Pankaj Tripathi ‘कलाकार के तौर पर सबसे पहले By Mayapuri Desk 20 Nov 2022 | एडिट 20 Nov 2022 06:16 IST in इंटरव्यू New Update Follow Us शेयर पिछले अठारह वर्षों के अंतराल में अपने अभिनय के विविध रंग पेष करते हुए बतौर अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने लंबी यात्रा तय की है. उनकी अपनी एक अलग पहचान बन चुकी है. जब 2004 में वह फिल्म ‘रन’ में एक छोटे से किरदार में नजर आए थे, तब किसी ने उम्मीद नहीं की थी, कि एक दिन वह लंबी रेस का घोड़ा साबित होने वाले हैं. लेकिन ‘गैंग आफ वासेपुर’ से लोग उनकी अभिनय षैली के दीवाने होते गए.‘‘फुकरे’’, ‘‘मसान’’,‘‘निल बटे सन्नाटा’’, ‘‘न्यूटन’’, ‘‘गुड़गांव’’, ‘‘बरेली की बर्फी’’,‘‘फुकरे रिटर्न’’, ‘‘काला’’, ‘‘स्त्री’’,‘‘लुका छिपी’’, ‘‘द ताशकंद फाइल्स’’,‘गंुजन सक्सेना’ जैसी फिल्मों और ‘‘मिर्जापुर’, ‘सेके्रड गेम्स’व‘क्रिमिनल जस्टिस’ जैसी वेब सीरीज के माध्यम से पंकज त्रिपाठी के अभिनय के नित नए रंग लोगों के सामने ऐसे आते गए कि लोग उनकी प्रष्ंासा करते हुए नहीं थकते हैं. प्रस्तुत है पंकज त्रिपाठी से हुई बातचीत के अंष... आपने अभिनय को करियर बनाने का निर्णय क्यांे लिया? मैं बिहार के गोपालगंज का रहने वाला हॅूं. मैंने अभिनय को नहीं चुना, बल्कि अभिनय ने मुझे चुना है. स्नातक तक की पढ़ाई करने तक मैं नहीं जानता था कि कभी मैं अभिनय करुंगा. पटना में अमैच्योर थिएटर किया करता था. यह सब षौकिया करता था. पर जब मजा आने लगा, तो दिल्ली जाकर मैं राष्ट्ीय नाट्य विद्यालय से जुड़ा. उसके बाद अभिनय को लेकर गंभीर हुआ. मंुबई पहुॅचने पर किस तरह का संघर्ष रहा? मंुबई पहॅुचते ही काम नही मिला. पूरे आठ वर्ष तक काम नही मिला. आठ वर्ष तक मैं आफिस आफिस अपनी फोटो लेकर भटकता रहा. तब ईमेल वगैरह का चलन नहीं था. हमारे पास भी स्मार्ट फोन नही हुआ करते थे. हम अपनी फोटो लेकर जाते थे, प्रोडक्षन हाउस का वाचमैन हमारी फोटो लेकर बगल में रखे एक डिब्बे मंे डाल देता था. हम अपनी तस्वीर देने के बाद झांककर उस डिब्बे में देखते थे, तो पता चलता था कि उसमें पहले से ही दो ढाई सौ तस्वीरें पड़ी हुई हैं. तब मन में ख्याल आता था कि मेरे जाने के बाद कल तक मेरी तस्वीर दो ढाई सौ तस्वीरों के नीचे हो जाएगी. पता नहीं कब मेरी तस्वीर लाॅटरी की तरह बाहर निकलेगी और निर्देषक, सहायक निर्देषक या कास्टिंग डायरेक्टर को पसंद आएगी और वह मुझे आॅडीषन के लिए फोन करेगा. सब भाग्य भरोसे होता था. इसीलिए लोग कहते है कि सिनेमा में सफलता के लिए लक जरुरी है. आठ वर्ष तक अंधेरी से लेकर खार, बांद्रा ही नहीं महालक्ष्मी स्टूडियो तक खूब भटका. इस दौरान नए पुराने, छोटे बड़े हर निर्माता निर्देषक के दफ्तर के चक्कर लगाए. प्रयास करते रहे. फिर अनुराग कष्यप ने हमें ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’ मंे सुल्तान का किरदार निभाने का अवसर दिया. इसके लिए मैंने भी आॅडीषन दिया था. अनुराग कष्यप इसमें नए कलाकारांे को अवसर दे रहे थे, तो मुझे भी एक मौका मिल गया. ‘गैंग्स आॅफ वासेपुर’ हिट हो गयी. लोगों ने पूछना षुरू किया कि सुल्तान का