अपनी काबीलियत के आधार पर आगे बढ़ना चाहती हूं- रिचा मीणा

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By Mayapuri Desk
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अपनी काबीलियत के आधार पर आगे बढ़ना चाहती हूं- रिचा मीणा

यदि इंसान रिजेक्शन सहने का सामर्थ्य रखता हो तो वह किसी भी क्षेत्र में सफलता की बुलंदियो को छू सकता है. इस मूल मंत्र के साथ अभिनेत्री रिचा मीणा ने आठ वर्ष पहले जयपुर से मुंबई महानगरी में कदम रखा था. तब से वह ‘रनिंग शादी डॉट कॉम’,‘मर्दानी’व‘ डैडी’जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुकी हैं. इन दिनों वह गजेंद्र शंकर श्रोत्रिय निर्देशित फिल्म‘‘कसाई’’को लेकर चर्चा में हैं. जिसके लिए उन्हें पुरस्कृत भी किया जा चुका है.

प्रस्तुत है रिचा मीणा से खास बातचीतः

आपकी पृष्ठभूमि क्या है? क्या आपकी परवरिश कला के माहौल में हुई है?

हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि बैंकिंग और खेती की है. कला का दूर-दूर तक कोई माहौल नहीं रहा. मगर राजस्थान के गांवों में नृत्य व संगीत का रंगारंग माहौल तो रहता ही है. शादी ब्याह सहित हर समारोह में नाच गाना होता है. मैं स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थी. कॉलेज में भी यह सिलसिला जारी रहा.

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आपकी शिक्षा कहां तक हुई है? क्या आप पहले से अभिनेत्री बनना चाहती थी?

मैंने बीकॉम तक की पढ़ाई की है. 12वीं की पढ़ाई के बाद मैंने थिएटर करना शुरू कर दिया था. जब मैं कॉलेज में दूसरे वर्ष की पढ़ाई कर रही थी, उसी वक्त मुझे नाटक में अभिनय करने का अवसर मिल गया था. कॉलेज की पढ़ाई खत्म होने तक मैं खुद को अभिनेत्री मान चुकी थी. मेरी समझ में आ गया था कि मुझे अभिनय के क्षेत्र में ही कैरियर बनाना है.

वैसे मैंने कुछ दूसरे क्षेत्रों में भी हाथ आजमाया था पर सफलता नहीं मिली थी. क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री को लेकर काफी कुछ सुन रखा था, तो मेरे अंदर एक डर भी था. पर अंततः मन के सारे डर भगाकर मैं अभिनय से जुड़ गयी.

किन नाटकों में अभिनय किया?

बहुत ज्यादा कुछ नहीं किया.मैंने कुछ चिल्ड्रेन थिएटर वर्कशॉप जरूर किए,जिससे मुझे काफी कुछ सीखने को मिला. मैंने ‘‘अबू हसन की आशाएं‘‘ जैसे कुछ नाटक किए थे. वर्कशॉप के बाद खुद की क्रिएशंस के कुछ छोटे नाटक किए थे. मैंने जयपुर ‘जवाहर कला केंद्र‘ के संदीप मदान के नेतृत्व में वर्कशॉप किए थे.

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जयपुर से मुंबई आना कब हुआ?

दिसंबर 2012 में मुंबई आयी थी. वास्तव में जयपुर में रहते हुए मैं कुछ काम करने लगी थी. पर फिर मुझे अहसास हुआ कि यदि अभिनय में कुछ बड़ा काम करना है,तो मुझे मुंबई जाना चाहिए. मेरे लिए मुंबई एकदम नई थी. यहां किसी से भी परिचय नहीं था. मुझे यह भी नहीं पता था कि कहां पर ऑडीशन होते हैं. मुझे किस तरह लोगों से मिलना चाहिए. ऑडीशन देना भी नहीं आता था. जयपुर व मुंबई के माहौल में भी काफी अंतर है. शुरुआत में रिजेक्शन ने धक्का लगा, पर फिर इसकी मुझे आदत पड़ गयी. धीरे-धीरे मेरा परिचय व मेरी समझ बढ़ती गयी. लोगों को भी मेरे बारे में भी पता चला, तो लोगों ने ऑडीशन के लिए बुलाना शुरू किया. फिर काम मिलना शुरू हो गया.

पहली फिल्म कैसे मिली थी?

मेरी पहली फिल्म ‘रनिंग शादी डॉट कॉम‘ थी, जिसमें मेरे साथ अमित साध और तापसी पन्नू भी थीं. इस फिल्म के लिए मैंने जोगी मलंग जी को ऑडीशन दिया था. वास्तव में 2010 के आसपास जोगी मलंग जयपुर में के बी सी के लिए ऑडीशन लेने आए थे. उसी वक्त उन्होंने मुंबई आकर मिलने के लिए कहा था. पर मुझे खुद को तैयार करने में ही 2 वर्ष लग गए. 2012 में जब मैं मुंबई आयी, तो मैंने जोगी मलंग जी को ऑडीशन दिया था, जिसके बाद मुझे फिल्म ‘रनिंग शादी डॉट कॉम‘ मिली थी. उसके बाद मैने ‘मर्दानी 2’,‘डैडी’जैसी फिल्में, कुछ डाक्यूममेंट्री, कुछ विज्ञापन फिल्में की. अब मेरी नई फिल्म ‘‘कसाई’ काफी चर्चा में है. इसे कई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कृत किया गया. एक फेस्टिवल में मुझे व मीता वशिष्ठ को भी पुरस्कृत किया गया.

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फिल्म‘कसाई’के अपने मिसरी के किरदार को कैसे परिभाषित करेंगी?

