Sanjay Mishra: तो मेरी मेहनत सफल हो गयी

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By Shanti Swaroop Tripathi
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Sanjay Mishra: तो मेरी मेहनत सफल हो गयी

फिल्मी परिवार से आने वाली प्रतिभाओं को बॉलीवुड में सदैव कुछ अधिक ही संघर्ष करना पड़ता  रहा है. लेकिन जिनमें प्रतिभा रही, उन्होने बॉलीवुड में अपना डंका बजाया. ऐसी ही प्रतिभाओं में से एक हैं- अभिनेता Sanjay Mishra. बिहार के एक गांव में जन्में Sanjay Mishra राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से एक्टिंग की ट्रेनिंग लेने के बाद मुंबई पहुंचे थे. उन्होने शुरुआत टीवी सीरियलों से की. 1995 में उन्हे फिल्म करने का अवसर मिला और तब से वह लगातार फिल्मों में व्यस्त हैं. कुछ लोग उन्हे हास्य अभिनेता मानते हैं, तो कुछ लोग उन्हे गंभीर किस्म के किरदार निभाने वाला कलाकार मानते हैं. यानी कि संजय मिश्र के दो तरह के फैन्स हैं. Sanjay Mishra की गंभीर किरदार वाली फिल्म "वध" 9 दिसंबर को सिनेमाघरों में पहुँच चुकी है और Sanjay Mishra के अभिनय की जबरदस्त तारीफ हो रही है. वहीं उनकी हास्य भूमिका वाली फिल्म "सर्कस" आगामी 23 दिसंबर को प्रदर्शित होने वाली है.

प्रस्तुत है Sanjay Mishra से हुई बातचीत के खास अंष...

आप लगभग तीस वर्ष से भी अधिक समय से बॉलीवुड में सक्रिय हैं. इतने लंबे आपके कैरियर में उतार चढ़ाव क्या रहे?

सच कहॅूं तो मेरे कैरियर का टर्निंग प्वाइंट तो वह फिल्में भी रही, जिनमें मैने छोटे छोटे किरदार निभाए. फिर चाहे वह 'सत्या' हो या 'बंटी बबली' हो. इन फिल्मों से लोगो ने सवाल करने शुरू किए कि यह कलाकार कौन है? फिर टर्निंग प्वाइंट आया "आफिस आफिस'. फिर 'आल द बेस्ट' आया. इसके बाद टर्निंग प्वाइंट रही- 'फंस गए रे ओबामा'. मैने अपने कैरियर मे टर्निंग प्वाइंट आते हुए देखा व अश्चार्चाकित होता रहा. मैने निर्देशक को झकझेार कर पूछा भी कि आप पागल हो, जो मेरे लिए इस तरह के किरदार लिख रहे हो. मैरे मन में सवाल उठा कि यह किरदार तो नसिरूद्दीन शाह अथवा ओम पुरी के पास जाना चाहिए, पर आप मुझे क्यों दे रहे हैं? तो सामने वाले ने कहा कि उसे मुझ पर, मेरी प्रतिभा पर पूरा यकीन है. कहने का अर्थ यह कि मेरे कैरियर में बहुत टर्निंग प्वाइंट हैं.

अब दूसरी तरफ देखा जाए, तो मैरे पिता जी का जो हमेषा से दुःख था कि वह मुझे जिस तरह से स्थायी नौकरी करते हुए देखना चाहते थे. आप मानेंगे नहीं पर उन्होने कह दिया था कि मैं चपरासी तो बन ही सकता हॅूं. पर जब लोगो ने मेरी तारीफ करनी शुरू की, तो उनका दुःख गायब हो गया और उन्हे मुझ पर गर्व होने लगा. पिता को गर्व हुआ कि उन्होने अपने बेटे को अच्छी तालीम दी और वह सफल हो गया. भाई भी खुश हुआ.

इसके बाद टर्निंग प्वाइंट यह आया कि मैने अपनी जिंदगी बदलनी शुरू की. 'ऑफिस ऑफिस' में अभिनय करके पैसा कमाया, तो उस पैसे में कुछ पैसा सरकार से लेकर मिलाया और यारी रोड, अंधेरी, मुंबई में एक बेडरूम हाल का घर खरीदा. फिर जब पैसे कमाए, तो बड़ा घर खरीदा. फिर एक आफिस लिया. इस तरह मैरे कैरियर व जिंदगी में टर्निंग प्वाइंट आते रहे.

आपके कैरियर में एपल सिंह की क्या भूमिका रही?

