मैने हमेशा पूरी ईमानदारी व लगन से हर काम को अंजाम दिया-गजेंद्र चैहान

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By Mayapuri Desk
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मैने हमेशा पूरी ईमानदारी व लगन से हर काम को अंजाम दिया-गजेंद्र चैहान

तेंतिस वर्ष पहले दूरदर्शन पर प्रसारित सीरियल “महाभारत” में युधिष्ठिर का किरदार निभाकर रातों रात षोहरत की बुलंदियों को छू लेने वाले अभिनेता गजेंद्र चैहान पिछले 39 वर्षों से फिल्म व टीवी जगत में अपना परचम लहराते आ रहे हैं। वह सामाजिक कार्यो में भी बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं। गजेंद्र चैहान लगभग सवा वर्ष तक पुणे स्थित “फिल्म एंड टेलीवीजन इंस्टीट्यूट आफ इंडिया” के चेअरमैन भी रहे। इन दिनों वह “स्टार प्लस” पर प्रसारित हो रहे सीरियल “गुम है किसी के प्यार में” में मेडिकल कालेज के डीन के किरदार में नजर आ रहे हैं।

प्रस्तुत है हाल ही में गजेंद्र चैहान से उनके घर पर हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंष..

आप अपने अब तक के 39 वर्ष के अभिनय कैरियर को किस तरह से देखते हैं?

मैंने 1982 में अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा था। इस तरह आज 39 वर्ष का मेरा कैरियर हो गया है। मुझे लगता है कि कलाकार कभी भी संतुष्ट नही होता है। उसे चाहे जितने अधिक विविधतापूर्ण किरदार निभाने के अवसर मिल जाए, उसके अंदर की अभिनय की भूख उतनी ही बढ़ती जाती है। वह सदैव कुछ नया करना चाहता है। जबकि एक मुकाम के बाद कलाकार को लगना चाहिए कि अब जो मिले, वह अच्छा मिले और मैं उसे अच्छे से निभा सकॅूं। 39 वर्ष के कैरियर में काफी काम करने के बावजूद आज भी कुछ ऐसे किरदार रह गए हैं, जिन्हे मैं नहीं निभा पाया। उन किरदारों को निभाने की इच्छा आज भी मेरे मन में है। मैं मानता हॅूं कि कलाकार के तौर पर मेरी इन इच्छाओं का कोई अंत नही है। लेकिन मैं समझता हॅूं कि ईष्वर ने मुझे दो गुना नही बल्कि दस गुना अधिक काम करने का अवसर दिया है। जब मैं मुंबई आया था, उस वक्त मेरी सोच थी कि मैं एक लाख रूपए कमा कर उसे बैंक में रख दॅंूगा,तो मेरा गुजारा अच्छे से होता रहेगा और फिर मैं संघर्ष करता रहूँगा।

तो फिर मुंबई में अभिनय कैरियर किस तरह से आगे बढ़ा था?

जहां तक कैरियर का सवाल है, तो मेरा यहां कोई गॉड फादर नहीं था। मेरी सिफारिष करने वाला कोई नहीं था। तो जो लड़ाई लड़ी, अपने आप से लड़ी। फिर चाहे वह रहने की समस्या हो, खाने की समस्या हो, खुद को मेनटेन करने की समस्या हो। मैं गांव से हिम्मत कर मुंबई के लिए रुख किया। रोषन तनेजा से मैने अभिनय का प्रषिक्षण लिया। उन दिनों पुणे फिल्म संस्थान में अभिनय की ट्रेनिंग नही होती थी। मेरे साथ गोविंदा, आदित्य पंचोली,चंकी पांडे,साहिल चड्ढा,संगीतकार निखिल विनय भी थे। अभिनय का एक वर्ष का डिप्लोमा करने के बाद हमें एक बहुत बड़ी दुनिया दिखायी दी। मैं अपनी राह कदम दर कदम सुलझाता गया और सफल भी होता गया। फिर बी आर चोपड़ा के यहां वह भी ‘महाभारत’ जैसे सीरियल में अभिनय करना बहुत बड़ी बात थी। जब ‘महाभारत’ बनना शुरू हुआ था, तो किसी को अहसास नही था कि यह क्या बनेगा? लेकिन इस सीरियल की सफलता का आलम यह रहा कि आज तेतिंस वर्ष बाद भी हम इसकी चर्चा कर रहे हैं, लोग इसे आज भी देखना पसंद करते हैं। जब एक वर्ष पहले कोरोना महामारी के चलते पहली बार लॉक डाउन लगा था, तब पूरे देश ने पुनः इसे दूरदर्शन पर देखा। उसके बाद इसे कुछ निजी चैनलों ने भी अपने यहां दिखाया और तब भी लोगों ने खूब देखा। इसने कई इतिहास रचे। इसकी मूल वजह यह है कि हमारी सभ्यता व संस्कृति हमारी रंगों में है।

मैने हमेशा पूरी ईमानदारी व लगन से हर काम को अंजाम दिया-गजेंद्र चैहान

किस तरह की समस्याओं का समाना करना पड़ा था और उनसे कैसे उबरे?

