपोरेट कंपनियों के चलते हुआ है. अब तो निर्देशक की अपनी कोई पहचान ही नहीं रही. अब तो फिल्म के रिलीज के बाद पूछना पड़ता है कि इस फिल्म का निर्देशक कौन है? अन्यथा पहले लोग निर्देशक का नाम देखकर ही फिल्म देखते थे. आज भी लोग यही कहते हैं कि यह राज कपूर की फिल्म है या हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म है. बासुदा की फिल्म है. क्योंकि यह सभी वास्तविक फिल्मकार थे. पर आज की तारीख में इस तरह किसी निर्देशक  को कोई जानता नहीं. अब तो  फिल्ममेकर नहीं, प्रपोजल मेकर हैं.

तो आप मानते हैं कि कारपोरेट कंपनियों और स्टूडियो सिस्टम ने भारतीय सिनेमा को नुकसान पहुँचाया?

सौ प्रतिशत ऐसा ही हो रहा है. आज की तारीख में फिल्म का बजट कहां से कहां पहुंचा दिया गया है. इन कारपोरेट कंपनियों ने बीस लाख कीमत लेने वाले कलाकार को चालिस लाख देना शुरू कर दिया. चालिस लाख वालों को एक करोड़ मिलने लगा. जो हीरोइनें टॉप पर होते हुए भी 25 लाख ले रही थीं, उन्हें इन्होंने पचास लाख रूपए देना शुरू कर दिया. आज तो कलाकारों को करोड़ों रूपए पारिश्रमिक राशि के रूप में दिए जा रहे हैं, कहानी पर ध्यान नहीं. इसलिए फिल्में असफल हो रही हैं. यदि आज भी कलाकारों की पारिश्रमिक राशि रीजनेबल हो जाए, फिल्म का बजट रीजनेबल हो जाए, तो फिल्में सफल हो सकती हैं. फिल्मों का बिजनेस आज भी अच्छा होता है. दूसरी बात पहले कलाकार केवल अभिनय पर ध्यान देते थे, पर अब कलाकार को फिल्म की कमायी में भी भागीदारी चाहिए. भागीदारी होते ही उनकी दखलंदाजी बढ़ जाती है. ऐसे में निर्माता या निर्देशक के हाथ बंध जाते हैं. पहले सभी निर्णय निर्माता व निर्देशक ही लेते थे, पर अब ऐसा नहीं रहा. इतना ही नहीं कारपोरेट/स्टूडियो की दखलंदाजी के चलते एक ही फिल्म में चार-चार संगीतकार होते हैं, जिसके चलते संगीत भी डूब रहा है. इतना ही नहीं अब संगीत कंपनियां किसी का भी गाना खरीदकर अपनी लाइब्रेरी में रख लेती हैं. फिर निर्देशक से कहती हंै कि इन पच्चीस गानों में से चुनकर फिल्म में डाल दो. अब जिन गानों का कहानी से संबंध ही नहीं है, उन्हें फिल्म में डालेंगे, तो क्या होगा? तभी आज की फिल्मों में गानों का कहानी से कोई लेना देना नहीं होता है. मैं फिल्म ‘तिरंगा’ की बात करना चाहॅूंगा. मैंने संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को लिया.उन्होंने कहा कि इस फिल्म के गीत कई देशभक्ति वाले गाने लिख चुके संतोष जी से लिखवाया जाए? मैंने कहा कि वह लिखेंगे? लक्ष्मीजी ने कहा कि बात कीजिए. उन दिनों वह लखनऊ में थे. मैंने संतोष जी को लखनऊ फोन किया. उन्होंने बताया कि अब वह गीत लिखना बंद कर चुके हैं. मैंने उनसे कहा कि, ‘हमारी फिल्म ‘तिरंगा’ की कहानी ऐसी है कि आपको गीत लिखना चाहिए. उन्हें संक्षेप में कहानी के बारे में बताया. फिर वह आठ दिन के लिए मुंबई आए और फिल्म ‘तिरंगा’ के गाने लिखकर वापस लखनऊ चले गए थे. मैंने हसरत जयपुरी, आनंद बख्शी, इंदीवर से भी गाने लिखवाए. यह सभी गीतकार पहले फिल्म की पूरी कहनी सुनते थे, उसके बाद गाने लिखते थे. इसलिए उनके गानों में कहानी नजर आती थी, जो कि आज के गानो में नहीं मिलता. इतना ही नहीं. अब तो कलाकार की दखलंदाजी इस कदर हो गयी है कि वह तय करता है कि फिल्म में कैमरामैन कौन होगा? इसी चलते 90 प्रतिशत पुराने फिल्मकार फिल्में नहीं बना रहे हैं.