किरदार करने वाला लड़का कौन है? इस तरह फिल्म इंडस्ट्ी में मेरे नाम की चर्चा होेने लगी. मगर आम दर्षक मेरा नाम नही जान पाया. फिल्म इंडस्ट्ी मे जब नाम चर्चा में आया, तो लोगो ने मुझे आॅडीषन के लिए बुलाना षुरू कर दिया. मतलब तस्वीरांे से निकलकर आॅडीषन के फेज में आ गया था. ‘आॅडीषन’ का संघर्ष फिल्म ‘न्यूटन’ तक चला. ‘गंैग्स आॅफ वासेपुर’ के बाद मेरे पास हाथ में बंदूक पकडने वाले किरदार ही आ रहे थे, इसलिए कई फिल्में नही की. फिर अष्विनी अय्यर तिवारी ने ‘निल बटे सन्नाटा’ में जब हाथ में किताब पकड़ाकर षिक्षक बनाया, तो कर लिया. इस फिल्म ने सफलता का नया रिकाॅर्ड बना डाला. इस फिल्म ने अपनी लागत का पंाच गुना कमाया. फिर आम युवक के किरदार मिलने लगे. पर एक बेतरीन अच्छी कहानी के चलते मैने ‘गुड़गांव’ में ंगैंगस्टर का किरदार निभाया. इसके बाद मैने ‘न्यूटन’ में बीएसए अफसर का किरदार निभाया. ‘न्यूटन’ बाॅक्स आफिस पर हिट रही. इसे राष्ट्ीय पुरस्कार भी मिल गया. इसके बाद मेरे साथ आॅडीषन की परंपरा खत्म हो गयी. अब लोग बुलाकर मुझे कहानी व मेरा किरदार सुना देते हैं. लोग कहने लगे है कि यह किरदार आपके लिए ही लिखा है, आकर सुन लो. पिछले एक वर्ष से हालात यह हैं कि मेरे पास नई फिल्म की कहानी सुनने का भी समय नही है. मैने अगले डेढ़ वर्ष तक के लिए षूटिंग की तारीखंे दे चुका हॅंू. लोग मुझे नई फिल्म की कहानी सुनाना चाहते हैं, पर सवाल है कि मैं सुनकर भी करुंगा क्या? या यॅूं कहंे कि मेरी इतनी मानसिक क्षमता नही है कि मैं एक डेढ़ वर्ष के बाद की प्लानिंग कर पाउं. आपने हिंदी फिल्म ‘रण’ से भी पहले एक कन्नड़ फिल्म मंे अभिनय किया था? एनएसडी से पास होते ही मेरे कन्नड़ थिएटर के एक दोस्त थे. उन्होने मुझसे कहा कि बनारस में एक कन्नड़ फिल्म ‘चिगुरीदा कनसु’ की षूटिंग हो रही है, समय हो तो आ जाओ.एक दिन का हीरो के दोस्त का किरदार है. वह कर लेना और षूटिंग कैसे होती है, वह भी देख लेना. मैने सोचा कि चलो यह फिल्म कर लेता हॅंू. दो चार हजार रूपए मिल जाएंगे और षूटिंग कैसे होती है, इसका अनुभव भी हो जाएगा. निर्देषक ने मुझे समझाया था कि आप हीरो के दोस्त हैं. इनके जीवन में अच्छा है, तो आप बहुत खुष हैं. और इनके जीवन में दुःख आ जाए, तो आपको इनसे भी ज्यादा दुख होता है. तो कई बार हिंदी सिनेमा मंे हीरो का दोस्त ही असली हीरो होता है. जो दूसरे के दुःख में बहुत ज्यादा दुःखी हो जाए. दूसरे की ख्ुाषी में उससे ज्यादा उत्साहित हो जाए, जो दूसरे की बहन को अपनी बहन व उसकी मां को अपनी मां से ज्यादा माने, यह तो हीरो से भी बेहतर इंसान हुआ. आप पाएंगे कि हिंदी सिनेमा में हीरो का दोस्त हीरो से भी बढ़िया होता है. दोस्त बहुत त्याग करता है. वह अपनी खुषियों को ताक पर रखकर उत्साहित होता है, उसे दोस्त की कामयाबी व खुषी से कभी ईष्र्या नहीं होती. तो हम भी हीरो के दोस्त थे. हालंाकि वह हिंदी नहीं कन्नड़ फिल्म थी. उसे पुरस्कार भी मिले थे. इसके निर्देषक वहंा के मषहूर निर्देषक टी.