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मैं वही कर रहा हूँ, जो मैं करने आया था- राकेश बेदी

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By Mayapuri Desk
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मैं वही कर रहा हूँ, जो मैं करने आया था- राकेश बेदी

जी

हाँ

,

ये

है

टी

.

वी

.

सीरियल

ये

जो

है

जिन्दगी

के

राजा

यानि

कि

फिल्

मी

दुनिया

के

हास्य

अभिनेता

राकेश

बेदी

,

आजकल

ये

अपना

घर

बसा

कर

दिल्ली

से

लौटे

हैं

सो

यहाँ

का

घर

भी

इन्होंने

बदल

लिया

है

,

और

मुम्बई

में

कोई

घर

बदल

ले

तो

उसे

ढूँढना

समुद्र

में

सूर्य

ढूँढने

जैसा

होता

है

लेकिन

जो

निश्चय

कर

ले

तो

इंसान

क्या

नहीं

कर

सकता

सो

हमने

भी

गोता

लगाकर

काफी

मृशक्कत

के

बाद

आखिर

इनको

यास्मीन

बँगले

की

शूटिंग

में

इन्हें

पकड़कर

आपके

सामने

हाजिर

कर

ही

दिया।

कुंदन

किशोर

पिछले दिनों थोड़ा गेप या ठेब आ गया था-क्यों राकेश मैं गलत तो नहीं कह रहा?

मैं वही कर रहा हूँ, जो मैं करने आया था- राकेश बेदी

मैं

जिन

दिनों

यहाँ

इस

फील्ड

में

आया

था

तो

मेरी

फिल्में

निरन्तर

चल

रही

थीं

,

जिस

बहाव

से

चल

रही

थीं

वह

ठीक

था

,

उसमें

हर

दूसरे

तीसरे

महीने

मेरी

फिल्

रिलीज

होती

थी।

उसके

बाद

पेंटर

बाबू

के

समय

आप

मड

आइलैंड

पर

आप

मिले

ही

थे

,

उसके

बाद

एक

जान

हैं

हम

सोहनी

महिवाल

आई।

एक

जान

हैं

हम

के

दौरान

ही

ये

जो

है

जिन्दगी

सीरियल

मिला।

उसके

बाद

तो

मैं

ऐसा

बिजी

हुआ

कि

घड़फड़

करके

जैसे

दौड़

पड़ा।

मैं

यह

तो

नहीं

कहूँगा

कि

उसके

बाद

फिल्में

कम

हुई

या

गेप

आया

या

ठेब

आई

,

और

वह

सीरियल

के

कारण

हुआ।

हाँ

उसके

बाद

यानि

कि

इन

तीन

-

चार

महीनों

के

दौरान

की

तकरीबन

5

फिल्में

मैंने

साइन

कर

ली

हैं

जिनमें मुंबई

की

भी

फिल्में

हैं

और

कुछ

मद्रास

की

भी

उम्दा

फिल्में

हैं।

मेरी

शूटिग्स

में

भी

गेंप

या

ठेब

नहीं

आई

बल्कि

मैंने

अंपने

समये

का

बंटवारा

कर

दिया

5

दिन

फिल्म

की

शूटिग

करूँगा

, 45

दिन

दुरदर्शन

काली

सीरीज

की।

लेकिन

जब

इन

दिनों

मैं

काफी

फिल्में

कर

रहा

हूँ

अतः

उनमें

बिजी

हो

गया

हूँ।

शायद तुम्हारे लोकप्रिय सीरियल के कारण ही लोगों का ध्यान एकाएक तुम पर चला गया हो क्योंकि इसमें तो मीन मेख नहीं हो सकती कि उस प्रायोजित कार्यक्रम से तुम्हारी लोकप्रियता में इजाफा ही हुआ है?

