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इंसान के अंदर की कला कभी मरती नहीं. कई बार इंसान परिस्थितिवश समझौते कर कला से दूरी बना लेता है, पर एक न एक दिन उसे लौटकर कला की तरफ आना ही पड़ता है. इसका जीता जागता सबूत हैं लेखक व निर्देशक योगेश वर्मा, जो कि अब सत्तर साल की उम्र में अपनी पहली फिल्म "ए विंटर टेल एट शिमला" लेकर आ रहे हैं. यह फिल्म 12 मई को पर्दर्शित होगी. योगेश वर्मा कॉलेज के दिनों से थिएटर से जुड़े हुए थे. इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने के बाद वह प्रोफेशनल नाटकों में अभिनय करने लगे. पर अचानक हालात ऐसे बदले कि उन्होने सब कुछ छोड़कर कारपोरेट जगत से जुड़ने का फैसला कर लिया. लगभग चालिस साल तक विभिन्न पदों पर कार्य करने के बाद अब वह पुनः अपने पुराने प्यार यानी कि कला की तरफ लौट आए हैं.
इतनी बड़ी उम्र में फिल्मों की तरफ आने की क्या वजह रही...अभी तक क्या करते रहे?
बचपन से अब तक मैंने कई जगह, कई तरह के काम किए. मगर दिल से मैं हमेशा लेखक व अभिनेता ही था. कॉलेज के दिनो में मैं थिएटर करता रहा. सत्तर के दर्शक में भी मैने थिएटर किया. मगर पिता जी की असामायिक जल्दी मौत हो जाने के कारण पारिवारिक जिमेदारिओं का बोझ इतना आ गया था कि मुझे कला को पीछे रखकर नौकरी करनी पड़ी. यॅूं तो मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था. पर इंजीनियरिंग की पढ़ाई और थिएटर एक साथ चल रहा था. मैने कॉलेज कैंम्पस में ही थिएटर शुरू किया था. इंजीनियरिंग करने के बाद मै प्रोफेशनल अभिनेता के तौर पर थिएटर करने लगा था. मेरे साथ ही सुधीर मिश्रा, पवन मल्होत्रा सहित दिल्ली वाले अभिनेता मेरे साथ काम कर रहे थे. यह सभी कलाकार व निर्देशक आज भी मेरे संपर्क में हैं. उसी दौरान मेरे पिता जी का देहांत हो गया. तो मुझ पर जिम्मेदारी काफी आ गयी. उससे मैं खुद को दूर नहीं रख सकता था. मैं अपने घर में अकेला लड़का था. माँ और दो बहने थीं. तो शुरू में जिम्मेदारी के चलते थिएटर को अलविदा कह कर नौकरी करने लगा. उस वक्त सोच यह थी कि घर के हालात सही हो जाने पर पुनः थिएटर से जुड़ जाउंगा. लेकिन जब इंसान मेहनती हो, लगन से काम करता हो, तो उसे अवार्ड भी मिलते हैं. तो पूरे तीस पैंतिस वर्ष मैने कोई न कोई कंपनी ही चलायी है. मैं हमेशा कंपनी में टॉप मैनेजमेंट में ही रहा. बिजनेस एक्जक्यूटिव से लेकर मैनेजिंग डायरेक्टर के पदों पर रहा. लेकिन बीच बीच मे मेरे अंदर से आवाज आती रहती थी कि मैं जो करना चाहता था, वह तो मैं कर नहीं रहा हॅूं. जो कर रहा हॅूं, उसे अच्छा खासा धन व पुरस्कार जरुर मिल रहे हैं. एक मोड़ वह आया, जब मैने स्वतः कारपोरेट जॉब को अलविदा कह दिया. अवकाश प्राप्त होने के बाद भी मुझे कई बड़े पदों के आफर मिले. पर मैने सभी आफर ठुकराते हुए कहा कि अब मैं अपने दिल की बात सुनकर अपना ही काम करुंगा. उस वक्त मेरे दिमाग में फिल्म निर्माण करने या निर्देषन करने की बात नही थी. मैने लेखन से शुरूआत की.
तीस पैंतिस वर्ष के दौरान आप किन कंपनियों से जुड़े रहे?
