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हाल ही में अमरीका के ‘न्यू न्यूयॉर्क इंडिया फिल्म फेस्टिवल’ में कई लघु फिल्मों के फिल्म निर्देशक अजीत पाल सिंह की पहली फीचर फिल्म ‘फायर इन द माउंटेंस’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के अवार्ड से नवाजा गया। इससे पहले भी यह फिल्म कई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में अपना डंका बजा चुकी है और अगले कुछ माह के अंदर यह फिल्म कई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा बनने वाली है।
प्रस्तुत है अजीत पाल सिंह से हुई बातचीत के खास अंश...
आपकी पृष्ठभूमि क्या है? फिल्मों के प्रति आपकी रूचि कैसे विकसित हुई?
मैं पंजाब का रहने वाला हूँ। मगर जब पंजाब में हिंसात्मक घटनाक्रम बढ़े, तो मेरे पिता जी के सिनेमाघर को नुकसान हुआ और तब हम लोग पंजाब छोड़कर गुजरात आ गए थे। फिल्मों के प्रति अचानक रूचि नही हुई। मेरी शिक्षा हिंदी माध्यम के स्कूल में हुई, जबकि हम घर के अंदर पंजाबी भाषा में बात करते हैं। घर से बाहर दोस्तों के बीच हम गुजराती भाषा में बात करते थे। फिर मैंने इंडस्ट्रियल केमिस्ट्री के साथ अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई की। कालेज पहुँचने के बाद मैं नाटक करने लग गया था। धीरे धीरे कहानी लिखने में रूचि पैदा हुई। मैं साहित्य काफी पढ़ता था।
पढ़ने में तेज था। इसीलिए लोगों ने मुझसे साइंस में पढ़ाई करने के लिए कहा। कालेज की लाइब्रेरी बहुत अच्छी थी। उसमें प्रेमचंद सहित कई बड़े बड़े साहित्यकारों की किताबें थी, तो मैं वह सब पढ़ने लग गया। धीरे धीरे साइंस छूटता चला गया और साहित्य में रूचि बढ़ती गयी। कालेज में मैं नाटक का लेखन व निर्देशन करने लगा। कालेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे यह तो पता था कि क्या नहीं करना है, मगर क्या करना है, यह नहीं पता था। मसलन एमबीए नही करना था। दिमाग में यह बात थी कि कहानी को लेकर कुछ करना था। मैं चार भाषाएं जानता था, मगर किसी भी भाषा पर पूरा अधिकार नहीं था। कुछ वर्ष गुजर गए। मैं कई नौकरी बदलता रहा। फिर मुझे फ्रेंच फिल्म फेस्टिवल में फ्रांस्वा ट्रूफोटा की फिल्म ‘द 400 ब्लोज़’ नामक एक फिल्म देखी।
इस फिल्म से मैं काफी प्रभावित हुआ। यह फिल्म बहुत ही यथार्थ परक थी। दूसरी बात फिल्म की कहानी मेरे बचपन से मिलती जुलती थी। सच कहूं तो उस फिल्म को देखकर मैं अचंभित रह गया। उससे पहले मैं तो सिर्फ बॉलीवुड की फिल्में ही देखा करता था, जो कि काल्पनिक ज्यादा होती है। यथार्थ परक सिनेमा के बारे में ज्यादा पता नहीं था। जब रूचि बढ़ी तो पता किया। उसके बाद मैंने सत्यजीत रे की फिल्में देखी। रित्विक घटक की फिल्में देखी। उसके बाद फिल्मों में रूचि बढ़ती गयी। मुझे अहसास हुआ कि सिनेमा का माध्यम बहुत अच्छा है। यहां हम अपने विचारों को खुलकर व्यक्त कर सकते हैं और इसके लिए किसी एक भाषा पर पूरी तरह से एकाधिकार होना भी जरुरी नहीं है। लेकिन उस वक्त मुझे यह नहीं पता था कि सिनेमा अपने आप में एक भाषा है। इसे सीखने में दस वर्ष लग जाएंगे।
पहली फीचर फिल्म ‘फायर इन द माउटेंस’ तक पहुँचने का आपका किस तरह का संघर्ष रहा?
