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Birthday Special गोविन्द निहलानी: फिल्म के शरीर और मन का जुड़ना लाज़िमी है

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By Mayapuri Desk
Birthday Special गोविन्द निहलानी: फिल्म के शरीर और मन का जुड़ना लाज़िमी है
New Update

आज ‘आक्रोश’ देखीहै?

यदि

देखी

है

,

तो

आप

जरूर

उस

फिल्म

वे

फोटाग्राफर

और

डायरेक्टर

गोविन्द

निहलानी

को

दाद

देंगे

!

वाह

!

क्

या

चरित्र

अभिव्यंजना

और

वातावरण

को

सजीव

बनाने

वाली

कमाल

की

फोटोग्राफी

और

सृक्ष्म

अभिव्यक्ति

से

भरा

परा

लाजवाब

डायरेक्शन

!  

पन्ना

लाल

व्यास

यह

लेख

दिनांक

6-2-1983

मायापुरी

के

पुराने

अंक

437

से

लिया

गया

है

‘विजेता’ के बाद वे और भी फिल्मों के फोटोग्राफर और डायरेक्टर ‘द इन वन’ बन जायेंगे

Birthday Special गोविन्द निहलानी: फिल्म के शरीर और मन का जुड़ना लाज़िमी है

हाँ

उनके

संबंध

में

,

तब

तक

यह

ज्ञानव्य

जग

जाहिर

हो

चुका

था

,

कि

यहाँ

वहाँ

अलग

-

अलग

शैली

के

फोटोग्राफरों

के

साथ

काम

करते

-

करते

अपनी

स्वयं

की

विशिष्ट

शैली

का

उद्भाव

करके

वे

काडू

और

अंकुर

से

स्वतंत्र

कैमरामैन

बन

गए

,

फिर

जुड़

गए

श्याम

बेनेगल

के

साथ

.

इन

पंक्तियों

को

लिखते

समय

उन्होंने

अब

तक

उनकी

सभी

फिल्मों

की

फोटोग्राफी

की

 

चूकिं

अब

वे

शशि

कपूर

की

चर्चित

फिल्

विजेता

के

डायरेक्टर

हैं

संभवतः

इसलिए

श्याम

बेनेगल

की

अगली

फिल्

के

फोटोग्राफर

नहीं

बन

सकेंगे

 

और

मुझे

तो

लगता

है

कि

विजेता

के

बाद

वे

और

भी

फिल्मों

के

फोटोग्राफर

और

डायरेक्टर

इन

वन

बन

जायेंगे

.         

और दूसरे दिन औपचारिक अभिन्‍दन और यहाँ वहाँ की खास कर फिल्म ‘विजेता’ के संबध में बातें करने के बाद इंटरव्यू का श्री गणेश करते हुए मैंने पूछा- फिल्मों में आप खुद करियर बनाने का मकसद लेकर आए या संयोग से उसके साथ जुड़ गए?

मैं

तो कहूंगा

कि

दोनों

हाथों

से

ताली

मेरा

चचेरा

भाई

स्टिल

फोटोग्राफर

था

,

उसके

साथ

काम

करने

लगा

.

उसका

कैमरा

लेकर

मैं

बाग

-

बगीचों

में

चला

जाता

और

प्रकृति

के

सौन्दर्य

की

छवि

उतार

कर

बड़ा

खुश

होता

.

उदयपुर

में

पढ़ते

समय

वहाँ

की

प्रकृति

ने

मुझ

पर

जादू

कर

दिया

था

,

‘तो यों कहें कि प्रकृति ने आपको फोटोग्राफर बनने की ओर प्रेरित किया?”

हाँ

प्रकृति

से

बड़ी

प्रेरणा

ली

है

,

और

आज

भी

जब

सूर्योदय

,

सूर्यास्त

,

बहते

हुए

झरने

हिमाच्छादित

पर्वत

और

लहलहाती

हरियाली

देखता

हूँ

तो

अपने

को

वश

में

नहीं

रख

पाता

और

फौरन

कैमरा

उठा

कर

उस

को

कैद

करने

की

कोशिश

करता

हूँ

. ‘

विजेता

के

कई

प्राकृतिक

सीन्स

मैंने

नेच्युअरल

लाइट्स

में

लिए

हैं

,

वे

सीन्स

कितने

खूबसूरत

पर्दे

पर

आए

हैं

इसका

जजमेंट

तो

आप

फिल्म

देख

कर

ही

कर

सकते

हैं

,

उन्होंने

अपनी

दार्शनिक

आँखों

में

प्रकृति

के

मोह

का

दार्शनिक

भाव

छलछला

कर

कहा

!

