जब फिल्मकार अमित शर्मा स्कूल में पढ़ रहे थे, उस वक्त एक दिन अचानक उनकी मॉं ने अपने आफिस से फोन करके उनसे मॉडलिंग और अभिनय करने के बारे में सवाल किया था। उसी दिन अमित शर्मा ने सोच लिया था कि उन्हें फिल्मों में बहुत बड़ा हीरो बनना है। उसके बाद अमित शर्मा ने प्रदीप सरकार के निर्देशन में एक विज्ञापन फिल्म में अभिनय भी किया। लेकिन बाद में वह एड फिल्म मेकर बन गए। अब तक वह ‘‘क्रोम पिक्चर्स’ के तहत 1800 एड फिल्में बना चुके हैं। 2015 में बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म ‘‘तेवर’’ आयी थी। जिसे खास सफलता नहीं मिली थी। पर अब उनकी ब्लैक कॉमेडी के साथ टीनएजर प्रेम कहानी वाली फिल्म ‘‘बधाई हो’’ 19 अक्टूबर को रिलीज हो रही है। फिल्म ‘‘बधाई हो’’ में इस बात का हास्यप्रद चित्रण है कि अधेड़ उम्र में युवा बेटे की मां के पुनः गर्भधारण कर लेने पर महानगरों में किस तरह से पूरे परिवार को सामाजिक शर्मिंदगी से गुजरना पड़ता है।
बतौर निर्देशक पहली फिल्म ‘‘तेवर’’ मिलने में छह साल का समय लगा। अब दूसरी फिल्म ‘‘बधाई हो’’ आने में तीन साल लग गए?
-देखिए, फिल्म लिखने में समय जाता है। ‘बधाई हो’ को लिखने में दो साल लग गए। फिर उसे बनाने में एक साल लगा। अब 19 अक्टूबर को रिलीज हो रही है।
तो आप मानते हैं कि‘‘तेवर’’की असफलता का आप पर असर नहीं पड़ा?
-बिल्कुल नहीं पड़ा। क्योंकि मेरे साथ तो कुछ बहुत ही अलग हुआ। ‘तेवर’ को बाक्स ऑफिस पर सफलता नहीं मिली। पर फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को मेरा काम बहुत पसंद आया। कई निर्माताओं और कॉरपोरेट के लोगों ने बुला बुलाकर कहा कि मेरी फिल्म उन्हें बहुत पसंद आयी। लेकिन ‘तेवर’ जिस जॉनर की फिल्म है। वह ‘जॉनर’ अभी नहीं चल रहा है। यानी कि मेरी फिल्म ‘तेवर’ गलत समय पर आयी थी। उसी वक्त कई बड़े फिल्म निर्माताओं व कॉरपोरेट कंपनियों ने वादा किया था कि मैं जब भी कोई फिल्म बनाना चाहूंगा, वह मेरे साथ होंगे। उसके बाद मेरे पास कई फिल्मों के निर्देशन के ऑफर आए थे, पर मैंने मना कर दिया था। मैंने लोगों से साफ साफ कहा कि मैं सही कहानी के मिलने का इंतजार करता रहा। जब मुझे फिल्म ‘‘बधाई हो’’ की कहानी मिली, हमने इस पर काम करना शु रू कर दिया।
फिल्म ‘‘बधाई हो’’ की कहानी किसी घटनाक्रम से प्रेरित है या।?
-यह हमारी फिल्म के लेखकां की दिमाग की ही उपज है। वास्तव में हमारी फिल्म के लेखक द्वय अक्षत घिलडियाल व शांतनु श्रीवास्तव में से अक्षत विज्ञापन फिल्मों के चर्चित लेखक हैं। उन्होने 2012 में एक एड फिल्म के लिए एक आइडिया लिखा था। मगर कुछ वजहों के चलते वह इस आइडिया को कभी किसी को बता नहीं पाए। ‘तेवर’ के रिलीज के दो माह बाद अक्षत घिलदियाल और शांतनु श्रीवास्तव मुझसे मिलने आए। उन दिनों मैं बेहतरीन कहानी की तलाष में था। बात चली, तो उन्होंने मुझे एक लाइन में कहानी की आइडिया मुझे सुनायी। मैं उछल पड़ा। कहानी थी कि उम्र के पचासवें वर्ष यानी कि अधेड़ उम्र की महिला प्रेग्नेंट /गर्भवती हो जाती है। मैंने उनसे कहा कि यह तो अच्छा आइडिया है। इस पर फीचर फिल्म की पटकथा लिखें। क्योकि युवा बेटे के सामने जब उसकी मॉं पुनः प्रेग्नेंट होती है तो उसे व परिवार के हर सदस्य को सामाजिक रूप से शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है।
फिल्म के लेखन में दो साल का लगना?