इससे

तो

इंकार

नहीं

किया

जा

सकता

कि

लोकप्रियता

में

तो

वास्तव

में

बहुत

अधिक

इजाफा

हुआ

ही

है।

एक

फिल्म

सुपरहिट

होती

है

तो

ले

देकर

अधिक

से

अधिक

करोड़

आदमी

उसे

देख

सकते

हैं।

किन्तु

किसी

सीरिय्रल

में

रहे

हैं

तो

हफ्ते

-

दर

-

हफ्ते

कम

से

कम

5

करोड़

लोग

हमारा

काम

देख

पाते

हैं।

जबकि

एक

हिट

फिल्म

को

भी

दोबारा

बहुत

कम

यानि

कि

रेयर

लोग

ही

देखते

हैं

किन्तु

सीरियल

पर

तो

हर

हफ्ते

कलाकार

को

लोग

देखते

हैं

बार

बार

,

चूँकि

उसका

हर

ऐपिस्रोड

दुसरे

से

भिन्न

होता

है

तो

कलाकार

के

काम

में

भी

अगले

हफ्ते

भिन्

नता

होती

है।

जब

तक

वह

सीरियल

चलता

है

तब

तक

लगातार

हर

हफ्ते

उन्हीं

कलाकारों

को

लोग

बार

बार

देखते

हैं

तो

लोकप्रियता

में

भी

उसी

तादाद

में

इजाफा

होता

है।

मैं वही कर रहा हूँ, जो मैं करने आया था- राकेश बेदी

क्या कोई दूसरे और सीरियल भी कर रहे हो?

फिलहाल

तो

नहीं

कर

रहा

हूँ

....

क्यों ? जबकि इन ऐसे कार्यक्रमों की तो आने वाले दिनों में बाढ़ आने वाली है.....! और फिर लोकप्रियता भुनाने का भी यह सुनहरी मौका है

अगर

आप

किसी

सीरियल

में

मेन

एक्टर

नहीं

हैं

तो

आपको

नहीं

करना

चाहिए

,

एक

एपिसोड

में

आकर

अगर

आप

गुल

हो

जाते

हैं

तो

कोई

आपका

नोटिस

नहीं

लेगा

और

अगर

आप

दो

तीन

सीरियलस्

में

एक

साथ

काम

करेंगे

तो

आप

खुद

तो

कंफ्यूज

होंगे

ही

और

लोग

भी

कंफ्यूज

हो

जायेंगे।

इसलिए

बेहतर

है

कि

एक

समय

में

सिर्फ

एक

ही

में

काम

करें

तो

उससे

एक्टर

के

रूप

में

आपकी

इमेज

बढ़ेगी

ही

,

कम

नहीं

होगी।

तभी धड़ाधड़ फिल्में करने का अवकाश मिल गया है

धड़ाधड़

मतलब

?

बस

कर

रहा

हूँ।

जैसे

जैसे

मुझे

फिल्में

मिलती

जा

रही

है।

“तो किसी फिल्म की किसी भूमिका में कुछ नया और विशेष करके भी दिखा रहे हो या वही एक रूटीन वाला काम मिल रहा है जिसे हम हास्य का नाम भी दे सकते हैं।

हास्य

के

भी

अलग

अलग

और

हजारों

रूप

हैं

भाई

साहब।

वैसे

विशेष

कहें

तो

दो

-

तीन

ऐसी

फिल्में

कर

रहा

हूँ

जिनमें

मेरी

एक्स्ट्रा

आर्डिनेरी

भूमिकाएं

हैं।

जिन्हें

करने

में

मजा

रहा

है

कसकर।

उसमें

से

साउथ

की

भी

फिल्में

हैं।

अगले

महीने

शुरू

हो

रही

है

जिसमें

मेरे

बहुत

ही इंटरेस्टिंग

कैरेक्टर्स

हैं

तो क्‍या उन अच्छे कैरेक्टर्स का थोड़ा जायका हमारे पाठकों को नहीं बताओगे?

अब

जैसे

कि

एक

फिल्म

में

,

मैं

हीरोइन

का

भाई

बना

हूँ

,

मेरी

बहन

की

शादी

हीरो

से

हो

चुकी

है

किन्तु

हीरो

तो आलरेडी

शादीशुदा

है

जिसका

हमें

बिल्कुल

पता

नहीं

है।

उसकी

पूर्व

पत्नी

जो

गाॅव

की

लड़की

है

शहर

में

आकर

हमारे

ही

घर

में

नौकरी

करने

के

बहाने

आकर

रहने

लगती

है।

मैं

उस

पर

लट्टू

हो

जाता

हूँ

और

उसके

आसपास

घूमने

लगता

हूँ।

प्यार

का

इजहार

करने

लगता

हूँ।

प्यार

का

इजहार

करने

लगता

हूँ।

हीरो

की

सिट्टी

-

पिट्टी

गुम।

वह

मना

तो

करता

है

मुझे

लेकिन

प्रगट

नहीं

कर

सकता

कि

वह

उसकी

पत्नी

है।

मैं

लाईन

मारना

नहीं

छोड़ता।

दिन

-

-

दिन

उसके

ओर

करीब

होता

चला

जाता

हूँ

हास्य

के

ऐसे

ऐसे

पंचेज

है

क्या

बताऊँ।

आधा

राम

आधा

रावण

में

मैं

एक

स्टेज

एक्टर

की

भूमिका

में

हूँ।

गरीब

आदमी

हूँ।

इंधर

हमारा

पड़ोसी

ओम

पुरी

जो

शादी

शुदा

है

और

जेल

तोड़कर

भागा

है

अपनी

पत्नी

की

हत्या

करने

वह

मेरे

घर

में

घुस

जाता

है

और

रूगन

प्वाइंटश्

पर

जबरन

मेरे

घर

में

रहने

लगता

हैं।

किस

तरह

वह

उस

बंदूक

के

जरिये

मुझे

नचाता

है

,

बाँध

देता

है

और

मनमानी

करवाता

है

ओह

!