यह तो संयोग हुआ आगे फिर?

कुछ

ही

दिनों

बाद

एस

.

जे

.

पॉलिटेकनिक

बंगलौर

की

ओर

से

सिनेमेटोग्राफी

कोर्स

सिखाने

का

एक

विज्ञापन

अखबारों

में

निकला

.

बस

उसे

देखते

ही

मन

ने

कहा

-

यही

कोर्स

तुम्हारा

करियर

है

,

तुम्हारा

मकसद

हैः

पिताजी

और

घरवाले

उस

के

साथ

खिलाफ

थे

 

मैंने

वहाँ

बडी

-

बड़ी

मेहनत

की

पर

जाने

क्यों

,

कोर्स

खत्म

करने

के

बाद

जब

मझे

बताया

गया

कि

मैं

कैमरामैन

नहीं

ने

रिलॉल्ट

कर

दिया

.

अब

तो

कैमरामैन

बनने

की

धुन

सबार

हो

गई

.

मैं

बनूंगा

तो

अब

कैमरामैन

ही

.

यह

संकल्प

लेकर

मुंबई

आया

आज

से

बीस

साल

पहले

.

मुंबई

आकर

मैंने

सिनेमेटोग्राफर

वी

.

के

.

मूर्थी

के

साथ

प्रैक्टिकल

ज्ञान

हासिल

किया

,

और

आप

जानते

हैं

,

मेरी

एप्रेन्सिशिप

कैसे

शुरू

हुई

.

मुझे

कहा

गया

कि

मैं

कैमरा

डिपार्टमेंट

की

एक

भी

चीज

के

हाथ

लगाऊं

और

बस

खड़ा

-

खड़ा

देखता

रहूँ

कि

क्या

हो

रहा

है

.

Birthday Special गोविन्द निहलानी: फिल्म के शरीर और मन का जुड़ना लाज़िमी है

तो आपने खड़े रहने की तपस्या कितने साल तक की? 

यही

दो

साल

 

मेरी

तपस्या

इतनी

सार्थक

रही

कि

उन

दो

सालों

में

केवल

खड़े

-

खड़े

रह

कर

मैंने

कैमरा

मूवमेंट्स

सीख

लिए

,

एंग्लस

ज्ञान

लिये

और

लैन्सेज

के

बारे

में

जानकारी

 

प्राप्त

कर

शॉट्स

लेने

की

लेंग्यूएज

सीख

ली

.

इस

तरह

कॉमर्सिशल

इंडस्ट्री

में

दस

साल

तक

जूटा

रहा

.

फिर

मैंने

ऑपरेटिव

और

असिसटेंट

कैमरामैन

के

रूप

में

दस

-

दस

लोगों

के

साथ

काम

किया

और

प्रेक्टिक्लस

करते

-

करते

मैंने

खुद

ने

अपना

स्टायल

पैदा

किया

,

तभी

मुझे

श्याम

बेनेगल

ने

स्वतंत्र

रूप

से

आक्रोश

की

फोटोग्राफी

करने

का

मौका

दिया

.  

“तो आपका स्टायल कौन सा है?”

मैं

लाइटिंग

और

कैमरा मूवमेंट्स

में

नए

-

नए

प्रयोग

करता

रहा

हूँ

.

इसीलिए

आपने

देखा

होंगा

कि

अंाक्रोश

’, ‘

निशांत

’, ‘

भूमिका

’ ‘

मंथन

’, ‘

कलयुग

’, ‘

आरोहण

आदि

फोटोग्राफी

की

नज़र

से

एक

सी

और

एक

ही

फोटोग्राफर

की

फिल्में

नहीं

लगती

.

देश

,

काल

,

स्थिति

,

करैक्टर

,

दृश्य

संयोजन

और

कुल

मिला

कर

स्टोरी

के

टोटल

इम्पैक्ट

के

अनुसार

कैमरे

से

प्ले

करना

चाहिए

सो

मैं

वही

करता

रहा

हूँ

.

इसलिए

एक

सही

शाॅट

या

डायरेक्ट

लाइट

हो

इसमें

मेरा

विश्वास

नहीं

है

.

मैं

नेच्युअरल

लाइटस

का

भी

उपयोग

करता

रहा

हूँ

. ‘

आक्रोश

के

सबजेक्ट

के

मुताबिक

हार्ड

लाइट्स

इस्तेमाल

की

हैं

.

यदि

करैक्टर

के

चेहरे

पर

उदासी

का

भाव

है

तो

मैं

कभी

उस

चेहरे

को

रोशनी

में

चमकता

दमकता

नहीं

दिखाऊंगा

‘तो आप टाइप्ड कैमरामैन नहीं बनना चाहते?