सबसे पहले मुझे टेक्सटाइल की कंपनी "वर्धमान" से जुड़ने का अवसर मिला. उसके कगज बनाने वाली पराग कंपनी में रहा. मुंबई में एक कंपनी ‘वेस्पन’ है. फिर डिलक्स कंपनी मे मैनेजिंग डायरेक्टर रहा.फिर मैं ‘हीरो सायकल’ में रहा. इस तरह एक के बाद एक जिम्मेदारी वाला काम मिलने लगा. हर बार मैने अलग अलग काम किया. कभी कागज कंपनी चलायी, तो कभी इंफ्रास्ट्क्चर कंपनी चलायी. कभी रेल कोच बनाए, तो कभी टेक्स्टाइल से जुड़ा. पर हर कंपनी में बिजनेस लीडर के ही तौर पर किया. तो मेरे अंदर वीजन तो था कि एक बिजनेस को सफल कैसे बनाया जाए.
जब आप कंपनियों के बिजनेस को बढ़ाने का काम कर रहे थे, उस वक्त आपके अंदर का कलाकार क्या कर रहा था?
जब एक बार मैंने खुद को नौकरी में डाल दिया, तो फिर चालिस साल कैसे निकले, पता ही नहीं चला. पांच दस साल बाद जब मुंबई आता था, तो सुधीर मिश्रा वगैरह से मुलाकात होती थी. विनोद दुआ भी मेरा जिगरी यार था. तब मेरे मन में आता था कि अब मैं अपना कुछ करुंगा. अपनी दबाई हुई इच्छाओं को मरने नही दूंगा. मैने थिएटर जगत में काम करने की सोचा. जब मैं रियल स्टेट की कंपनी से जुड़ा, वहां भी चर्चा की कि नाटकों के लिए थिएटर बनाया जाए. पर कुछ न कुछ ऐसा होता था कि बात बनती नही थी. लिखना तो कुछ न कुछ होता रहता था. कभी बिजनेस से जुड़े प्रजेंटेषन लिखता था. सरकार की पालीसी पर लिखता था कि क्या सही है और क्या गलत है. रकार की पोलिसी किस तरह की होनी चाहिए. पर साठ की वर्ष में जब मैंने अवकाष ग्रहण किया, तो मैने पुनः थिएटर करना शुरू कर दिया. दिल्ली में दो तीन साल थिएटर करने से मेरे पुराने दोस्त फिर से संपर्क में आ गए. चालिस साल के बाद भी उन्होंने मुझे पहचाना. जब मैं वापस आया, उस वक्त नेषनल स्कूल आफ ड्रामा की चेअरमैन अमाल अलाना थी. वह अलकाजी की बेटी हैं. अलका जी के साथ मैने 1978 में एक बहुत बड़ा नाटक किया था, जिसमें वर्तमान समय के मुंबई के कई दिग्गज कलाकारों ने भी अभिनय किया था. मैने अमाल अलाना के भाई के एक नाटक का प्रोडक्षन किया था और वह अपने भाई का नाटक देखने आयीं थीं. जब उन्होने मुझे 40 -42 साल दुबारा देखा, तो वह स्टेज पर चढ़कर आयीं और मुझे गले लगाया. और कहा कि ‘आप कहां चले गए थे?’ फिर मैने उनको एक कहानी सुनायी, जो कि उन्हे काफी पसंद आयी थी. उस पर भी फिल्म बनाने का इरादा है. अपनी कहानी की प्रशंसा सुनने के बाद मैने दो कहानियां लिख डाली. फिर मैं मुंबई आया. कई लोगो से मिला. लोगों को कहानी पसंद आयी,पर पैसा लगाने को कोई तैयार नही हो रहा था. मेरे पास बचत थी. तो मैने मेरे पास प्रोवीडेंट फंड,पेंषन आदि थी, सब कुछ मैने फिल्म ‘ए विंटर टेल एट षिमला’ में झोंक दिया. मुझसे लोगों ने कहा भी कि ‘आप सफल बिजनेसमैन हो, फिर यह मूर्खता क्यों? इस इंडस्ट्री में कौन पैसा बना सकता है?’ मैने कहा कि मै पैसा कमाने के लिए नहीं, बल्कि अपना शोक पूरा करने के लिए फिल्म बना रहा हॅूं. और अच्छी फिल्म बना लूंगा. तो मैने एक बेहतरीन तकनीकी टीम का चयन किया. फिल्म बनायी. अब हमारी फिल्म 12 मई को पर्दर्शित होगी.