कलाकार के लिए सबसे अधिक मुष्किल समय ‘खाली वक्त’ होता है। यह खाली समय उसे डिप्रेषन में, फ्रस्टेशन में ले जाता है। मुझे बहुत शुरू में ही समझ में आ गया था कि कलाकार के पास यह जो ‘खाली वक्त’ होता है, उसे कैसे व्यतीत करना चाहिए। मैं अपने आपको जिम, संगीत सहित दूसरी गतिविधियों में खुद को समेटता चला गया। तो पैसे कम या ज्यादा भले मिलें, मगर जब तक आप खुद को व्यस्त रखते हैं, तब तक आप यहां खुद को मेनटेन रख सकते हैं। दूसरी बात हर कलाकार के साथ होता है कि जब तक वह संघर्ष करने के लिए घर से पैसा मंगाता रहता है, तब तक घर वालों का दबाव बना रहता है कि और कितने वक्त तक यह चलेगा? इसलिए मुंबई पहुँचते ही मैने घर से पैसा मंगाने की बजाय पार्ट टाइम नौकरी कर ली। मैं शाम को सात बजे से दस बजे तक नौकरी किया करता था, जिससे मुझे इतना पैसा मिल जाता था कि मेरे हर माह का खर्च निकल जाता था और मैं दिन भर अभिनेता बनने के लिए संघर्ष किया करता था। धीरे धीरे विज्ञापन फिल्में मिलने लगी। फिर कुछ सीरियल मिलने लगे। तो पार्ट टाइम जाॅब मेेरे संघर्ष का संबल बना। इसके अलावा मेरी सोच यह रही है कि इंसान को अपने खर्च पर बहुत ज्यादा अंकुष रखना चाहिए, कम से कम संघर्ष के दौरान तो काफी हद तक। मुसीबत के समय सबसे पहले पैसा ही काम आता है। मैने पैसे को बर्बाद करने की बजाय उसे बचाने का प्रयास किया। यह मेेरे लिए सहारा बना। मैं लगातार काम करता रहा। मैने किसी भी काम को छोटा या बड़ा नहीं माना। मेरी सोच यह रही है कि काम अच्छा या बुरा होता है। यदि मुझे छोटा किरदार मिला, तो मैने उसे भी अपनी पूरी क्षमता के साथ निभाया। मैने हमेशा दो सीन वाले किरदार को भी इतने बेहतरीन तरीके से निभाने का प्रयास किया कि वह युनिट के लोगों को याद रहे और दर्षक देखे, तो उसे भी याद रह जाए। फिल्म इंडस्ट्री में कहा जाता है कि जब तक ‘रिपीट वैल्यू’ नही होगी, तब तक आगे नही बढ़ सकते। इस इंडस्ट्री में ‘रिपीट वैल्यू’ बनाना बहुत जरुरी है। जब आप नए हैं, उस वक्त जरुरी होता है कि आपको काम मिले, तभी तो आप ‘रिपीट वैल्यू’ को जन्म दे सकेंगें। मैने हमेशा पूरी इमानदारी व लगन के साथ काम किया।

आप हमेशा व्यस्त भी रहे?

जी हाँ! मैने 39 वर्ष के कैरियर में कभी भी किसी से भी पैसे के लिए झगड़ा नही किया। कमाल की बात यह है कि मैं कलाकारों की संस्था ‘सिंटा’ में डिस्प्यूट कमेटी का चेअर मैन रहा हॅूं। मैने दूसरों की समस्याओं का निवारण किया। मगर मेरा कभी किसी भी निर्माता से कोई झगड़ा या कोई समस्या नही हुई। मैं इसी सकारात्मक एटीट्यूड के साथ चला और इसमें मुझे सफलता मिलती चली गयी। मैं पूरे होशो हवास व दावे के साथ कह रहा रहा हॅूं कि 39 वर्ष के कैरियर में एक भी महिना ऐसा नही गया, जिस माह में मुझे काम करने का अवसर न मिला हो। मेरे जैसे कलाकार के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। एक गांव का लड़का मायानगरी मुंबई में जब आता है, तो उसकी समझ में ही नहीं आता कि छोर कहाँ है? कहाँ से शुरू करना है और अंत कहां है?