सच कहूँ तो हम 'ईएसपी एन स्टार स्पोर्टस' चैनल के एपल सिंह के लिए बने ही नहीं थे. थिएटर व क्रिकेट का शौक जरुर था, मगर आप मुझे जैफरीबॉयकाट के बगल में ही बैठा दोगे, जब देखो तब बॉल, बैट व एंम्पायर पर ही चर्चा हो रही है. अब हम इसमें क्या कर लेते. फिर हम ठहरे कलाकार. हमें तो कहानी बता दो, किरदार का ग्राफ बता दो, तो हम कैमरे के सामने काम कर लेंगे. लेकिन वहां पर वह एपल सिंह के रूप में मैरे हाथ में माइक पकड़ा देते थे. हम रट्टा मार मार कर थक रहे थे. किसके किसके नाम याद रखते? तो वह मेरी चीज नही थी. वह मेरी चीज नहीं थी, मैं डरा हुआ था. डरे डरे मैंने जो काम किया, वह लोगों को भा गया. जबरदस्त शोहरत मिली. लोग आज भी एपल सिंह को याद करते हैं. उस वक्त गावसकर,टोनी ग्रे सहित कई क्रिकेटरों ने कहा था- टोक टू योर मदर... मतलब कि अपनी मां से बात करो ,सब ठीक हो जाएगा. मैं मुश्किल दौर में एपल सिंह बना था. उसी वक्त सचिन तेंडुलकर के पिता जी का देहांत हुआ था. साउथ अफ्रीका में मैच चल रहा था. अचानक भारतीय क्रिकेट टीम, पाकिस्तान से जीत गयी. उसके बाद मुझे बोलना था. माइक मेरे हाथ में था. पर हम तो ठहरे दर्शक. तब मैने रोते हुए एक गाना गाया था-"जाने कितने दिनों .." गाया. मेरी यह रूलाई दर्शक के तौर पर थी. उसके बाद मुझे फिर बुलाया गया था. पर मैने नहीं किया. अच्छा हुआ कि मैं एपल सिंह बनकर नही रह गया. उसके बाद तो कई तरह के किरदार निभाए. अब फिल्म 'वध' में शम्भुनाथ मिश्रा के रूप मे लोग मेरी तारीफ के पुल बांध रहे हैं. जबकि हकीकत में हम इस किरदार के लिए बने ही नहीं थे. तो वहीं बहुत जल्द लोग मुझे इसी माह फिल्म 'सर्कस' में हास्य किरदार मे देखकर लुत्फ उठाएंगे.

पर एपल सिंह के बाद बॉलीवुड में लोग आपको पहचानने लगे थे?

जी हां! लोग जानने लगे थे. अब मुझे किसी को अपना परिचय नही देना पड़ता था. उन दिनों यूट्यूबर का जमाना नहीं था. पर लोग मुझे यूट्यूबर ही समझ रहे थे. कहते थे कि यह एपल सिंह है. ईएसपीएन पर आए थे. फिल्मकार के सवाल थे कि एपल सिंह तो ठीक है. पर हम किरदार क्या दें? हमें चाहिए विलेन. हमें चाहिए हीरो. कहने का अर्थ यह कि लोग मुझे जान गए थे, पर एपल सिंह वाली पहचान मुझे अभिनेता के तौर पर मदद नहीं कर रही थी. अब मुझे फोटो लेकर किसी दफ्तर नही जाना पड़ता था.

आपने अभी कहा कि 9 दिसंबर को प्रदर्शित फिल्म "वध" जैसा किरदार तो आपने पहली बार निभाया है?

जी हां! ऐसा किरदार मैंने पहली बार निभाया है. सच कहॅूं तो मैं 'वध' के किरदार के लिए बना ही नही हॅूं. एक कलाकार के तौर पर जब मेरे पास कोई लेखक या निर्देशक 'वध' जैसी फिल्म लेकर आता है, तो अच्छा लगता है. ऐसे में कलाकार का हौसला भी बढ़ जाता है कि कम से कम मेरे बारे में फिल्मसर्जकों के बीच ऐसा कुछ सोचा तो जा रहा है. मुझे लगता है कि मैं सही दिशा में जा रहा हूं. वैसे भी एक ही तरह के किरदार करना मुझे भी अच्छा नहीं लगता. अब देखिए, दिसंबर माह में मेरी दो विपरीत किस्म की फिल्में प्रदर्शित हो रही हैं. 9 दिसंबर को 'वध' प्रदर्शित हुई है. तथा 23 दिसंबर को पूरी तरह से कमर्शल फिल्म 'सर्कस' आएगी, जिसमें लोगों को हंसाते हुए नजर आउंगा.