हाँ

करियर

का

यही

मकसद

है

.

डायरेक्टर

के

रूप

में

भी

मेरा

यही

मकसद

है

तो आप फोटोग्राफर से डायरेक्टर क्यों बने ?

बात

यह

है

,

कि

मैंने

जितनी

फिल्मों

की

फोटोग्राफी

की

उसमें

मैं

केवल

शुद्ध

फोटोग्राफर

ही

नहीं

रहा

,

मैं

हमेशा

डायरेक्टर

के

साथ

बैठ

कर

फिल्

की

स्टोरी

,

करैक्ट्राइजेशन

,

शॉटस

डिवीजन

,

कैमरा

प्लेसिग

आदि

बातों

पर

मशविरा

करता

था

.

धीरे

-

धीरे

डायरेक्शन

के

सारे

ऑस्पेक्ट्स

पकड़

लिए

.

तब

मैं

फोटोग्राफर

के

साथ

-

साथ

डायरेक्टर

भी

बनने

को

उत्सुक

हुआ

.

मैंने

समझ

लिया

कि

फिल्म

की

फोटोग्राफी

फिल्म

का

शरीर

है

और

डायरेक्शन

उसका

मन

,

श्याम

बेनेगल

के

साथ

काम

करते

हुए

मैं

डायरेक्टर

की

जिम्मेदारी

सम्हालने

में

पक्का

हो

गया

था

.

पहले

मैं

चानी

कहानी

डायरेक्ट

करना

चाहता

था

पर

वह

कहानी

व्ही

शाताराम

के

हाथ

में

पड़

गई

,

उन्होंने

उस

पर

एक

खूबसूरत

फिल्म

बना

डाली

,

उसके

बाद

विजय

तेन्दुलकर

के

साथ

काम

करंते

हुए

आक्रोश

की

कहानी

उभर

कर

सामने

आई

Birthday Special गोविन्द निहलानी: फिल्म के शरीर और मन का जुड़ना लाज़िमी है

‘आक्रोश’ कॉमर्सियल फिल्‍म की कहानी की तरह नहीं थी. तो फिर आपने उसे बनाने का खतरा क्‍यों उठाया?

मैं

जानता

था

,

वह

कहानी

डैड

कहानी

नहीं

थी

.

मुझे

पूरा

विश्वास

था

,

कि

उस

पर

फिल्

बनेगी

तो

आम

दर्शक

भी

उसे

पसन्द

करेंग

पर आज भी कुछ लोगों का ख्याल है, कि यदि ‘आक्रोश’ में से ओम पुरी और स्मिता पाटिल का उत्तेजक और गरम लव सीन काट दिया जाए, तो वह फिल्म थोथी हो जायेगी और कोई नहीं देखेगा, आपने जान-बूझ कर उसमे वह कामुक एंव सेक्सी सीन डाला है, लोगों को तो इस बात से भी आश्चर्य है कि सेंसर ने वह सीन क्यों नहीं काटा?

इस

पर

गोविंद

निहालनी

को

हँसी

गई

.

फिर

उस

हँसी

के

बीच

गम्भीरता

का

उन्होंने

कहा

-‘

इमैच्

योर

लोग

जो

फिल्म

के

मिडियूम

को

समझ

नहीं

पाए

हैं

,

ऐसा

कहते

होंगे

. ‘

आक्रोश

का

वह

लव

सीन

उस

फिल्म

की

सांस

है

,

जो

एक

साथ

कई

बातों

को

जाहिर

करता

है

,

वह

केवल

लव

सीन

ही

नहीं

है

बल्कि

ओम

पुरी

के

किरदार

के

मन

के

मंथन

की

वह

लहर

है

,

जिस

पर

कहानी

की

बुनियाद

बनती

है

,

वह

लव

सीन

कहानी

का

आत्मज

सीन

है

,

जो

उसके

साथ

इस

तरह

जुड़ा

है

कि

उसके

बिना

कहानी

का

कोई

रूप

ही

नहीं

बनता

‘शशि कपूर ने ‘विजेता’ का डायरेक्शन कैसे दिया? 

दरअसल

मैं

खुद

उनके

पास

विजेता

बनाने

का

आइडिया

लेकर

गया

.

यह

आइडिया

भी

मुझे

एयर

फोर्स

वालों

ने

उस

समय

दिया

जब

मुझे

आक्रोश

पर

गोल्डन

पिकोक

का

अवाॅर्ड

मिला

.