मैंने ठहराव व योजनाबद्ध तरीके से कैरियर की शुरूआत की, जैसे जैसे काम मिलता चला गया, उसे संवारने की कोषिष करता गया। तभी तो 39 वर्ष मुझे यहाँ तक लेकर आए। मुझे जो भी मिला, मैं उसे सलाम करता हॅूं। मेरी एक पहचान है। एक कलाकार के रूप में पहचान है। ईष्वर का धन्यवाद कि मैं सकून की जिंदगी जी रहा हॅूं।

आपने रंगमंच,टीवी फिल्म तीनों माध्यमों पर काम किया.आपको किस माध्यम में सर्वाधिक सकून मिला?

सच कहॅूं तो कलाकार को सर्वाधिक सकून तब मिलता है, जब उसे उसके मुताबिक किरदार निभाने का अवसर मिल जाए। मैने हेमा मालिनी के साथ उनके बैले में पूरे 19 वर्ष तक काम किया। उसमें अलग अलग किरदार निभाए। कभी दक्ष प्रजापति, कभी दषरथ, कभी भोज राज का किरदार निभाया। मैने रंगमंच पर ‘यात्री ग्रुप’ के साथ छह वर्ष काम करते हुए कई अलग तरह के किरदार निभाए। जब मैने टीवी सीरियल की दुनिया में कदम रखा, तो मेरे पास सीरियलों की लाइन लग गयी। सिर्फ ‘महाभारत’ के बाद करीबन आठ माह तक मेरे पास काम नहीं था। इन आठ माह में भी कुछ काम मिला, पर मनमाफिक नही मिला। उसके बाद मेरे पास बहुत तेजी से काम आया। इतना काम मुझे मिला कि मैने हर दिन तीन तीन षिफ्ट में काम किया। वह भी टीवी पर। टीवी पर मिली सफलता के बाद लोगो ने मुझे फिल्मों से जोड़ा।

मैने हमेशा पूरी ईमानदारी व लगन से हर काम को अंजाम दिया-गजेंद्र चैहान

एक कलाकार की सफलता की सबसे बड़ी कुंजी?

एक कलाकार की जिंदगी में दो चीजें बहुत अहम होती हैं। एक उसकी प्र्रतिभा। दूसरा उसका व्यवहार। अगर कलाकार अपने व्यवहार को सही रखे, तो वह जिंदगी के किसी भी मोड़ पर हो, वह संकट में फंस जाए, उसका बुरा वक्त आ जाए, तब भी उसका व्यवहार उसे आगे ले जाता है। कलाकार के व्यवहार के अनुसार उसे काम मिलता रहता है। कलाकार का व्यवहार ही उसकी ‘रिपीट वैल्यू’ को बढ़ाने में मदद करता है। मुझे यह ‘गुरू मंत्र’ षषिकपूर साहब ने मुझे दिया था। उन्होने मुझसे कहा था कि इस इंडस्ट्री में सफलता के लिए अभिनय प्रतिभा के साथ ही अच्छा व्यवहार अत्यावष्क है। उन्होने कहा था कि ‘व्यवहार आपके वष में है, यदि अपने व्यवहार को सही रखोगे तो कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखोगे।’ दूसरी बात षषि कपूर साहब ने मुझसे कही थी कि ‘आप अपनी रिपीट वैल्यू हमेशा बनाकर रखें।’ यहां गिने चुने फिल्म निर्माता हैं, वही आपको बार बार अपनी फिल्म में षामिल करेंगें। यदि एक ने काम देना बंद किया,तो धीरे धीरे काम मिलना बंद हो जाएगा। इसके अलावा मैने अपनी तरफ से इस तरह की कोई बंदिष नहीं  रखी कि मैं फलां उम्र का किरदार नहीं निभाउंगा। मुझे जिस उम्र का भी किरदार मिला, मैने उसे निभाया। बाकी फैसला तो हमेशा जनता यानी कि दर्षकों के ही हाथ में रहा। हमारा काम मेहनत व लगन से अच्छा काम कर दर्शकों तक पहुंचना ही रहा।

पर जब आप सीरियल में एक ही किरदार लंबे समय तक निभाते हैं, तो वह मोनोटोनस नहीं हो जाता?

