सारिका: फिल्म ‘ऊंचाई’ में मेरे माला के किरदार में कई लेअर हैं

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By Shanti Swaroop Tripathi
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सारिका: फिल्म ‘ऊंचाई’ में मेरे माला के किरदार में कई लेअर हैं

पांच साल की उम्र से अभिनय करती आ रही अभिनेत्री सारिका ने बतौर बाल कलाकार 15 फिल्में करने के बाद महज पंद्रह वर्ष की उम्र में सचिन के साथ 'राजश्री प्रोडक्षन’ निर्मित फिल्म "गीत गाता चल" में पहली बार हीरोईन बनकर आयी थीं. उसके बाद से वह लगातार अभिनय करती आ रही हैं. बीच में श्रुति हासन व अक्षरा हासन की मां बनने पर 18 वर्षों तक बाॅलीवुड से दूर रहने के बाद पुनः वापसी की थी. वापसी के बाद फिल्म 'परजानिया’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्ीय पुरस्कार हासिल हुआ था. कोविड महामारी से पहले उन्होने अभिनय को अलविदा कह कर थिएटर पर 'बैक स्टेज’ करने लगी थीं. अब  वह एक बार फिर 'राजश्री प्रोडक्षन’ निर्मित और सुरज बड़जात्या निर्देषित फिल्म "ऊंचाई" में अभिनय किया है. ग्यारह नवंबर को प्रदर्षित होने वाली  फिल्म "ऊंचाई" में उनके साथ अमिताभ बच्चन,अनुपम खेर,बोमन ईरानी,डैनी, नीना गुप्ता व परिणीति चोपड़ा जैसे कलाकार हैं.

प्रस्तुत है सारिका से हुई बातचीत के अंष...

आपने पांच वर्ष की उम्र में बाल कलाकार के तौर पर कैरियर शुरू किया था. आज आप अपने लगभग 55 वर्ष के पूरे कैरियर को किस तरह से देखती हैं?

मेरा पूरा कैरियर मेरे लिए लर्निंग प्रोेसेस रहा है. जब आप इतनी छोटी उम्र से अभिनय करना शुरू करते हैं, तो आप सीखने से ही शुरू करते हैं. मैं चाहे चाइल्ड स्टार रही हॅूं या हीरोईन का कैरियर रहा हो, एक दूसरे पर ओपर लैप हो गया. मुझे ब्रेक नही मिला. अमूमन बाल कलाकार के रूप में काम करने वाले कलाकार युवा वस्था में पहुंचने पर कुछ समय के लिए अभिनय से दूर हो जाते हैं. फिर बतौर युवा कलाकार अपने कैरियर की नई शुरूआत करता है. मगर मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ. मैं बाल कलाकार के तौर पर लगातार काम कर रही थी और अचानक मैं फिल्म 'गीत गाता चल" से हीरोईन बन गयी. उस वक्त मेरी उम्र सिर्फ 15 वर्ष थी. तो मेरा सीखना अलग अलग स्टेज पर चलता गया. जब भी मैं पीछे देखती हॅंू, तो मुझे मेरी यात्रा लर्निंग एक्सपीरियंस ही नजर आती है. सीखने के प्रोसेस की संुदर बात यह है कि इसे करने से कोई रोकता नहीं है. मैं आज भी सीख रही हॅॅूं. हम जब भी नए लोगों के साथ काम करते हंै, तो उनसे कुछ न कुछ सीखते ही हैं. सीखना कभी बंद नहीं होता. 

'राजश्री प्रोडक्षन’ की फिल्म 'ऊंचाई ’ करने के लिए किस बात ने आपको  प्रेरित किया?

फिल्म 'ऊंचाई’ में मेरे माला के किरदार ने प्रेरित किया. यह किरदार बहुत अच्छा लगा. इस फिल्म की कहानी मंे सभी किरदारों का अपना एक गुट है. जबकि माला आउट साइडर है. वह इन लोगों की यात्रा में जुड़ जाती है. पर वह कौन है? क्या है? कुछ खास पता नहीं. ज्यादा बात नहीं करती. मुझे इस बात ने इस फिल्म को करने के लिए उकसाया. माला के किरदार में कई परतें हैं. हर कलाकार सोचता है कि कुछ अलग करें, मगर इतना कुछ अलग आता नही है. कुल मिलाकर दस किरदार हैं. सब उसी के इर्दगिर्द घूमते हैं. पर कलाकार की कोषिष होती है कि कुछ तो अलग है. माला काफी अलग तरह का किरदार है.