आपकी फिल्म "ए विंटर टेल एट शिमला" की कहानी क्या है?
यह एक ऐसी महिला की कहानी है,जो कि हमारे समाज की पितृसत्तातमक सोच के तले दबकर रह जाती है. हम चाहे जितना खुद को स्वतंत्र बताएं, चाहे जितना आधुनिक जीवन जिएं, पर हमारे अंदर कुछ बाते हैं, जिसके तहत आपकी सोच यह कहती है कि आपका बेटा कोई काम कर सकता है, पर वही काम आपकी बेटी नही कर सकती. यदि बेटा रात में रेलवे प्लेटफार्म पर बिताता है, तो आप गर्व से बताएंगे कि बेटा कितना संघर्ष कर रहा है. पर बेटी रेलवे प्लेटफार्म पर रात बिताए, तो आपको षर्म आती हैं. यह कहानी वेदिका की है. बहुत फन लविंग लड़की है. वह जिंदगी उत्साह में जीती है. नाच गाना वगैरह सब कुछ करती है. कालेज मे पढ़ती है. उसे एक युवक चिंतन से प्यार भी है. चिंतन कवि है, बहुत गहराई वाला युवक है. वह षायरी करता है. वह दार्षनिक विचारों वाला है. मगर वेदिका के पिता, चिंतन को अस्वीकार कर वेदिका की षादी पुलिस आफिसर से कर देते हैं. 25 साल बाद में चिंतन विष्वप्रसिद्ध लेखक बन जाता है. लेकिन वेदिका पीछे रह जाती है. वह पति व परिवार की सेवा में ही खुद को समर्पित कर देती है. उसके अंदर का उत्साह खत्म हो चुका है. पति डीआई जी है,उसका संगीत, कला, पेंटिंग आदि से दूर दूर तक कोई नाता नही है. वेदिका के पति का अपना रूतबा है. अहंकारी भी है. ऐसे में उसके लिए उसकी पत्नी वेदिका एक ट्रोफी की तरह ही है. वेदिका ने भी इसे ही अपनी तकदीर मान लिया है. उसके पति का मानना है कि इंसान को पूरी जिंदगी संघर्ष करना होता है और वह अपने संघर्ष से ही पहचाना जाता है. जबकि वेदिका सब कुछ किस्मत को मानती है. अब आप यह कहेगें कि भाग्य बेटे के साथ है. बेटा संघर्ष करेगा,तो आगे बढ़ जाएगा. लेकिन 25 वर्ष बाद जब चिंतन दोबारा वेदिका से मिलता है, तो वह वेदिका को अहसास कराता है कि उसने क्या खो दिया. वह कहता है कि सब कुछ उसके अंदर है, उसने खुद ही उन्हे दबा रखा है. तुम्हे फिर से अपने अंदर की आग को ,कला को जगाना होगा. कोषिष करनी होगी.वेदिका कह देती है कि अब वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहती.
फिल्म की कहानी का बीज कहां से मिला?
इस कहानी में मेरी जिंदगी के कई अनुभव, मेरे देखे हुए कई किरदार है. फिल्म में लड़की का मानना है कि तकदीर से परे आप कुछ भी हासिल नही कर सकते. तो वेदिका को जो कुछ मिल जाता है, वह उसी को तकदीर मानकर संतुष्ट हो जाती है. उसके अंदर जद्दोजेहाद की भावना नहीं रह जाती है. वह जद्दोजेहाद सिर्फ अपने परिवार के लिए करती है, खुद के लिए नही. इसमें मां बेटी का अति खूबसूरत रिष्ता दिखाया है. मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि आजकल इस तरह की कहानी पर फिल्में बनती ही नही है. आज कल तो बदले की भावना वाली कहानियों पर ही फिल्में बनती हैं. देव आनंद की फिल्मों में जो डिग्निटी होती थी, वही डिग्निटी चिंतन के किरदार में है. वह हर औरत की इज्जत करता है. तभी तो चिंतन,25 वर्ष बाद वेदिका से मिलने पर उसे उसकी जिंदगी का आइना दिखा देता है. जबकि वेदिका पति का डीआई जी है, स्वार्थी है.