अगर आप एक ही सीरियल कर रहे हैं, तब तो मोनोटोनस होना ही है। लेकिन अगर आप तीन चार सीरियल कर रहे हैं और हर जगह अलग अलग किरदार कर रहे हैं, तब तो मोनोटोनस होने से बच जाते हैं। मगर यदि आप पिता ही बने हैं, और एक से तीन वर्ष तक वही किरदार निभाएंगे, तब तो मोनोटोनस होना ही है। आपका पैटर्न दर्षक के दिमाग में बस जाएगा और फिर दर्शक आपको उसी अंदाज में देखना चाहेंगे। कलाकार को चाहिए कि वह अपनी ईमेज बनाए और फिर उस ईमेज को तोड़ता रहे। यह अलग बात है कि मेरी ‘महाभारत’ की युधिष्ठिर की ईमेज आज तक नही टूटी। इसकी वजह यह रही कि ‘लार्जर देन लाइफ’बहुत कम किरदार मिलते हैं। देखिए, हिमालय से उंचा कुछ नहीं हो सकता। मसलन- अमजद खान ने लार्जर देन लाइफ गब्बर सिंह का किरदार निभाया और पूरी जिंदगी गब्बर सिंह ही रह गए।

मैं आपको तीन उदाहरण देना चाहूँगा। गांव में जब नारी यानी कि बहू बेटियां तैयार हो रही होती हैं और देर हो रही हो, तो पति कहता है क्या हेमा मालिनी बनना है तुझे? दूसरा जब कोई इंसान ताकत दिखाता है तो लेाग कहते है-’दारा सिंह बनेगा क्या?’ और तीसरा गांव में लोग अक्सर कहते हैं- ‘तू भी युधिष्ठिर हो गया।‘ तो ऐसे किरदार का मेरे नाम के संग जुड़ना, मेरे लिए सौभाग्य की बात है। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि ‘महाभारत’ मैथोलाजी नही बल्कि इतिहास है, जिसे मुगल षासकों और अंग्रेज प्रशंसकों ने यहां के सिस्टम, सभ्यता व संस्कृति को तहस नहस करने के लिए इतिहास को मिथ या धार्मिक की संज्ञा दे दी। अब जब आर्केलाजी सर्वे आफ इंडिया सर्वे करने के दौरान खुदाई कर रहा है, तो उसे अवषेष मिल रहे हैं। यानी कि यह इतिहास है। लेकिन हमारा इतिहास इतना गूढ़ है कि वह उसे खत्म नही कर पाए। उस ऐतिहासिक युधिष्ठिर के किरदार को निभाने का अवसर मुझे मिला।

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अब तक आपने सैकड़ों किरदार निभा लिए। कोई ऐसा किरदार रहा, जिसने आपकी जिंदगी को प्रभावित किया हो?

मैं तो इसके विरोध में बात करता हूँ। मैं हमेशा कहता हॅूं किसी भी किरदार का असर कलाकार की निजी जिंदगी पर नहीं पड़ना चाहिए। यदि ऐसा होता है, तो इसके मायने वह कमजोर कलाकार है। क्योंकि कलाकार के तौर पर हम जब तक सेट पर रहते हैं, तब तक उस किरदार में रहते हैं, उस किरदार को अपने साथ घर पर लेकर नही आते। मुझे लगता है कि ‘ऑन और ऑफ’ का हमारा जो ‘मैथड एक्टिंग’ का सिस्टम है, उसी  को फ़ॉलो करना चाहिए। मैं तो ‘ऑन और आफ’ के मैथड एक्टिंग सिस्टम को ही फ़ॉलो करता हॅूं। यदि किसी किरदार को निभाते हुए उसकी आदतें हमारे अंदर आ जाती हैं, तो वह भी गलत है। अरे भाई, हम विलेन का किरदार निभाएंगे, तो विलेन की आदतें घर लेकर नहीं आएंगे न? मेरी राय में किरदार को आत्मसात कर उसे पूरी गहराई में जाकर निभाते हुए दर्षकों तक पहुँचाना ही सही व उत्कृष्ट अभिनय है। वरना आप एक ही किरदार में पूरी जिंदगी घुसे रहते हैं। ऐसा कई कलाकारों के साथ होता है। हमारी फिल्म इंडस्टी में कुछ कलाकार हैं, जो कि उसी किरदार को लेकर आज तक जी रहे हैं। मैं इसके विपरीत हॅूं। मैं सेट पर उस किरदार में रहता हॅूं और अपने घर पहुँचते ही गजेंद्र चैहान बन जाता हॅूं। जब तक मैं सेट पर हॅूं, तब तक मेरे संवादांे में, मेरे हाव भाव में वही किरदार दिखना चाहिए। कलाकार के तौर पर मेरी सफलता यही है कि मैं उस किरदार को कितने करीब तक ले जा सकता हॅूं।