जब आपने फिल्म 'वध' की पटकथा सुनी थी,तो आपको किस बात ने इंस्पायर किया था?

स्क्रिप्ट सुनकर मुझे पटना के राजेंद्र अग्रवाल अंकल व आंटी की याद आयी और दूसरी चीज निर्देशक की बात कि यह किरदार मेरे लिए ही लिखा गया है. शम्भुनाथ मिश्रा जिस तरह से पांडे के गले में छूरा मरता है, उसकी कोई प्रैक्टिस नही थी, पर किया. इसी ने मुझे इंस्पायर किया. मेरी ईमेज यह है कि यह तो अपना आदमी हैं. बड़ा मजेदार आदमी है. हंसाता है. उससे 'वध' का किरदार बहुत अलग है. 'आँखों देखी' से भी अलग है. .इसीलिए मैं कहता हूं कि मैं इस किरदार के लिए बना ही नही हॅूं.

फिल्म 'वध' के शंभूनाथ मिश्रा के किरदार को निभाने में निजी जीवन के किसी अनुभव ने मदद की अथवा यह सब आपकी अपनी कल्पना षक्ति से संभव हुआ?

इसमें निजी अनुभव मेरे किरदार का नाम ही रहा. लोग इस फिल्म में मुझे शम्भुनाथ मिश्रा के किरदार में देख रहे है. निजी जीवन में यह मेरे पिता जी का नाम हैं. जब मेरे पिताजी अपने सीनियर से मिलने जाते थे, तो अक्सर मैं भी उनके साथ होता था. तो वहां पर मुझे 'वध' वाले अंकल व आंटी काफी दिखे. अग्रवाल आंटी का कहना ...नहीं ,भाई हम लहसुन नही खाते. चप्पल पहनकर रसोई में मत आना, ट्वायलेट गए तो हाथ पैर धोकर ही आओं यह सब मैने अग्रवाल आंटी के घर ही देखा था. उन दिनों राजेंद्र अग्रवाल जी समाचार पढ़ा करते थे. उनकी पत्नी हमारी अग्रवाल आंटी थी. उसी तरह का फिल्म में शम्भुनाथ का घर है. उसी तरह की सारी बातें हैं. तो जब मैने किरदार पढ़ा तो मुझे अहसास हुआ कि इन सब को तो मैने देखा है. बस इसी में रचनात्मकता पिरोकर हमने अभिनय कर डाला. हकीकत में हमने इस फिल्म में अभिनय नहीं किया. बल्कि जो देखा हुआ अनुभव था, उसे ही पेष कर डाला. मैं यही कहना चाहता हूं कि हमारी फिल्म "वध" देखने के बाद यदि किसी बच्चे ने अपने घर पर फोन कर दिया, तो मेरी मेहनत सफल हो गयी.  

'वध' के किरदार में आपने अपने पिता की कौन सी बातें डाली हैं?

मैं उनके जैसा ही परदे पर भी दिखता हॅूं. हर पिता पैसे का हिसाब एक डायरी में लिखता है, उसी तरह से मेरे पिता जी भी लिखते थे. फिल्म में मेरा किरदार भी हिसाब लिखता है.

लेकिन इस फिल्म में आपका किरदार 'मनोहर कहानियां' पत्रिका पढ़ता हुआ नजर आता है,तो क्या आप भी निजी जीवन में 'मनोहर कहानियां' पढ़ते हैं?

जी हां! मैंने 'मनोहर कहानियां' बहुत पढ़ी हैं. दिल्ली से पटना या पटना से वाराणसी जाते हुए ट्रेन में हम 'मनोहर कहानियां" पढ़ते थे और हमें महसूस होता था कि हम फिल्म देख रहे हैं. देखिए, हिंदी भाषी क्षेत्र में हर इंसान यह पत्रिका पढ़ता हुआ पाया जाता है.और हमारी फिल्म में हमने 'मनोहर कहानियां' का प्रमोषन नहीं किया है. बल्कि यह तो हमारी फिल्म की जरुरत है.

फिल्म 'वध' में जसपाल सिंह संधू और राजीव बरनवाल जैसे नए निर्देशकों की जोडी है. आपने तीस वर्ष के दौरान कई दिग्गज निर्देशकों के साथ काम किया है. ऐसे में आपने नए निर्देशक के साथ कैसे सामंजस्य बैठाया?

नए निर्देशक मुझे नए तरीके से एक्स्प्लोर करते हैं. मैं उनके साथ कुछ नया करने का प्रयास करता हूं. जिनके साथ मैं बीस फिल्में कर चुका हूं, तो उसे पता होता है कि मुझसे क्या कैसे करवाना है. चुनौती तो नए निर्देशक के साथ काम करने में ही होती है.