एस. नागाभरना जी थे. फिल्म 1951 में इसी नाम से प्रकाषित उपन्यास पर आधारित थी. इसी से प्रेरित होकर 2004 मेें षाहरुख खान की फिल्म ‘‘स्वदेष’’ बनी थी. तो मैने यह कन्नड़ फिल्म षूटिंग देखने के मकसद से कर ली थी. हिंदी फिल्मों में हीरो के दोस्त के किरदार को छोटा समझा जाता है? गलत है.. मैने अभी आपको उदाहरण देकर बताया कि हीरो का दोस्त सबसे बड़ा तपस्वी व त्याग करने वाला होता है. वह अच्छाई का मूरत होता है. मगर हर कलाकार यही कहता है कि वह दोस्त का किरदार निभाकर छोटे किरदारों में नहीं फंसना चाहता? मंैने ऐसे कलाकारों के लिए ही यह परिभाषा निकाली है, जिससे वह बुरा न माने. मेरा एक दोस्त कलाकार हैं. उसने दुःखी मन से कहा कि उसने बहुत दोस्त के किरदार कर लिए. तब मैने उसे इस ढंग से समझाया तो उसका दुःख कुछ कम हुआ. कहा जा रहा है कि अब आप स्टार कलाकार बन गए हैं? नहीं..मैं ख्ुाद को स्टार नही समझता और स्टार बनने की इच्छा भी नहीं है. मैं तो अपनी पहचान एक कलाकार के रूप में ही चाहता हूंू. व्यस्तता बढ़ गयी है. अब आलम यह है कि पिछले चार माह के अंदर मैने 30 फिल्मों के आॅफर ठुकराए. अब मुझे अपनी पसंदीदा फिल्में चुनने का अवसर मिल रहा है. पर यह भी सच है कि कुछ अच्छी फिल्में, षूटिंग की तारीखों की समस्या के चलते छोड़नी पड़ी. अब विज्ञापन फिल्मों के भी आफर आ रहे हैं. अब फिल्मकार मेरी तलाष करने लगे हैं. व्यस्तता का आलम यह है कि अगले डेढ़ साल तक मैं चाहकर भी किसी नई बेहतरीन फिल्म के लिए वक्त देने की स्थिति में नही हॅूं. ओटीटी पर आपके अभिनय वाली वेब सीरीज ‘मिर्जापुर’ नेही आपको स्टार बना दिया था. ‘मिर्जापुर’ के दोनांे सीजन लोकप्रिय रहे. अब तीसरा सीजन बन रहा है. कभी सोचा कि इसे क्यों सफलता मिली? मैने पहले ही कहा कि इसकी दो ही वजहें हो सकती हैं. रिलेटीबिलिटी और मनोरंजन. जब दर्षक किसी किरदार से रिलेट करता है या उसकी भावनाओं को समझता है और मनोरंजन पाता है, तभी दर्षक उसे ेदेखना पसंद करता है. मुझे लगता है कि रिलेटीबिलिटी और मनोरंजन ही फैक्टर रहा होगा. ओटीटी ने आपको स्टार बना दिया. लेकिन ओटीटी पर कई फिल्में बिल्कुल नही चली? ऐसे में आपको अपनी फिल्मों के चलने की क्या वजहें समझ में आती हैं? मुझे नही मालुम. मेरी समझ से कनेक्टीविटी ही एकमात्र वजह हो सकती है. मेरे किरदार को देखकर दर्षकांे को लगता है कि इस किरदार उसने अपने आस पास कहीं देखा है. उसे लगता है कि उसके मौसा या मामा ऐसे थे या ऐसा इंसान उसके दफ्तर आता रहा है. मतलब रिलेटीविटी ..कि दर्षक उस किरदार को, इंसान को पहचानता है. उसकी बातों, उसकी भावनाआंे से रिलेट करते हैं. उसका मनोरंजन करते हैं. मैं अपनी तरफ से हर किरदार के लिए कोई न कोई एलीमेंट बचाकर रखता हॅूं कि मेरा किरदार रिलेटीविटी की बात कर रहा हो या मनोरंजन की बात कर रहा हो, पर मैं इंगेजमेंट का एक लेअरिंग रखूंगा. वरना हर इंसान/ दर्षक के दिमाग पर सौ बोझ हैं. उसके बोझ को कम करने के लिए सबसे पहले उसके चेहरे पर मुस्कुराहट लाना जरुरी होता है. एक बार वह मुस्कुराया, तो फिर वह मेरी बात सुनेगा. मुझे देखकर उसे लगता है कि यह इंसान कुछ रोचक लग रहा है. तो मैं हर किरदार में एक इंगेजमेंट/जुड़ाव रखता हॅूं. मेरी कोषिष रहती है कि दर्षक के माथे का