मुझे अच्छी तरह से याद है मैने गुजराती व मारवाड़ी दो भाषाओं में बनी निर्देषक षांतिलाल सोनी की फिल्म “बाबा रामदेव” की थी। जब मैं सेट पर मेकअप कर व पोशाक पहनकर तैयार होकर पहुँचता था, तब निर्देषक शांतिलाल सोनी भी मेरे पैर छूते थे। वह कहते थे कि ‘जब आप गेटअप में होते हैं, तो मुझे लगता है कि बाबा ऐसे ही रहे होंगे। मेरी नजरों में मेकअप व पोशाक पहनना कलाकार के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। मेकअप व पोशाक सही हो तो कलाकार का पचास प्रतिशत काम अपने आप हो जाता है। बाकी संवाद और बॉडी लैंगवेज आपको क्रिएट करनी पड़ेगी। मुझे अच्छी तरह से याद है, डॉ राही मासूम रजा कहा करते थे कि “यदि कोई कलाकार लेखक के लिखे हुए सत्तर प्रतिशत तक पहुँच जाए, तो वह अल्टीमेट कलाकार है। “मुझे लगता है कि हम वहां तक पहुॅचने की कोषिष करते हैं।

मैने हमेशा पूरी ईमानदारी व लगन से हर काम को अंजाम दिया-गजेंद्र चैहान

सीरियलों का जमाना तो सही मायनों में “हम लोग” से शुरू हुआ था। उस वक्त जो उम्मीदें जगी थी, क्या पिछले पांच सात वर्षों में टीवी सीरियलों की स्थिति सही कही जा सकती है?

जी नही..बहुत खराब स्थिति है। और इसकी मूल वजह यह है कि लेखन में कमी है। देखिए, सिनेमा का जन्म कहां से होता है? सिनेमा का जन्म वहां से शुरू होता है, जब पेन कागज को छूती है। यानी कि जब कलम चलनी शुरू होती है, वहीं से सिनेमा का जन्म होता है। कागज पर ही कहानी से लेकर सारी तकनीकी चीज आती है। कैमरामैन, निर्देषक, कलाकार वगैरह सब होते हैं। मगर सिनेमा का जन्म होता है, लेखक की लेखनी के कागज को छूने से। आज कल टीवी में जो कुछ नजर आता है, वह यह कि बहुत कुछ भरमार हो गयी है। हर चैनल पर डेली सोप ही प्रसारित हो रहे हैं। मैथोलाजिकल भी डेली सोप बन गए हैं। देखिए, जिसे मैथोलाॅजी कहते हैं,उसे हर दिन नही परोसा जा सकता। मैथोलाजी सोच विचार वाला विषय है। इसे आप अपनी अंतर आत्मा से देखें और ग्रहण करें। जो चीजे अच्छी हैं,उन्हे ग्रहण करें, बाकी छोड़ दें.मैथोलाजी तो सबक सिखाने का माध्यम है। लेकिन आजकल ‘डेली बेसिस’ पर हर दिन परोसा जा रहा है, जिसका दर्षक ठीक से स्वाद भी नहीं ले पा रहा है। यदि दर्षक चार दिन न देख पाए, तो पांचवें दिन उसे अहसास ही नहीं होता कि उसने कुछ खो दिया यानी कि कुछ नहीं देख पाया। तो मुझे लगता है कि अभाव लेखनी में आया है। जब तक अच्छा विषय लिखा नहीं जाएगा, तब तक तकनीकी टीम कुछ नहीं कर सकती। यदि किरदार ठीक से परिभाषित नहीं होगा, ठीक से लिखा नहीं गया होगा, तो कलाकार क्या करेगा? जब मैं किसी किरदार को निभाने के लिए तैयार होता हॅूं, तो मैं उसकी परिभाषा पूछता हॅूं। कहानी में वह कहाँ पर किस तरह से आएगा, उसकी जानकारी मांगता हूं। मैं किरदार का कहानी में योगदान के बारे में भी जानकारी लेता हॅूं। तभी कलाकार सोचता है कि मैं इस किरदार को इस तरह से गढ़ सकता हॅूं। फिर काम करने में मजा आता है। आजकल हो यह रहा है कि सब कुछ फास्टफूड हो गया है। आप इसे इस तरह से देखें कि सिनेमा, उपन्यास है और टीवी सीरियल ,दैनिक अखबार हैं। मगर ‘महाभारत’ या ‘रामायण’ या ‘चाणक्य’ जैसे कुछ धारावाहिक ऐसे भी हैं, जो कि सदैव देखे जाएंगे। यह तेतिंस वर्ष बाद भी लोग देखना पसंद करते हैं। पर अब ऐसा एक भी टीवी सीरियल नही बन रहा। वर्तमान समय के किसी  भी सीरियल की रिपीट वैल्यू नही रह गयी है।

आपने कई किरदार निभा लिए.पर कोई ऐसा किरदार जिसे आप अभी भी निभाना चाहते हों?