मिसरी गांव की शुद्ध पवित्र लड़की है. वह किसी तरह की ग्रंथि का शिकार नहीं है. उसका सूरज के प्रति प्यार भी सच्चा है. यह उसके प्यार की ईमानदार यात्रा है, जिसका अंत दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम के साथ होता है. वह स्वार्थी नहीं, बल्कि समझदार भी है. उससे एक गलती हो जाती है. उसके बाद उसकी समझ में आ जाता है कि अब उसके लिए, उसके अपने बच्चे के लिए क्या सही है. वह परिवार को भी समझती हैं. उनके भले की बात भी समझती हैं.

आपको नहीं लगता कि मिसरी के किरदार के साथ न्याय नहीं हुआ. इसे कुछ और जगह दी जानी चाहिए थी?

हर कलाकार अच्छी चीज को बढ़ाए जाने की ही बात कहेगा. किरदार को बढ़ाने की ही बात करेगा. अच्छी बात के लिए कलाकार कभी ना नहीं कहेगा. मगर निर्देशक का पूरी फिल्म को लेकर अपना एक अलग ही वीजन रहा. मैंने सिर्फ अपने किरदार को न्याय संगत तरीके से निभाने पर ध्यान दिया. निर्देशक को जो उचित लगा, वह उन्होंने किया. वैसे हमने कुछ अन्य दृश्य भी फिल्माए थे. मिसरी व सूरज के बीच पहली मुलाकात से लेकर छिप छिपकर मिलने के कई दृश्य फिल्माए गए थे. मगर फिल्म की लंबाई को ध्यान में रखते हुए उन पर कैंची चल गयी. जब फिल्म की लंबाई बढ़ जाए, तो उसमें कसाव लाने के लिए कलाकार को त्याग करना ही पड़ता है.

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फिल्म फेस्टिवल में फिल्म देखकर दर्शकों ने क्या कहा?

लोगों ने काफी तारीफ की. हमें पुरस्कार भी मिले. इस फिल्म के साथ औरतों ने खुद को जुड़ा हुआ महसूस किया.

कुछ नया कर रही हैं?

मैने पैन नलिन के निर्देशन में एक गुजराती भाषा की फिल्म ‘‘लास्ट फिल्म शो’’की है. जिसमें मैंने बा का किरदार निभाया है. एक लघु फिल्म ‘‘घुमंटू’’ का निर्माण, सह निर्देशन करने के साथ साथ इसमें अभिनय भी किया है.

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क्या भविष्य में फिल्म निर्देशक बनने की तमन्ना है?

मुझे तो फिल्म की कला से प्यार है. जिंदगी में जो भी अच्छे अवसर मिलेंगे, मैं वह सब करना चाहूंगी. मैं खुद को किसी सीमा में बांधकर नहीं रखना चाहती. जब मुझे अहसास होगा कि इस काम को करने के परिणाम अच्छे आएंगे और मुझे सुकून मिलेगा, तो मैं वह काम जरुर करना चाहूंगी. अपनी काबीलियत के आधार पर ही काम करुंगी. जब जैसा मौका आएगा, तब उस बारे में निर्णय लूंगी. फिलहाल तो अभिनय ही करना है. अभिनय पर ही मेरा सारा ध्यान केंद्रित है.

किस तरह के किरदार निभाना चाहती हैं ?

मुझे हर तरह के किरदार निभाने हैं. बशर्ते वह किरदार फिल्म का शो पीस न हो.

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आपके शौक क्या हैं ?

मुझे संगीत सुनना पसंद है.मैं बहुत ज्यादा घुमक्कड़ हूं.अलग अलग वर्ग और अलग अलग उम्र,अलग अलग देश व प्रदेश के लोगों के संग बातें करना पसंद है.मुझे भोजन पकाना पसंद है.हमेशा कुछ नया सीखते या करते रहना पसंद है.

किन जगहों पर आपको घूमना पसंद है ?

मैं हिमाचल प्रदेश,उत्तराखंड, सिक्किम, राजस्थान, खजुराहो, कन्या कुमारी,केरला, मद्रास,मदुराई, गुजरात सहित पूरा भारत घूम चुकी हूं. मैं अकेले नब्बे दिन के लिए सिर्फ राजस्थान घूमने जा चुकी हूं. अब महाराष्ट् में कोंकणा क्षेत्र घूमने जाने वाली हॅूं. मुझे यात्राएं करना बहुत पसंद है. यह सीखने वाली यात्रा होती है. घूमना मेरे लिए स्कूल जाने जैसा है.मेेरे लिए हर जगह और हर बात खास होती है. मैं कभी एक दूसरे की तुलना नही करती. यदि आप पूरे सचेत होकर घूमने जाते हैं, तो वहां कुछ ऐसा होता है, जिससे आपकी जिंदगी बदल सकती है. हम दूसरों की बातें सुनकर भी अपनी जिंदगी में बदलाव ला सकते हैं. हम जब अकेले घूमने जाते हैं, तो स्वतंत्रता के अहसास के साथ उस जगह के खानपान व रहन सहन से प्रभावित होते हैं. होली का त्योहार मेरे लिए बहुत फैशिनेटिंग है. तो मथुरा व वृंदावन की होली को देखने व अहसास करने के लिए दस दिन अकेले ही मैं मथुरा व वृंदावन चली गयी थी. दस दिन मैं जोगन व बंजारन की तरह मथुरा व वृंदावन घूमती रही. मैं वहां के कई स्थानीय कलाकारों के साथ वहां यमुना घाट पर राधा की प्रस्तुति भी दी थी. मतलब घूमते घूमते मैं वहां के लोगों के रंग में रंग गयी थी. मैंने बहुत कुछ एक्सप्लोर व खोजा था, जिसे मैं शब्दों में बयां नही कर सकती.

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