-देखिए, जब हम फिल्म देखने बैठते हैं, तो यह नही सोचते कि बच्चों के साथ ना देखे या माता पिता के साथ ना देखे। इसलिए मुझे इस तरह से फिल्म बनानी थी, जिसे पूरा परिवार एक साथ बैठकर देख सके। हमारा प्रयास यह था फिल्म कहीं से भी वल्गर न होने पाए। लेकिन मेरी कहानी यह है कि यदि किसी के घर में वास्तव में ऐसा हो जाए यानी कि अधेड़ उम्र की मां फिर से प्रेग्नेंट हो जाए, तो क्या होगा? अगर उसका बेटा 25 साल का और दूसरा बेटा 12 वी कक्षा में पढ़ रहा है, तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? मिस्टर और मिसस कौशिक के रिश्ते में मैंने अपने माता पिता को देखा। हम अपनी फिल्म में यह कह रहे हैं कि पचास साल की उम्र में भी पत्नी से प्यार करना अच्छी बात है, कोई बुराई नहीं है। यही वजह है कि ट्रेलर बाजार में आने के बाद तमाम लोगों ने कहा कि यह तो उनकी अपनी कहानी है।
आज यह खबर लोगों को शॉकिंग लगती है। पर पचास साल पहले ऐसा क्यों नहीं होता था?
-यही तो मेरी फिल्म कहती है कि जब पचास साल पहले अधेड़ उम्र की औरत का मां बनना टैबू नहीं था,तो अब क्यों है? फिल्म में आस पास के दोस्तों के क्या रिएक्शन होंगे, इस पर ध्यान दिया है।
रिसर्च के दौरान पचास साल पहले पचास साल की उम्र में मां बनना कोई बड़ा मुद्दा या ‘टैबू’ न होने की क्या वजहें समझ में आयीं?
-जी हां! मॉर्डनाईजेशन ने कई चीजों को बेवजह मुद्दा बना दिया है। मॉर्डनाइजेशन के बाद मुंबई व दिल्ली जैसे शहरों में यदि यह सुनने में आए कि किसी युवक की मां गर्भवती है, तो बड़ा अजीब सा लगता है। जबकि आज भी इस तरह की घटनाएं छोटे शहरों में आम बात हैं। जिस दिन हमारी फिल्म का ट्रेलर बाजार में आया, कुछ लोगों ने फोन करके बताया कि उनके पड़ोस में या उनके मामा के घर में ऐसा ही हुआ है। एक महिला ने फोन करके बताया कि जब वह 26 साल की थी, तब उसकी छोटी बहन पैदा हुई थी। तो इस तरह की घटनाएं हो रही हैं। पर हम महानगरों में रहने वाले लोग इसको मुद्दा बना देते हैं। दूसरी बात शहरों में शिक्षित वर्ग ने ‘हम दो हमारे दो’ का नारा अपनाया। इसलिए भी इस तरह की घटना होने पर सामने वाले को शर्मसार करने से नहीं चूकते।
फिल्म की कहानी क्या है?
-यह कहानी है दिल्ली की रेलवे कालोनी में रहने वाले कौशिक परिवार की है। कौशिक (गजराज राव) रेलवे में टीसी हैं। घर में उनकी माँ (सुरेखा सीकरी), पत्नी प्रियंवदा (नीना गुप्ता), एक 25 साल का बेटा नकुल (आयुष्मान खुराना) व एक बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाला बेटा जूना (राहुल तिवारी) है। घर में पूजा पाठ का माहौल रहता है। नकुल कौशिक एक कारपोरेट कंपनी में नौकरी करता है और अपनी सहकर्मी स्वामी षर्मा (सान्या मल्होत्रा) से प्यार करता है। स्वाति शर्मा की मां संगीता शर्मा (शीबा चड्ढा) आई एएस आफिसर है। नकुल हमेशा इसी प्रयास में लगा रहता है कि उसे स्वाति के परिवार वालों के सामने नीचा न देखना पड़े। पर अचानक पता चलता है कि नकुल की मां प्रियंवदा गर्भवती हैं। इससे नकुल को बड़ा ऑक्वर्ड महसूस होता है। पर स्वाती उसे समझाती है कि इसमें कुछ भी गलत नही है। उसके बाद कहानी में कई हास्यप्रद मोड़ आते हैं।
आपने इस फिल्म के लिए कलाकारों का चयन किस हिसाब से किया?