एक किरदार है, जिसका आफर अब तक नही मिला। मैं किसी सीरियल या फिल्म में एक ऐसा किरदार निभाना चाहता हूँ, जिसमें सभी रंग हो। जैसा संजीव कुमार ने फिल्म “नया दिन नई रात” में किया था। वैसे मैने कष्मीर में एक सीरियल किया है, इसमें तेरह राजा हैं और सभी तेरह राजाओं के किरदार मैने ही निभाए हैं। मगर इसमें अलग अलग नौ रस नहीं थे।

मैने हमेशा पूरी ईमानदारी व लगन से हर काम को अंजाम दिया-गजेंद्र चैहान

आप ‘स्टार प्लसपर सीरियलगुम है किसी के प्यार में’कर रहे हैं?

जी हाॅ! इस सीरियल में मेडिकल कालेज की कहानी का जो हिस्सा है, उसमें मेरा किरदार है। मैं मेडिकल कालेज का डीन बना हॅूं। इस सीरियल की हीरोईन सई जोषी मेडिकल कालेज की छात्रा है। उसका दोस्त कालेज में प्रोफेसर हैं। सई की षादी पुलिस अफसर विराट से हुई है। यह नागपुर का मेडिकल कालेज है और लड़की गढ़चिरौली जैसे गांव से है। सई अब किसी हालात में फंसकर अब इस मेडिकल कालेज को छोड़कर वापस गढ़चिरोली जाना चाहती है। लेकिन डीन तो सकरात्मक सोच के साथ सई को जाने से रोकने का प्रयास करता है। डीन का मानना है कि डाक्टरी की पढ़ाई करने वाले छात्र व छात्रा देश की धरोहर हैं। वह सई से कहता है-”अगर मैने तुम जैसे ब्रिलिएंट छात्रा को खो दिया, तो इस देश का बहुत बड़ा नुकसान होगा।” क्योंकि इस मेडिकल कालेज से नामी गिरामी डाक्टर पढ़कर निकले हैं। मेडिकल कालेज का डीन सई के साथ खड़ा हुआ है। वह उसे सहयोग दे रहा है। जबकि सई ऐसे हालात में फंसी हुई है कि वह जाना चाहती है। इससे अधिक नही बताना चाहता.मेडिकल डीन का किरदार सुनकर मुझे लगा कि ऐसा किरदार निभाना चाहिए,जो छात्रों की बेहतर भविष्य की सोचता है।

आपके लिए मेडिकल कालेज के डीन का किरदार निभाना,तो काफी आसान हो रहा होगा, क्योंकि आप तो एफटीआईआई के चेअरमैन रह चुके हैं?

जी हाँ! सेट पर किसी ने कहा कि आप मेडिकल कालेज के डीन का किरदार निभा रहे हैं। तो मैने उससे कहा कि मैं तो ‘ फिल्म एंड टेलीवीजन इंस्टीट्यूट आफ इंडिया’ का चेअरमैन भी रहा हॅूं। वहां भी यही समस्या थी। आज मैं पहली बार आपसे ऑन रिकार्ड कह रहा हॅूं कि ‘एफटीआईआई’ में छात्रों से कोई समस्या नही थी। वहां के छात्र जो हंगामा कर रहे थे,वह वाजिब था। एक लड़का फिल्म संस्थान में तीन वर्ष की पढ़ाई पूरी करने जाता है, मगर दस वर्ष तक उसका डिप्लोमा पूरा नही होता, तो उसे परेषानी होगी या नही होगी? मगर उस तरफ किसी का ध्यान नही था। अब यह सारी समस्याएं प्रषासकीय कमी के चलते खड़ी र्हुइं। उनके डिप्लोमा पूरा कराने के लिए कोई था नही। स्टाफ कम था। सुविधाएं नही थी। जब तक आप विद्यार्थियों को कैमरा वगैरह देकर उन्हे डिप्लोमा फिल्म बनाने के लिए शूटिंग करने की सुविधाएं नहीं देंगे, तब तक वह बेचारा लटका हुआ है। मैने यह सारा काम महज तीन माह में किया। मैने सारा बकाया काम तीन माह में पूरा कर दिया और मुझ पर से दबाव खत्म हो गया। इसीलिए मैं कह रहा हॅंू कि स्टूडेंट से कोई समस्या नही थी। उनका हंगामा करना वाजिब था। आप उन्हें सुविधाएं नहीं दोगे, आप उनके साथ खड़े भी नही रहोगे। तो कैसे चलेगा। आप कालेज के डीन हों या प्रषासक हो या कालेज का रजिस्ट्र हो, उनके लिए विद्यार्थी तो बच्चे जैसे हैं। आप उनके साथ खड़े रहिए। आप उनकी समस्या को समझिए। उनकी समस्याओं को सुलझाने का प्रयास कीजिए।