वह

वही

प्लान

बनाता

है

मेरे

जरिये

और

मैं

किस

तरह

जान

पर

खेलकर

पुलिस

तक

पहुँचता

हूँ

मजा

गया

भाई।

एक

अन्य

फिल्म

में

मैं

एक

रईस

घर

का

बेटां

हूँ

,

पिता

और

दो

भाई

हैं

मेरें।

फेमिली

का

तंगडा

बिजनेस

है

लेकिन

मैं

उसे

और

ज्यादा

बढ़ाने

के

निमित

से

अपने

पिता

का

खून

कर

देता

हूँ

और

अंत

तक

मुझ

पर

कोई

शक

नहीं

करता

कि

मैं

ऐसा

करता

हूँ।

कारण

इतना

मासूम

इतना

प्यारा

मुँह

है

मेरा

कि

किसी

को

शक

हो

ही

नहीं

सकता।

वास्तव

में

ये

चरित्र

करने

में

मुझे

बहुत

आनंद

आया।

क्या इन दो फिल्मों के नाम बताओगे?

नाम

रखे

गये

हों

तो

बताऊँ

-

हाँ

,

फिल्में

फ्लोर

पर

चली

गई

हैं

नामकरण

फिलहाल

बाकी

है

वह

होगा

तो

आपको

सूचना

कर

दूँगा।

मैं वही कर रहा हूँ, जो मैं करने आया था- राकेश बेदी

अब तो तुम्हें फिल्म इंडस्ट्री का काफी अनुभव हो गया है, एक लंबी यात्रा तय कर ली है तुमने, तो जिस तरह का काम करते आ रहे हो, उससे तुम्हें संतोष मिला है?

देखिये

सृष्टि

का

नियम

है

कि

संसार

में

पूर्ण

कोई

नहीं

होता

,

सभी

यहाँ

अधूरे

हैं।

उसी

तरह

यह

भी

नियम

है

कि

हर

आदमी

को

तो

हर

चीज

मिलती

है

उसकी

हर

इच्छा

की

पूर्ति

ही

होती

है।

मैंने

जब

फिल्मी

दुनिया

में

प्रवेश

किया

था

तो

उससे

पहले

एक

यही

ख्वाहिश

थी

मेरे

मन

में

कि

अच्छी

किस्म

का

कुछ

अच्छा

काम

करके

नाम

कमाऊँगा।

यहाँ

आने

से

पहले

भी

तो

मेरी

यह

तमन्ना

थी

कि

मैं

वहाँ

जाकर

हीरो

बनूगां।

हाँ

,

हीरो

के

अलावा

जों

भी

रोल

मिलेंगें

-

चाहे

वे

चरित्र

रोल्स

हों

या

कॉमेडी

के

या

अन्य

स्तर

के

मैं

अपना

पूरा

मन

तन

लगाकर

आनंद

लेते

हुये

उन्हें

अंजाम

दूँगा

और

अपने

तंरीके

से

दूँगा

,

जितनी

भी

मुझ

में

क्षमता

होगी।

कॉमेडी

की

और

मेरे

मन

में

शुरू

से

ही

रूझान

था

यानि

कि

सदा

से

ही

वह

मेरा

प्रिय

विषय

रहा

है

मन

का।

तो

यहाँ

आने

के

बाद

तब

से

लेकर

अब

तक

मैं

-

वही

कर

रहा

हूँ

जो

मैं

करने

आया

था।

अब

आप

ही

इस

-

बाबत

अंदाजा

लगा

लीजिये

कि

मुझे

संतोष

मिला

है

या

नहीं

?