-हमने अपनी फिल्म के किरदारों के अनुरूप कलाकारों का चयन किया। नकुल कौशिक के किरदार में आयुष्मान खुराना एकदम फिट हैं। यह एक ऐसा किरदार है, जिसे रियालिटी में समझकर उसे निभाना था। आयुष्मान बहुत ही बुद्धिमान कलाकार हैं। वह पटकथा को समझकर किरदार निभाते हैं। मैं इस बात के लिए आयुष्मान की तारीफ करूंगा कि उसे पटकथा को समझने व पटकथा को अपनाने की कला पता है। कलाकार भी बेहतरीन है। वह अपनी अभिनय कला से निर्देशन के विजन में अपनी तरफ से कुछ न कुछ बढ़ोतरी करता है। वह तो निर्देशक का कलाकार है। उसके अंदर ईगो नही है। इसलिए कलाकारों का चयन करते समय मेरे दिमाग में सबसे पहले नाम आयुष्मान का आया। पटकथा सुनकर उसने हामी भर दी। लघु फिल्म ‘खुजली’ देखकर मिसस कौशिक के लिए मैने नीना गुप्ता को कहानी सुनायी। उन्होंने भी हामी भर दी। नीना गुप्ता बहुत जबरदस्त कलाकार हैं। वह दिल्ली के चांदनी चौक से हैं। गजराज राव दिल्ली से हैं। ‘एक्ट वन’ में अभिनय करते रहे हैं। मजेदार बात तो यह है कि गजराज राव के पिता भी रेलवे में टीसी थे और उनके दो बच्चों के बीच में 13 साल का अंतर है.वह कमाल के कलाकार हैं। मैं उन्हें 18 साल से जानता हूं। कहानी सुनते ही वह उछल पड़े।
मुझे स्वाति शर्मा के किरदार के लिए एक सरल साधारण और रिलेटेबल अभिनेत्री की तलाश थी, जो कि गर्ल नेक्स्टडोर हो। उसमें ईमानदारी नजर आनी चाहिए। मुझे यह खूबी सान्या मल्होत्रा में नजर आयी। अब सुरेखा सीकरी को तो दादी के किरदार में कई सीरियलों में देख चुका था। मैं चाहता था कि मेरी फिल्म में दो भाई एक जैसे न लगें, इसलिए बारहवीं में पढ़ने वाले जूना के किरदार राहुल तिवारी को चुना।
आप इस फिल्म के माध्यम से क्या संदेश देना चाहते हैं?
-एक ही संदेश है कि हर युवक युवती को यह मानकर चलना चाहिए कि उनके माता पिता भी प्यार करते हैं। इस बात से उन्हें खुश होना चाहिए। क्योंकि मॉर्डन युग में ज्यादातर शादियां इतने लंबे वर्ष तक टिकती नही है। मेरे लिए मेरे माता पिता उदाहरण हैं। पूरी कालोनी में उन्हें ‘लव बर्ड’ कहा जाता है। दोनों जहां भी जाते हैं, एक साथ जाते हैं। शाम को खाना खाकर टहलने जाएंगे, तो साथ जाएंगे। यदि मेरे पिता सब्जी लेने जाएंगे, तो भी अकेले नहीं जाते। मैंने अपने माता पिता के इसी प्यार को फिल्म ‘‘बधाई हो’’ के मिस्टर कौशिक और मिसेस कौशिक में डाला है।
फिल्म में कितने गाने हैं और किस तरह के गाने हैं?
-फिल्म में पांच गाने हैं। ‘‘मोरनी..’ गाने को छोड़कर कोई भी गाना लिप सांग वाला नही है। बाकी गाने किरदारो के मन और हृदय, दिमाग और हृदय में जो कुछ चल रहा है, उसकी दशा को बयां करते हैं। एक गाना रोचक का है। दो गाने तनिश के हैं। एक गाना सनी बावरा का है।
एक ही फिल्म में एक साथ इतने संगीतकार क्यों?
-मैं इसके हक में कुछ भी नही बोलना चाहता.मैं यह भी नही बोलना चाहता कि सही है या गलत। पर इन दिनों लगभग हर फिल्म में यही हो रहा है। हर संगीतकार के पास अपना एक जॉनर है। अब पूरी फिल्म ए आर रहमान, अतिम त्रिवेदी या शंकर अहसान लॉय जैसे संगीतकार को छोड़कर कोई नहीं करता। जब मुझे ‘बधाई हो’ के लिए चार संगीतकार चुनने पडे़, तो मुझे अजीब लगा। पर निर्माता की तरफ से आग्रह था कि अलग अलग संगीतकार को लेकर एक प्रयोग करते हैं।