मैं आपको एक दूसरा उदाहरण दॅूंगा। फिल्म संस्थान में 1960 से अब तक डिप्लोमा दिया जाता था। जबकि वहां प्रवेष डिग्री के बाद मिलता है। मैने चेअरमैन बनने के महज 27 दिन में डिप्लोमा को मास्टर डिग्री में बदलवाया। आज वहां बच्चों को डिप्लोमा नहीं, मास्टर डिग्री मिल रही है। किसी ने इस बात पर ध्यान ही नही दिया। जैसे हमारे देश के प्रधानमंत्री मोदी साहब कहते हैं कि, ‘पिछली सरकारें काम करती तो मुझे इतना काम करने की जरुरत ही न पड़ती। ‘इसी तरह फिल्म संस्थान के पिछले चेअरमैन यदि काम करते, तो इतना काम बकाया क्यों रहता? जबकि मुझसे पहले के चेअरमैन मुझसे काफी बड़े और सिनेमा के जानकार लोग थे। उनकी प्रतिभा व अनुभव पर उंगली नहीं उठायी जा सकती। पर मैंने ‘सिंटा’ में काम करते हुए एड्मिनिस्टेशं में काफी अनुभव हासिल किया है। मैंने वहां पर एक एक विद्यार्थी को बुलाया और उनकी समस्या को ध्यान से सुना, फिर निर्णय लिए। आप शायद यकीन न करें, मगर जब मेरा कार्यकाल खत्म हुआ, तो सत्रह विद्यार्थी मुझसे मिलने आए। मुझसे उन्होनें कहा कि,’मुझसे गलती हो गयी। ‘मैं यह बात ऑन रिकार्ड कह रहा हॅूं।

मैने हमेशा पूरी ईमानदारी व लगन से हर काम को अंजाम दिया-गजेंद्र चैहान

पर आपको नहीं लगता कि एक कलाकार सरकार की तरह प्रषासक का काम नही कर सकता अथवा प्रषासकीय कार्य की समझ नही होती?