असंतोष

तो

मुझे

तब

होता

जब

मैं

ऊँचे

ऊँचे

ख्वाब

देखता

हुआ

आता

और

वे

ख्याब

बिखरते।

हमने

जो

सपना

देखा

,

वह

सपना

जैसा

देखा

था

साकार

होता

महसूस

होता

है

तो

आदमी

संतुष्ट

ही

होगा।

वैसे अन्य हास्य अभिनेताओं को तो काफी शिकायत है, वे कहते हैं कि हमारे यहाँ अच्छे हास्य लेखकों का अभाव है अतः जो वे लिख देते हैं, वही करें तो हमारा कुछ काम नहीं जम-पायेगा तो निर्देशक हमें छूट दे देता है कि अपने तरफ से जितना भी बढ़िया कर सकते हो कर दो। सो हमें ओवर करना पड़ता है, हम जो कुछ करते हैं, अपनी ओर से करते हैं, इस बात पर तुम्हारा अपना क्या व्यू है?

मेरा

विचार

तो

सिर्फ

इतना

सा

ही

है

कि

मैं

इस

बात

में

विश्वास

करता

हूँ

कि

फिल्म

एक

ऐसा

मीडिया

है

कि

इसमें

एक

एक्टर

,

एक

डायरेक्टर

या

कोई

भी

टेक्नीशियंस

किसी

एक

हद

तक

ही

अपना

निजी

कंट्रीव्यूसन

दे

सकता

है,

स्क्रिप्ट

में

लिखे

से

अलग

हट

कर।

उस

सीमा

से

अलग

-

थलक

होकर

अगर

कोई

भी

इंसान

फिर

वह

चाहे

जो

अगर

स्क्रिप्ट

से

ज्यादा

अलग

हटना

चाहेगा

या

उससे

ऊपर

उठने

की

बेकाम

कोशिश

करेगा

तो

फिर

उसमें

(

फिल्म

में

)

पेच

जायेगा।

पेच

से

मेरा

मतलब

है

कि

जगह

जगह

उसके

लिक

के

वेट

में

फर्क

जायेगा।

कोई

सीन

बेहतर

भी

बन

सकता

है

तो

दूसरा

महा

थर्ड

क्लास

.

भी

,

और

कोई

सीन

.

पेबन्द

की

तरह

भी

महसूस

हो

सकता

है।

यहाँ

मनमाना

कुछ

नहीं

चलता

है।

यह

एक

टीम

वर्क

है

और

वह

टीम

वर्क

स्क्रिप्ट

के

आंधार

पर

ही

सारे

काम

को

अंजाम

देता

है।

इस

विधा

में

तो

हम

सभी

लोग

सिर्फ

इसके

पार्ट

बनकर

ही

चलें

तो

ही

उसका

उत्तर

बढ़िया

या

उत्तम

मिल

सकता

हैं।

यह

एक

सत्य

बात

हैं

कि

बढ़िया

स्क्रिप्ट

हो

तभी

डायरेक्टर

एक

बढ़िया

शॉट

ले

सकता

है।

और

कोई

कलाकार

उत्तम

से

उत्तम

काम

कर

सकता

है।

सो

किसी

भी

फिल्म

के

लिये

बेढ़ियां

स्क्रिप्ट

होना।

निहायत

जरूरी

है।

अगर

वह

उत्तम

हो

तो

मेरा

दावा

है

कि

संसार

का

कोई

एक्टर

,

कोई

डायरेक्टर

,

चल

नहीं

सकता।

स्क्रिप्ट

ही

वह

सीढ़ी

है

जिसके

जरिये

कोई

कलाकार

,

कोई

डायरेक्टर

कोई

टेक्नीशियंस

कामयाबी

के

सोपान

-

पार

करता

है।

काफी

दिनों

से

,

यानि

कि

एक

लंबे

अर्सेकें

बाद

हम

लोग

मिले

थे

और

मुझे

राकेश

को

ढूँढने

के

लिये

मशक्कत

और

भागदौड़

भी

ज्यादा

करनी

पड़ी

थी

इसलिये

कुछ

बातें

हमने

औपचारिक

कीं

-

यानि

कि

आपके

सामने

पेश

की

जा

सके

ऐसी

और

कुछ

बातें

अनौपचारिक

भी

जिनका

ताल्लुक

सिर्फ

हमीं

लोगों

से

रहा

जिसे

मैं

आपके

सामने

प्रगट

नहीं

कर

सकता।

हमारी

यह

मुलाकात

एक

शूटिंग

के

दौरान

ही

हुई

थी।

बंगले

के

भीतर

शालू

(

पिछले

जमाने

की

बेबी

शाल

)

और

दीपिका

के

शॉट

चल

रहे

थे

और

हम

दोनों

उन्हीं

कक्षों

के

बाहरी

भाग

में

एक

एकांत

स्थान ढूंढकर

एक

कोने

जैसे

हिस्से

में

बैठ

गुफ्तगू

यानि

कि

गुसर

-

फुसर

-

कहें

कि

कई

देर

तक

गुटरगूँ

करते

रहे।

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