बोझ हटाकर उसे अपनी फिल्म व किरदार के साथ जोड़कर रखॅूं. षायद इस वजह से ओटीटी पर मेरी फिल्में व वेब सीरीज सफल हो रही हैं. जब फिल्म थिएटर में रिलीज होती है, तो एक दबदबा होता है. बाक्स आफिस का डर होता है. ओटीटी के चलते वह डर खत्म हो गया? बाॅक्स आफिस को लेकर मुझे बहुत ज्यादा जानकारी नही है. मैं उसकी जानकारी रखना भी नही चाहता. पर यह सच है कि जो फिल्में सीधे ओटीटी पर आती हैं, उन्हे बाक्स आफिस कलेक्षन की कोई चिंता नही होती. क्योंकि सिर्फ ओटीटी प्लेटफार्म को ही पता होता है कि कितने लोगांे ने फिल्म देखी. बाकी लोगों को फिल्म की कमाई पता ही नही चलेगी. ओटीटी पर फिल्म 200 देषो में जाती हैं. थिएटर की फिल्में इतने देषांे में रिलीज नही होती. ‘आर आर आर’ जैसी फिल्में 20.25 देषांे मंे रिलीज होती हैं, जहंा भारतीय रह रहे हैं. ओटीटी की ताकत यह है कि स्काॅटलैंड के गांव में बैठा हुआ इंसान भी फिल्म/ कंटेंट देख सकता है. पिछले दिनों मैं लेह में था, जहां सियाचीन की बटालियन आती जाती है. उस वक्त तक सियाचीन में इंटरनेट नहीं था. तो उन सैनिकों ने बताया था कि वह यहां से कंटेंट अपने मोबाइल पर डाउनलोड करके ले जाते हैं. वहां पर एक युनिट तीन माह रहती है. तो उन दिनों में कंटेंट देखने के लिए ले जाते हैं. उन्होने बताया कि वह मोबाइल पर हमारा कंटेंट काफी देखते हैं. तो मुझे पता चला कि मैं फौजियों के बीच काफी लोकप्रिय हॅूं. मैं जब एअरपोर्ट पर जाता हॅूं तो सीआईएफएस वाले भी बताते हैं कि मैं उनके बीच काफी लोकप्रिय हॅूं. ऐसे मंे लगता है कि टैक्स पेअर के पैसों से अभिनय सीखा है, तो अच्छा अभिनय करने की जिम्मेदारी भी है. सिनेमाघर में फिल्म रिलीज होते ही एक घ्ंाटे के अंदर रिस्पांस पता चल जाता है. जबकि ओटीटी पर पता नहीं चलता? इससे कलाकार के तौर पर संतुष्टि पर कितना असर होता है? ओटीटी पर भी पता चलता है.ओटीटी के कंटेंट को दर्षक मोबाइल या लैपटाॅप पर देखता है, तो वह अपना रिस्पांस भी तुरंत बताता रहता है. क्यांेकि बिना इंटरनेट के फिल्म देख नही सकता. इसलिए वह अपना रिस्पांस सोषल मीडिया पर तुरंत डाल देते हैं. जबकि सिनेमा वालों की प्रषंसा और आलोचना दोनों सुनियोजित होता है. ट्वीटर पर फिल्मों की आलोचना या प्रषंसा करने वाले आधे से ज्यादा हैंडल फर्जी नजर आते हैं. अजीब अजीब नाम होते हैं. कई बार मुझे लगता है कि यह सब मार्केटिंग गिमिक्स का हिस्सा है. नंबर तो दिखाने ही हैं. लेकिन ओटीटी पर मार्केटिंग का गिमिक्स ज्यादा चलता है? देखिए, मार्केटिंग तो अपने आप मंे गिमिक है. मार्केटिंग तो गिमिक का ही खेल है. वर्तमान समय में आप बहुत अच्छा प्रोडक्ट बनाओ, पर मार्केटिंग अच्छी न हो तो कुछ नहीं होगा. लोगों को बताना तो पड़ेगा कि यह अच्छी चीज है या यह अच्छा सिनेमा है. इसी वजह से कई बार प्रोडक्ट की लागत पांच रूपए और मार्केटिंग का खर्च सात रूपए होता है, तो वह चीज 12 रूपए में बाजार मंे ंबिकने आती है. मैने छोटी फिल्मों का गणित सोचा है. तो पता चला कि फिल्म पांच करोड़ में बनी, मगर उसकी मार्केटिंग का खर्च सात करोड़ आता है. सौ लोगों की युनिट ने चालिस दिन षूटिंग की, आउटडोर में रहे व खाना भी खाए. कैमरा, कैमरामैन व कलाकार सभी थे. 