मैं मानता हॅूं कि प्रशासकीय गुण अलग होता है। मैं 22 वर्ष तक ‘सिंटा’से जुड़ा रहा। मैं सिंटा का वाइस प्रेसीडेंट और प्रेसीडेंट भी रहा हॅूं। ‘डिस्प्यूट कमेटी’का चेअरमैन रहा हॅूं। मैने ‘सिंटा’ में  रहकर जमाने से चली आ रही समस्याओं को सुलझाया। ‘सिंटा’ का बजट बहुत कम होता था, जिसे मैंने कई गुणा बढ़ाया। सरकार से फ्लोंट/ भूखंड लेकर ‘सिंटा’ की नई इमारत खड़ी कर दी। यह होता है आपका कुछ काम करने के लिए कदम बढ़ाना। एडमिनिस्ट्रेषन हर इंसान के वष की बात नही है। मैं दिल्ली में ‘एम्स’से ‘डिप्लोमा इन क्लीनिकल टेक्नोलॉजी ग्राफी किया था। उसके बाद मैं डिप्लोमा इन हॉस्पिटल एड्मिनिस्टेशं कर रहा था,जिसे पूरा नही कर पाया, क्योंकि मुझे दिल्ली से मुंबई आना पड़ा। मुंबई में सिंटा का एड्मिनिस्टेशं मैं ही संभालता था। इसी तरह ‘एफटीआई’में एड्मिनिस्टेशं की कमी थी। अगर वहां पर एड्मिनिस्टेशं अच्छा होता, तो इस तरह की समस्याएं खड़ी न होती। इसलिए हो सकता है कि ‘एफटीआई’के चेअरमैन बनने वाले सिनेमा के जानकार लोग एडमिनिस्ट्रेषन में कमजोर हों। उस एडमिनिस्ट्रेषन को मैने बहुत अच्छे से संभाला, जबकि मुझे सिर्फ एक वर्ष दो माह ही काम करने का अवसर मिला। जब मैं ‘एफटीआई’ गया तो वहां पर स्थायी डीन नही था। रजिस्ट्रार नही था। निदेशक नही था। सात आठ दिन के अंदर मैने सारी नियुक्तियंा की। दो वर्ष से नए प्रवेष नहीं हो रहे थे। मैने सब ठीक कर फिल्म व टीवी का एक अगस्त 2016 को कोर्स शुरू किया। यह सब हर इंसान के वष की बात नही है, मगर जिसे आता है,उसे तो करना चाहिए। मेरे अंदर पूरा आत्म विष्वास था कि मुझे अवसर मिलेगा तो मैं सब कुछ सही कर लॅूंगा। लेकिन कुछ लोगों ने विरोध करने के लिए विरोध किया। राजनीति ज्यादा हो रही थी। क्योकि भाजपा की नई नई सरकार बनी थी। मोदी जी ने 26 मई 2014 को सरकार बनायी थी और नौ जून 2015 को मेरी नियुक्ति हुई थी। ऐसे में कुछ लोगो ने सरकार को दबाने की कोषिष की थी। पर सरकार को दबा नही पाए। क्योंकि यह सरकार सिंगल पार्टी की बहुमत वाली सरकार थी। अगर गठबंधन की सरकार होती, तो हालात कुछ और हो सकते थे। लेकिन मैने स्व.सुषमा स्वराज जी,श्री गड़करी जी,श्री राजनाथ जी,मोदी साहब सभी के साथ काफी काम किया। वह यह जानते थे कि यह काम कर सकता है। यह सभी बड़े लोग हैं। इन्हें  मुझ जैसे कलाकार को पद से हटाने में दस मिनट भी नही लगने थे। पर उन्हे मुझे पर भरोसा था। जब तक काम शुरू नहीं हुआ था, तब तक पूरी मीडिया मेरे पीछे पड़ी रही और जब काम शुरू हुआ, तब किसी ने मुझसे बात नही की। मैने मीडिया से कहा कि मुझसे बात करो, मैने जो काम किया है,वह एफटीआई जाकर देखकर आओ.,उसके बाद बात करो। लेकिन किसी ने बात नही की। लोगों ने कहा कि यह तो आपका प्रचार हो जाएगा। तो मीडिया ने भी मेरे अच्छे काम को लोगों के सामने नहीं रखा। सरकार के पास पूरा संदेश पहुंचा। जब ‘कैग’ की रिपोर्ट आयी, तो उसमें लिखा हुआ है कि एफटीआई में गजेंद्र चैहाण की चेअरमैनषिप में बेहतरीन काम हुआ है। यह बात मैं ऑन रिकार्ड कह रहा हॅूं। आप गूगल पर सर्च करके 2017 की ‘कैग’ की रिपोर्ट देख सकते हैं।

मैने हमेशा पूरी ईमानदारी व लगन से हर काम को अंजाम दिया-गजेंद्र चैहान

अब अभिनय के क्षेत्र में नया क्या कर रहे हैं?

मैं ‘कैंटिलो फिल्मस’ का एक बड़ा सीरियल “स्वराज” कर रहा हॅूं। यह कहानी 1498 से वास्को डिगामा के सामने से शुरू होती है, जिसमें मै मना विक्रम नामक हिंदू राजा का किरदार निभा रहा हॅूं। वास्कोडिगामा एक विषेष धर्म को इस देश में लाना चाहता था। पर राजा मना विक्रम ने ही उसे रोका। इसकी शूटिंग चल रही है। इसके अलावा कुछ फिल्में कर रहा हॅूं। मैने एक फिल्म में ष्यामा प्रसाद मुखर्जी का किरदार निभाया था, यह फिल्म प्रदर्षित हो चुकी है। एक फिल्म कर रहा हूँ-”एक और नरेंद्र”। इसकी कहानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर है, जिसमें इस बात की कहानी होगी कि मोदी साहब ने 2014 से 2024 तक क्या काम किया। इसके अलावा एक फिल्म ‘राजरिषि’ का निर्माण इस्काॅन वालों ने किया है, जिसका निर्देषन मिलन भौमिक ने किया है। इसकी शूटिंग पूरी हो चुकी है। इसके अलावा एक अन्य फिल्म जैन धर्म के विद्यासागर जी के उपर बनी है, जिसमें मैने मुख्य भूमिका निभायी है। दो बड़े सीरियल भी हैं, जिनके बारे में अभी मेरा बताना ठीक नही होगा। इसके अलावा मैने ‘श्री’चैनल के लिए ‘रामायण’ के संदुर कांड, अयोध्याकांड, लंका कांड सहित सात अध्याय की कमेंट्री की है। मतलब इस सीरियल का मैं सूत्रधार हॅूं। हाँ! मैने किसानों की समस्या पर आधारित एक फिल्म “मुआवजा” की शूटिंग भुज में पूरी की है। इसमें मैने गांव के चैधरी का किरदार निभाया है। इस फिल्म में रघुवीर यादव,राजपाल यादव, प्रीति झिंगियानी भी हैं।

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