23 दिसंबर को प्रदर्शित होने वाली फिल्म "सर्कस" में क्या कर रहे हैं?

रोहित षेट्टी निर्देषित फिल्म "सर्कस" एक हास्य प्रधान फिल्म है. जिसमें मैं लोगों को हॅंसाने वाला हॅू. इस फिल्म में बिंदू के किरदार में जैकलीन फर्नाडिस हैं और मैंने इसमें बिंदू के पिता का किरदार निभाया है.

अब ओटीटी सिनेमा को टक्कर दे रहा है,जबकि ओटीटी की सफलता कलाकार को उतना प्रभावित नही करती, जितनी थिएटर पर फिल्म की सफलता प्रभावित करती है?

ओटीटी पर ज्यादातर वेब सीरीज बनती हैं. लोग कहें कि यह किताब पढ़िए, आपने पढ़ी और कहा बहुत बढ़िया. तो फिल्म किताब है. दो घंटे में आपने उसे देखा, एक जीवन को देखा. सीरीज का अपना अलग आनंद है. पर सिनेमा का आनंद अलग हैं दो घंटे की फिल्म 'वध' का अलग आनंद है.

ओटीटी के आने से सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि अब लोगांे को काम मिलना आसान हो गया है. हम जब इस इंडस्ट्री में आए थे, तो हालत खराब हो गयी थी. मनोज कुमार, टॉम अल्ल्टर,शत्रुघ्न सिंहा जैसे कलाकार छाए हुए थे. हमें तो कोई स्टूडियो के अंदर ही घुसने नहीं दे रहा था. हम चैकीदार से ही बात कर एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो भटकते रहते थे. तभी टीवी का जमाना आ गया.

सेटेलाइट चैनल आ गए. हमें टीवी सीरियल में छोटे छोटे किरदार मिले, तो हमें दिखाने के लिए हो गया कि देखो हम काम कर रहे हैं. जिसके चलते लोग हमें बुलाकार काम देने लगे. .आज की तारीख में सिनेमा, टीवी,लघु फिल्में व ओटीटी प्लेटफार्म सब कुछ है. यूट्यूब चैनल भी हैं.

जब आप लोग एनएसडी की ट्रेनिंग लेकर आ रहे थे,आपको नहीं लगता है कि तब एनएसडी की ट्रेनिंग की बॉलीवुड में काम नही आ रही थी?

हां! यह अच्छा सवाल किया कि एनएसडी की ट्रेनिंग बॉलीवुड में काम नहीं आ रही थी.? पर सवाल यह है कि उनसे काम निकलवा कौन रहा था? नसिरूद्दीन शाह,ओम शिवपुरी, इरफान खान से भी लोगों ने अच्छा अभिनय करवाया. एनएसडी वह जगह है, जो आपके दिमाग में तीन वर्ष तक केवल अभिनय ही अभिनय दिखाता हैं वहां की ट्रेनिंग लेने के बाद उसे कैसे चैनलाइज करना है, यह तो हर इंसान पर अलग अलग ढंग से निर्भर करता है. जब मैं कैमरे के सामने पहुँचता हॅूं, उस वक्त वह मेरे लिए थिएटर ही होता है.  

किसी भी किरदार को निभाने के लिए आपकी तैयारी कहां से शुरू होती है?

देखिए, कई बार हमारी तैयारी करना गलत भी हो जाता हैं. इसलिए जब में एक फिल्म कर रहा होता हॅूं, तो दूसरी फिल्म के बारे में सोचता ही नही हॅूं. मैं फिल्म करते वक्त निर्देशक के साथ इंवाल्ब होता हॅूं. मैं उसके वीजन के बारे में उससे पूछता हॅूं, और फिर उसी रास्ते चल पड़ता हूं. अगर मेरे सवाल करने पर निर्देशक ने मुझसे पूछ लिया कि मेरा विजन क्या है, तो मैं समझ जाता हूं कि इस सेट पर सिर्फ अच्छा खाना ही मिलेगा. क्योंकि मैं समझ जाते है कि फिल्म तो अच्छी बन नही रही है.

इसके अलावा क्या कर रहे हैं?

देखिए, आज 'वध' प्रदर्शित हुई है. 23 दिसंबर को 'सर्कस' आएगी. उसके बाद अगले वर्ष "वो 3 दिन' आएगी.  आप इसे किस्मत कह सकते हैं या भगवान की कृपा कि फिल्म निर्माता, लेखक व निर्देशक भूमिका लिखते समय मुझे ध्यान में रख रहे हैं.

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