ईमानदारी से कहँू तो शुरूआत बड़ी आसानी से हो गयी थी। मैंने 2008 में तय किया कि अब मुझे फिल्में ही लिखनी व बनानी हैं। दो वर्ष तक सोचता रहा कि क्या लिखा जाए। 2010 में मंैने एक फिल्म की पटकथा लिखी, जिसका 2012 में ‘सन डांस स्क्रिप्ट लैब’ में चयन हो गया। इसमें मेरे मैंटोर कई दिग्गज फिल्मकार थे। इनमें आसिफ कपाडिय़ा भी थे, जिनकी फिल्में ऑस्कर में पुरस्कृत हुई। इन सभी ने मेरी पटकथा की काफी तारीफ की, जबकि यह मेरे द्वारा लिखित पहली पटकथा थी। उस वक्त मेरे दिमाग में आया कि अब तो मेरे लिए फिल्म बनाना आसान है और मैं 2013 में मुंबई आ गया। पर यहां पर संघर्ष शुरू हुआ।
मुंबई फिल्म इंडस्ट्री को समझना, यहां लोग किस तरह काम करते हैं, यह समझना काफी कठिन होता है। अहमदाबाद, तो मुंबई के मुकाबले काफी छोटा शहर है। छोटे शहर में आपके यार दोस्त, जान पहचान वाले होते हैं, आपको उनसे कुछ चाहिए होता है, तो मांगने की जरुरत नहीं पड़ती, वह आपकी तकलीफ देखकर समझ जाते हैं कि किस तरह की मदद चाहिए और वह सामने से मदद की पेशकश कर देते हैं। मुंबई में लोगों के पास आपकी दास्तान सुनने या आपकी तकलीफ को जानने का समय ही नहीं है। लोग चाहते है कि सीधे माँगो, उसके बाद देंगे या नहीं देंगे, यह एक अलग बात है। इसी तरह संघर्ष चलता रहा।
यहां एक रास्ता यह होता है कि आप बड़े निर्देशक के साथ बतौर सहायक काम करो और धीरे धीरे अपना नेटवर्क बनाओ। उस नेटवर्क से काम पाओ। दूसरा रास्ता था कि अपनी लघु फिल्में बनाते जाओ। आपकी लघु फिल्म इतनी अच्छी हों कि लोगों का ध्यान खुद ब खुद आपकी तरफ चला आए और जी हुजूरी न करनी पड़े। तो मैंने लघु फिल्में बनानी शुरू की। 2013 से 2018 तक सिर्फ लघु फिल्में बनाता रहा। यह पाँच वर्ष कैसे निकल गए, पता ही नहीं चला। पर मैं लघु फिल्में बनाता रहा।
इसी बीच में मैंने 2008 में अहमदाबाद में बतौर सहायक निर्देशक फिल्म ‘पतंग’ की थी। फिर फिल्म ‘गुड़गांव’ में एसोसिएट निर्देशक के रूप में काम किया। दूसरों के साथ सहायक के रूप में काम करने में मुझे मजा नहीं आ रहा था।
फिल्म ‘फायर इन द माउंटेंस’ को लेकर क्या कहेंगें?
फिल्म ‘फायर इन द माउंटेंस’ की कहानी उस माँ चंद्रा (विनम्रता रॉय) की है, जो व्हीलचेयर से बंधे अपने बेटे को फिजियोथेरेपी के लिए एक दूरदराज के हिमालयी गाँव में ले जाने के लिए सड़क बनाने के मकसद से मेहनत करते हुए पैसे बचाती रहती है, लेकिन उसके पति धर्म (चंदन बिस्ट) का मानना है कि इसका उपाय एक शर्मनाक अनुष्ठान (जागर) है, इसलिए वह सारी बचत चुरा लेता है। इस फिल्म में उत्तराखंड के युवा कलाकारों हर्षिता तिवारी और मयंक सिंह जायरा के साथ विनम्रता राय, चंदन बिष्ट और सोनल झा की अहम भूमिकाएं हैं।
फिल्म की कहानी का प्रेरणा स्रोत क्या रहा?