40 दिन में पांच करोड़ के खर्च से फिल्म बना ली और यहां पंद्रह दिन के प्रमोषन का खर्च सात करोड़ आता है. पता चला कि विज्ञापन महंगे हैं. जबकि फिल्म निर्माण में आप श्रमिक को पैसा देते हैं. क्रिएटिब श्रमिक थोड़ा महंगा हो सकता है. तो हर क्षेत्र में सामान की बजाय मार्केटिंग की लागत ज्यादा होती है. सी फिल्म या किरदार को निभाना स्वीकार करने के बाद अपनी तरफ से किस तरह की तैयारियां करते हैं? मैं स्क्रिप्ट को कई बार पढ़ता हॅूं. मैं पहले से अपनी तरफ से बहुत ज्यादा तैयारी नही करता. मुझे लगता है कि बहुत ज्यादा तैयारी करके सब कुछ अपने दिमाग में बैठाकर जाउंगा और निर्देषक को वैसा नहीं चाहिए होगा, तो फिर मुझे दिक्कत होगी. मेरे ज्यादातर निर्देषक कहते हंै कि आप स्क्रिप्ट पढ़कर उसे समझ लें और बिना तैयारी के सेट पर आ जाएं, वहीं पर हम लोग गढ़ेंगे. हम हर दिन षूटिंग से पहले निर्देषक के साथ दस से पंद्रह मिनट बातचीत करता हॅूं और समझता हॅंू कि उसका वीजन क्या है. वह किस तरह से फिल्म और उस दिन के दृष्यों को लेकर जाना चाहता है. फिर सब कुछ अपने तरीके से करता हॅूं. कुछ वर्ष पहले आपने रजनीकांत के साथ फिल्म ‘‘काला’’ की थी, उस वक्त आपने उनसे क्या सीखा था? मैं जागरूक और संवेदषन षील इंसान हूं. हमेषा जमीन से जुड़ा रहता हूं. मुझे रजनीकांत से भी यही सीखने को मिला था कि इंसान चाहे जितना काबिल हो, वह चाहे जितना सफल हो जाए, उसे हमेषा एक जागरूक व संवेदनषील इंसान के साथ जमीन पर बने रहना चाहिए. मेरा भी मानना है कि इंसान को अपने मूल स्वरूप में रहना चाहिए. सफल होने पर घमंड मत करो, परेषानी भी मत पालो. इंसान की जिंदगी मंे संतुलन बने रहना चाहिए. राज कुमार राव व रिचा चड्ढा के साथ आपकी कई फिल्में हो गयी? जी हाॅं! यह महज संयोग हैं. रिचा चड्ढा के साथ मेरी पांच फिल्में और राज कुमार राव के साथ चार हो गयी. यह अच्छे अभिनेता हैं. इनके साथ काम करने में मजा आता है. मैं सिर्फ इमानदारी से अपने काम को करता रहता हूंू. समयाभाव के चलते राज कुमार राव के साथ दो फिल्में ठुकरानी पड़ी. आपको नही लगता कि सोषल मीडिया से कलाकार और सिनेमा दोेनो को नुकसान हो रहा है? सोषल मीडिया दो धारी तलवार है. इसके फायदे व नुकसान दोनो हैं. यदि इसका रचनात्मक उपयोग किया जाए, तो यह षानदार प्लेटफार्म है. पर यह भी सच है कि सोषल मीडिया पर भ्रम और झूठ भी बहुत तेज गति से प्रसारित होता है. तो गलत उपयोग भी होता है. इन दिनों नया क्या कर रहे हैं? ‘फुकरे 3’ की षूटिंग खत्म की है. ‘मिर्जापुर 3’ की षूटिंग चल रही है. एक नई फिल्म व एक नई वेब सीरीज की षूटिंग उसके बाद करुंगा. #bollywood latest news in hindi #pankaj tripathi #bollywood latest news #pankaj tripathi movies #pankaj tripathi interview #pankaj tripathi films #Pankaj Tripathi as Atal Bihari Vajpayee #Pankaj Tripathi as Bhavesh Sir #pankaj tripathi fim #Pankaj Tripathi Latest News #Pankaj Tripathi projects हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article