और

जब

मैंने

उस

प्रपोजल

की

बात

शशि

कपूर

से

की

तो

वे

फौरन

उसके

प्रोड्यूसर

बनने

को

तैयार

हो

गए

,

इस

तरह

का

विजडम

और

एडवांचर

बहुत

कम

प्रोड्यूसरों

में

है

.

इसके

अलावा

वे

कलयुग

में

मेरा

काम

देख

चुके

थे

.

उन्हें

मेरे

सामथ्र्य

पर

पूरा

विश्वास

था

.

इसी

बीच

मुझे

रिचार्ड

एटनबरो

की

फिल्

गाँधी

के

सैकंड

युनिट

का

डायरेक्शन

और

कैमरामैन

बनने

का

मौका

मिला

,

बस

मेरा

हौसला

बुलन्द

हो

गया

.

किसी

भी

इंसान

को

जब

अपने

सपनों

को

साकार

करने

का

मौका

मिल

जाता

है

तो

उसके

काम

करने

की

हाॅर्स

पावर

जाने

कितनी

मेंगनाटोन

बढ़

जाती

है

‘विजेता’ क्‍या वाॅर फिल्‍म है?

नहीं

!

वह

वाॅर

फिल्म

नहीं

है

.

वह

तो

एक

युवक

की

कहानी

है

,

जो

एयरफोर्स

में

भर्ती

हो

जाता

है

,

और

फिर

जो

प्रेम

और

मृत्यु

के

संघातों

के

बीच

विशेष

परिस्थितियों

के

साथ

झूलने

लगता

है

,

अंत

में

उसे

दोनों

में

से

किसी

एक

का

चुनाव

करना

पड़ता

है

.

इस

फिल्

में

एकदम

इंडियन

एयर

फोर्स

की

बातें

हैं

.

मुझे

इस

बात

का

गर्व

है

,

कि

इस

फिल्म

में

पहली

बार

असली

इंडियन

एंयर

फोर्स

की

एक्सरसाइज

को

मैंने

फोटोग्राफ

किया

है

.

इंडियन

एयर

फोर्स

की

मदद

से

जिसमें

मिंग

21,

किरन

,

हंटर

,

कैनबर

और

एन

2

हवाई

जहाजों

ने

भाग

लिया

है

.

अब

उस

सीन

का

अंदाजा

कीजिये

जब

एक

हवाई

जहाज

20,000

फुट

की

ऊँचाई

पर

उड़ान

भरता

हुआ

एक

दम

8,000

फूट

की

ऊँचाई

पर

नीचे

उतर

आता

है

.

इस

रियल

सीन

को

मैंने

रियली

फिल्माया

है

,

इस

फिल्म

में

टैंकों

और

हवाई

जहाजों

की

एक

लड़ाई

का

सीन

भी

बड़ा

रोमांचक

बन

पड़ा

है

.

Birthday Special गोविन्द निहलानी: फिल्म के शरीर और मन का जुड़ना लाज़िमी है

क्या फिल्‍म शशि कपूर ने अपने बेटे कुणाल कपूर को उजागर करने के लिए बनाई है, जो इस फिल्‍म का हीरो है?  

कतई

नहीं

.

हीरो

का

चुनाव

बहुत

सोच

समझ

कर

स्क्रीन

टेस्ट

के

बाद

किया

गया

.

शशि

कपूर

ने

प्रोड्यूसर

के

बतौर

मेरे

किसी

काम

में

दखल

नहीं

दिया

.

उसकी

इस

ग्रेटनैस

के

कारण

ही

फिल्म

स्मूथली

और

जल्दी

बन

गयी

.

इसके बाद?

कई

प्रपोजल्स

रहे

हैं

.

मुझे

बड़े

-

बड़े

प्रोड्

î

ूसर्स

ऑफर

दे

रहे

हैं

.

पर

मैं

कामर्सियल

रेट

रेस

में

शामिल

होने

वाला

नहीं

हूँ

.

इस प्रोफेशनल इंटरव्यू को समाप्त करते हुए मैंने पूछ लिया-‘आपने दाढ़ी क्‍यों बढ़ा रखी है?”

यह

तो

ऐसा

सवाल

है

जिसका

जवाब

दाढ़ी

ही

दे

सकती

हैं

,

तभी

वहाँ

शशि

कपूर

गये

.

उन्होंने

कहा

-

क्या

आज

ही

उन

पर

किताब

भरने

का

मैटर

ले

लोगे

,

कुछ

कल

के

लिए

भी

तो

छोड़ो

,

दरअसल

उन

दोनों

को

वहाँ

से

लैब

में

जाना

था

,

जहाँ

विजेता

;

की

एडिटिग

चल

रही

थी

!.    

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