मुझे इस कहानी की प्रेरणा अपने परिवार के ही अंदर घटित एक घटनाक्रम से मिली। मेरी चचेरी बहन अमरजीत कौर की मृत्यू महज इसलिए हो गयी, क्योंकि उनके पति उन्हें लेकर अस्पताल नही गए।उनके पति यही कहते रहे कि उन पर किसी भूत का साया है। इस घटनाक्रम के बाद मेरे मन में सवाल उठने लगे कि हमारे भारत देश में विज्ञान पर यकीन क्यों नहीं किया जाता? भारतीय समाज में औरत का क्या स्थान है? मुझे पता है कि मेरी बहन अस्पताल जाना चाहती थी, मगर उनके पति उसे अस्पताल नही ले गए। इस घटनाक्रम से मेरे दिमाग में कई सवाल उठें और उन सवालों के जवाब ने मुझे पहाड़ो पर रहने वाली एक आधुनिक औरत और एक दकियानूसी/ट्रेडीशनल सोच वाले पुरूष के विवाह पर फिल्म लिखने व बनाने के लिए उकसाया। इसमें चंद्रा का किरदार मेरी बहन, मेरी माँ और मेरी पत्नी के चरित्रों का मिश्रण है।
आप किन सवालों के जवाब ढूढ़ रहे थे?
देखिए, एक सवाल पूछने पर दूसरे नए सवाल उपजते हैं। कहानी खत्म होने यानी कि फिल्म बनने के बाद मेरे दिमाग में अब कई अन्य सवाल भी उठे हैं। हमारे यहां जो पुराने रीति रिवाज हैं या परंपराएं है, मसलन -पहाड़ यानी कि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में ‘जागर’ की परंपरा है। मैं यह दावा नहीं करता कि इस तरह की परंपराएं किसी काम की नही है। जैसे कि ‘जागर’ की परंपरा में आप कई वर्ष बाद पूरे परिवार से मिलते हैं। तो आपको अपना इतिहास पता चलता है। कई बार आप अपने दुख दर्द को कह नहीं पाते, मगर ‘जागर’ में आप सब कुछ निर्भीक होकर कह सकते हैं।
इस परंपरा में नृत्य के दौरान आपका सारा गुस्सा निकल जाता है, खासकर औरतों का। मेरा मानना है कि जब यह कहा जाता है कि फलां इंसान पर भूत आ गया अथवा कोई देवी या देवता आ गए हैं, तो असल में वह भूत या देवी देवता नहीं आते हैं, बल्कि हमारे दिमाग में इतना दुख, गुस्सा, उलझन मची होती है इतने सवाल पैदा हुए होते हैं कि हमारा दिमाग हमें एक रिलीफ देने के लिए हमको एक अलग हकीकत दिखाता है। इस तरह से देखे, तो रीति रिवाज काम के हैं, मगर इन रीति रिवाजों से आप कैंसर, टाइफाइड, निमोनिया या डायबिटीज वगैरह ठीक नहीं कर सकते। ऐसे में कई लोग अंधविश्वास में फंस जाते हैं। रीति रिवाजों से आपकी दिमाग की अड़चने ठीक हो सकती हैं, मगर शरीर की बीमारी का इलाज नहीं हो सकता।
आम इंसान कैसे समझेगा कि ‘जागर’ जैसी परंपराओं के क्या फायदे और क्या नुकसान हैं?