आपको नही लगता कि दस वर्ष पहले आपकी फिल्म की कहानी वाले हालात समाज में थे,पर अब तो औरतें काफी आगे हो गयी हैं?
मैं मानता हूं कि बहुत सी चीजों में बदलाव आया है. मूलभूत बदलाव भावनाओं को लेकर आया है. मगर हमारे अंदर की जो दकियानूसी सोच है. वह अभी भी उतनी ही ताकतवर है. मैं मानता हूं के औरतें शिक्षा, महात्वाकांक्षाओं व नौकरी करने को लेकर काफी आगे बढ़ गयी हैं. पर समाज की सोच नही बदली है. आज भी एक सफल पुरूष को अलग निगाह से और सफल औरत को अलग निगाह से देखा जाता है. लोग सफल औरत के अंदर जो मानवीय ताकत व काबीलियत है, उसे पहचानना ही नही चाहते. लोग बड़ी आसानी से कह देते हैं कि यह सुंदर है, इसका पहनावा ऐसा है कि इसे तो आगे बढ़ने से कोई रोक ही नही सकता. मतलब लोग उसकी काबीलियत व संघर्ष को सिरे से खारिज कर देते हैं. पर ऐसा वह सफल पुरूष के साथ नही करते. हमारी फिल्म में मां अपनी बेटी से कहती है कि तुम खुद अपनी जिंदगी के फैसले करो कि तुम्हे क्या करना है. मैं डर गयी या संकोच में दबकर रह गयी, पर तुम्हें अपनी जिंदगी अपनी तरह से जीनी है. मैने अपने साथ जो हो रहा था, उसे भाग्य के सहारे होने दिया, पर तुम ऐसा मत होने देना. यह पूरी तरह से नारी प्रधान फिल्म है. कहानी मनोरंजक है. इसमें भरपूर ड्ामा है. मेरी फिल्म के संवाद भी आकर्षित करने वाले हैं. मेरी राय में फिल्म केवल वीज्युअल मीडियम नही है. .इंसान के अंदर की पीड़ा,दिल की उलझन को संवाद ही आगे लाते हैं. मेरी फिल्म में जिंदगी को लेकर बहुत गहरे संवाद हैं. आज कल जिस तरह की फिल्में बन रही हैं, उनसे हमारी फिल्म काफी अलग है.
क्या यह माना जाए कि यह आपकी जिंदगी से जुड़ा हुआ किरदार है?
कुछ हद तक. मैने हर किरदार में कुछ बातें अपनी मां, अपनी बेटी व अपने दोस्तों से ली हुई बातें पिरोयी हैं. इंसान जब युवा होता है, तब उसकी जिंदगी में एक ऐसा किरदार आता है, जिससे उसे अपनी जिंदगी की सर्वाधिक खूबसूरत अनुभूति होती है. दिल व दिमाग सब दुनिया में सब रम जाते हैं. वह माध्यम कोई और नहीं लड़की ही होती है. लड़की हो या लड़का, हर किसी की जिंदगी में कोई न कोई ऐसा होता है, जिसकी यादें वह पूरी जिंदगी नही मिटा पाता. इस कहानी को लेकर एक 75 वर्षीय जज से बात हुई, तो उन्होने हमारी कहानी सुनकर स्वीकार किया कि उनकी जिंदगी में कभी कोई थी, जिसे वह आज तक नही भुला पाए.
तो आप मानते है कि औरतों की स्थितियों में कोई सुधार नही आया?
मैने ऐसा नहीं कहा. सुधार तो आया है, पर उस अनुपात में नही आया, जिस अनुपात में आना चाहिए. आज हर क्षेत्र में औरतें बढ़ चढ़कर काम कर रही हैं. लेकिन क्या लड़कियों को जिंदगी में मस्ती करने का हक है.
आपको नही लगता कि आज की लड़कियां दारू व सिगरेट पीते हुए मस्ती नही कर रही हैं?
कर रही हैं.. मगर मुंबई व दिल्ली जैसे महानगरों में. यह पढ़े लिखे मैच्योर लोग हैं. पर गांवों या कस्बों या छोटे षहरों में नही है. मुंबई में भी हर लड़की इतनी स्वतंत्र नही है कि वह मस्ती कर सके.