अपने कैरियर में आपने कई निर्देषकांे के साथ काम किया है. बतौर निर्देषक सूरज बड़जात्या में आपको क्या खास बात नजर आयी?

सूरज बड़जात्या के अंदर 'चाइल्ड पैषन’ है. बच्चों में काम करने का जो पैषन होता है, वह बतौर निर्देषक उनमंे है. वह अपने काम में एकदम घुस जाते हैं. अगर कोई अच्छा दृष्य हो, तो बच्चों की तरह ख्ुाषी से ताली बजाते हैं. अमूमन होता यही है कि इंसान की जैसे उम्र बढ़ती जाती है, उसके अंदर का बच्चा गायब होता जाता है या यॅूं कहंे कि पीछे चला जाता है. उनका पैषन आज भी जबरदस्त है. वह जो कुछ लिखते हैं, जो कुछ निर्देषित करते हैं, उसमें कोई खोट नहीं होती. वह वही लिखते या निर्देषित करते हैं, जिसमें उनका अपना पूरा यकीन होता है. वह फिर उसे पूरी इमानदारी व दिल से बनाते हैं. यही उनकी फिल्मों की सबसे बड़ी ताकत है. वह कभी यह नहीं सोचते कि फलां निर्देषक अपनी फिल्म मंे यह चीजें डाल रहा है, तो मैं भी अपनी फिल्म में उसे पेष कर दॅूं. वह हमेषा मौलिक और अपनी सोच के मुताबिक काम करना पसंद करते हैं. इसी वजह से उनकी फिल्म के विषयवस्तु में अथैंसिटी व इमानदारी नजर आती है. एक कलाकार के तौर पर उनके साथ काम करना सुखद अहसास ही देता है. मंैने तो सैकड़ों निर्देषकों के साथ काम किया है. हर निर्देषक की अपनी एक खास पहचान होती है. खास कार्यषैली होती है. इस बात को मैने अनुभव किया है. सूरज की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह कलाकार को उसके किरदार के साथ जोड़कर रखते हैं. वह टीम प्लेअर हैं. वह निर्देषक होने के नाते ऐसा नहीं है कि कलाकार की बात को तवज्जो ही न दें. वह कलाकार की बात सुनते हैं और उस पर ध्यान भी देेते हैं. वह हमेषा सोचते हंै कि फलंा कलाकार ने यह बात क्यों कही है? उसकी बात पर अमल करने से फिल्म कितनी बेहतर होगी? वगैरह वगैरह...मेरा अपना मानना रहा है कि अच्छी परफार्मेंस के लिए कलाकार व निर्देषक का आपसी तालमेल निहायत ही जरुरी है. देखिए, हर कलाकार अपने किरदार के नजरिए से देखता है और निर्देषक किसी एक किरदार नहीं बल्कि वह सभी किरदारों के मिश्रण व कहानी के साथ पूरी फिल्म को देखता है. इसलिए दोनों के नजरिए का एक साथ कहीं न कहीं आना जरुरी है.   

आपने इस फिल्म के लिए किन जगहांे पर षूटिंग की, क्या अनुभव रहे?

हमने भारत में कई जगहों के अलावा नेपाल में कई जगहों पर षूटिंग की. काफी बेहतरीन अनुभव रहे. हमने नेपाल में पूरे एक माह अलग अलग जगहों पर षूटिंग की. हमने तेरह हजार मीटर की ऊंचाई की मनन पहाड़ी पर भी षूटिंग की. हमने काफी चढ़ाइयां चढ़ीं. नेपाल में मेरी पसंदीदा जगह सबसे उंची पहाड़ी मनान ही है, जहां हमने षूटिंग की..यहां आप सीधे नहीं जा सकते हैं. मनान इतनी खूबसूरत जगह है कि इसके रंग बदलते रहते हैं. कभी नीला,कभी हरा,कभी पीला,कभी ब्राउन,कभी आरेंज तो कभी सुनहरा. तीन सौ लोगो की हमारी युनिट थी. सूरज जी ने सब का बेहतरीन ख्याल रखा. जैसे जैसे हम उंची पहाड़ी की तरफ बढ़ रहे थे, वैसे वैसे आॅक्सीजन सहित कई चीजांे की समस्याएं आती थी, तो उसका सामंजस्य बैठाने के लिए सूरज जी हम सभी को हर बार काठमंाडू ले आते थे. उसके बाद फिर वापस हम पहाड़ की तरफ नई उर्जा के साथ बढ़ते थे. वहां गाड़ियां तो जा ही नही सकती थी. हम सभी को अपने पैरों के बल पर ही आगे बढ़़ना होता था. हमारी क्रिएटिब डायरेक्टर सुरभि कहती है कि हमारे पांव ही हमारे ट्ांसपोर्ट थे. हमने सिर्फ अभिनय किया और खूब चले. मुझे अच्छी तरह से याद है...बीसवां दिन था. मंैने अपने आप से वादा किया था कि ,'सारिका, दस दिन और चल ले,फिर वादा है तुझे चार पांच साल नही चलाउंगी.  