जब आपने गुजराती फिल्में बनानी बंद कर दी. उसके बाद गुजराती फिल्मों का स्तर गिर गया था? ऐसा क्यों?

उस वक्त के जो गुजराती निर्देशक थे, वह उस वक्त की मांग के अनुरूप फिल्में नहीं बना पा रहे थे. वह लोग वही पुरानी लीक पर चल रहे थे. लोगों को नयापन चाहिए था. बदलाव चाहिए था. लेकिन अब जो नई पीढ़ी के गुजराती फिल्मकार हैं, वह नई कहानी, नए गाने लेकर आ रहे हैं. इमोशन के साथ फिल्में बना रहे हैं. इसलिए उनकी फिल्में सुपर हिट हो रही है. इन दिनों गुजराती में काफी अच्छा सिनेमा बन रहा है. जब मैंने गुजराती फिल्में निर्देशित करनी शुरू की थी, तब भी वही पुराना घिसा पिटा सिनेमा ही बदल रहा था. तो मैंने बदलाव किया था. मैंने किरदारांे को पगड़ी व कास्ट्यूम पहनाने की बजाय पैंट शर्ट पहनाए थे. दादा कोंडके को गुजरात में कोई नहीं जानता था. दादा कोंडके ने गुजराती में फिल्म ‘चंदू जमादार’ बनायी, तो इसके निर्देशन की जिम्मेदारी मुझे सौंपी. मैंने दादा कोंडके से साफ-साफ कहा कि मराठी में द्विअर्थी संवाद लोग पसंद करते हैं. मगर गुजराती में लोग नहीं पसंद करते. तब दादा कोंडके ने कहा कि स्क्रिप्ट में जो भी बदलाव करने हो कर लो. उस वक्त मुझसे लोगो ने कहा कि गुजराती में हास्य  फिल्म कौन देखेगा. लेकिन हास्य फिल्म ‘चंदू जमादार’ गुजरात में सुपर डुपर हिट रही. मैंने तो एक्शन फिल्में बनायी, तो वह भी हिट रही. फिर लोगों ने कहना शुरू किया कि मेहुल कुमार को पगड़ी वाली फिल्में बनानी आती नहीं, इसलिए ऐसी फिल्में बना रहा है. तो मैंने ‘ढोली’, ‘ढोला मारू’ व ‘साई बा’ जैसी पगड़ी वाली फिल्में भी बनायी और यह सभी फिल्में सफल रही. हम संगीत पर भी ध्यान देते थे. बीच में गुजराती फिल्मों का स्तर गिरा था, पर अब फिर से चमक रहा है.

2010 के बाद आपने फिल्में बनानी बंद कर दी?

मैंने कभी भी कलाकार के आगे सरेंडर होकर फिल्म नहीं बनायी. आज के निर्देशक कलाकार के आगे सरेंडर होकर फिल्में बना रहे हैं. इसलिए मैंने ‘जागो’ के बाद कोई फिल्म नहीं बनायी. मैं जिस तरह की बातें सुनता हूँ, उन्हें सुनकर सोचता हूं कि लोग कैसे फिल्म बना लेते हैं.

इन दिनों क्या कर रहे हैं?

मेरा लिखना पढ़ना जारी है. दो तीन पटकथाएं तैयार हैं. तो वहीं मैंने सौराष्ट्र क्षेत्र के जामनगर में पहला मल्टी प्लैक्स बनवाया है. बीस वर्ष हो गए. इसमें डाॅल्बी और डीटीएस के साथ अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त तीन स्क्रीन है. गुजराती सीरियल बनाता रहता हूं.  

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