यह तब समझ में आएगा, जब हमारा समाज आधुनिक बनेगा। शिक्षित होगा और हर बात पर सवाल करना शुरू करेगा। सिर्फ किसी ने कहा, तो आंख मूंदकर उस पर अमल नहीं करेगा। सवाल पूछना पहली जरुरत है। हमारी ‘फायर इन द माउंटेंस’ जैसी फिल्में सवाल पूछने के लिए लोगांे को उकसाएंगी। इसलिए ऐसे विषयों पर ज्यादा से ज्यादा फिल्में भी बननी चाहिए।
आपकी फिल्म को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में आपकी फिल्म को क्यों पसंद किया जा रहा है?
हमें हाल ही में ‘‘21वें न्यूयार्क इंडियन फिल्म फेंस्टिवल’’ सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के पुरस्कार से नवाजा गया। कई अन्य अवार्ड भी मिल चुके हैं। लोगों की राय में उन्हें हमारी फिल्म बहुत ही ज्यादा आथैंटिक महसूस हो रही है। तो कुछ लोग कहते हैं कि अब तक इतनी सच्चाई से किसी मुद्दे को उठाने वाली फिल्म उन्होंने नहीं देखी। कुछ लोग कहते हैं कि यह फिल्म उन्हें सवाल पूछने के लिए मजबूर करती है। एक खास क्षेत्र यानी कि उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र और ‘जागर’ के संबंध में फिल्म होने के बावजूद इस फिल्म के साथ अमरीका, जापान के भी दर्शक जुड़ पा रहे हैं। फिल्म हिंदी भाषा मे उत्तराखंडी टच के साथ बनायी है।
इस फिल्म को किस जगह फिल्माया है। वहां के फिल्मांकन के अनुभव क्या रहे?
जब मैंने लघु फिल्म ‘रम्मत गम्मत’ बनायी थी, तब उसका निर्माण अजय राय ने ही किया था, जो कि फिल्म ‘फायर इन द माउंटेंस’ के भी निर्माता हैं। ‘रम्मत गम्मत’ के बाद उन्होंने मेरे साथ फिल्म निर्माण करने की बात कही थी, पर उनकी शर्त थी कि इसका फिल्मांकन उत्तराखंड में हो। इस कारण हमने उत्तराखंड में फिल्म की शूटिंग की बात ध्यान में रखकर उत्तराखंड जाकर शोध कार्य किया। उससे पहले दिमाग में मेरी बहन की मौत के बाद एक कहानी थी कि एक पति पत्नी हैं, जिसमें से पति दकियानूसी, परंपरागत रीतिरिवाजों को मानने वाला और पत्नी आधुनिक विचार व सोच वाली है। जिसके चलते दोनों के बीच टकराव होगा। पर जब मैं उत्तराखंड गया, और पांच माह तक शोधकार्य किया, तो मुझे ‘जागर’ के बारे में पता चला, तो मैंने अपनी इस कहानी में ‘जागर’ को पिरोकर कहानी को अंतिम रूप दिया। ‘जागर’ से मैं प्रभावित इसलिए हुआ, क्योंकि यह एक बेहतरीन सिनेमैटिक घटनाक्रम है।
आपने कलाकारों का चयन किस आधार पर किया?
विनम्रता राय ने चंद्रा का किरदार निभाया है। उनके साथ मैने इससे पहले लघु फिल्म ‘हैमिंग बर्ड’ में काम कर चुका था, तो उनकी प्रतिभा से वाकिफ था।वह इमोशनल व ड्रामैटिक किरदार को भी पूरी ताकत व कंट्रोल के साथ निभाती हैं। इस कारण मुझे उनके साथ दोबारा काम करना था। बाकी सभी कलाकार उत्तराखंड के ही हैं।
मुंबई में शूटिंग करने और उत्तराखंड में शूटिंग करने में क्या फर्क पाया?
हमने उत्तराखंड में जहां भी शूटिंग की, वहां लोग मददगार मिले। जो कि मुंबई में संभव नहीं। वहां हम ज्यादा खुशी खुशी काम कर सके।