आपने 'ऊंचाई’ में अनुपम खेर के साथ पहली बार काम किया है. क्या कहना चाहेंगी?

जी हाॅ! मैंने फिल्म 'ऊंचाई’ में अनुपम खेर के साथ पहली बार काम किया है. इस फिल्म में मेरे ज्यादातर दृष्य अनुपम खेर,बोमन ईरानी व अमिताभ बच्चन के साथ ही हैं. काम करने के अनुभव सुखद रहे. अनुपम खेर बेहतरीन कलाकार व इंसान हैं. 

आपने अमिताभ बच्चन के साथ कई फिल्में व सीरियल 'युद्ध’ किया है. अब आपने उनके साथ 'ऊंचाई’ भी की है. क्या उनमें आपको कोई बदलाव नजर आता है?

उनमें बहुत बदलाव नजर आता है. यह बदलाव हर बार उनके साथ काम करते हुए नजर आता ही है. उनके साथ मैंने पांचवीं बार काम किया है. हर बार गैप होता है. हर बार उनकी एकाग्रता और अपने काम के प्रति प्यार और बढ़ जाता है.

भारतीय सिनेमा से परिवार व रिष्ते गायब हो गए हैं?

ऐसा नहीं.. पर कम जरुर हुए हैं. मैं मानती हॅंू कि फिल्मों से घाघरा चोली व गांव खत्म हो गए. अब 'मेरा गांव मेरा देष’,'मदर इंडिया’ व 'कारवां’ जैसी फिल्में कहां बनती हैं? पर यह सारा रिफलेक्षन समाज का ही है. सिनेमा है तो समाज का ही प्रतिबिंब. फिल्म की विषयवस्तु की प्रेरणा तो समाज से ही मिलती है. आपके आस पास जो हो रहा है, उसी पर आप सिंनेमा बनाते हैं. क्योंकि आपका सिनेमा देखने वाले लोग भी वही हैं. अब गांव की फिल्म कौन देखेगा?  

आपने बतौर एसोसिएट निर्देषक फिल्म "कुरूथीपुनाली’ की थीं . उसके बाद आप बतौर निर्देषक काम कर सकती थी?

निर्देषक के तौर पर काम करने का मेरा दिल ही नही हुआ. कहीं कोई बात हो या ऐसी कोई कहानी हो, जो मुझे झकझोर दे और निर्देषन की इच्छा जागे, तभी कुछ हो सकता है. मतलब जब मेरा दिमाग कहे कि यह कहानी मैं अपने हिसाब से बोलना चाहती हॅूं.

आप ने कभी नही सोचा कि कोई ऐसी फिल्म करें,जिसमें आपका पूरा परिवार हो?

नही..मैं इस तरह की फिल्म का हिस्सा नही बनना चाहती. क्योंकि यह महज एक नौटंकी होगी. देखिए, फिल्म अच्छी तब बनती है जब कहानी, पटकथा और किरदारों की मांग के अनुरूप कलाकारों का चयन किया गया हो. यदि पूरे परिवार के साथ काम करना हो, तो हम कहीं कोई स्टेज षो कर सकते हैं, पर फिल्म नही. अब देखिए,सूरज बड़जात्या ने फिल्म "ऊंचाई" के हर किरदार के अनुरूप किस तरह से अनमोल कलाकार चुने हैं. फिल्म देखकर अहसास होगा कि हर कलाकार उसी किरदार के लिए बना है.

सोशल मीडिया से सिनेमा को कितना फायदा या कितना नुकसान होता है?

मुझे इसकी जानकारी नही है. सोशल मीडिया की कुछ क्वालिटी बहुत अच्छी हैं. बस आपको उसका उपयोग करना आना चाहिए. यदि आप समझदारी से सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं, तो उसके फायदे भी हैं. सोशल मीडिया से कई बार हमें बहुत ही ज्यादा अच्छी जानकारी भी मिलती है. पर मैं कौन होती हॅूं किसी को सलाह देने वाली..??  

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