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आपसी बराबरी की बात करती है ज़ीरो- शाहरुख खान

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By Shyam Sharma
आपसी बराबरी की बात करती है ज़ीरो- शाहरुख खान
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6 साल बाद लौटी शाहरुख, कैटरीना और अनुष्का की तिकड़ी जीरो में दोबारा नज़र आएगी। इसके पहले तीनों 'जब तक है जान' फिल्म में नजर आए थे। 'जीरो' आपसी बराबरी की बात करती है। किसी भी तरह असमानता से जूझने वाले लोगों के साथ सही व्यवहार करने का तरीका सिखाती है। फिल्म के तीनों किरदार अलग-अलग समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन किसी भी सीन में दर्शकों को किरदारों को लेकर सहानभूति की भावना नहीं आएगी, फिल्म 'जीरो' की खासियत यही है। 'जीरो' के प्रमोशन के दौरान शाहरुख से हुई बातचीत:

हीरो से आप सीधा ज़ीरो पर क्यों आ गए?

अब तक फिल्मों में हीरो को लार्जर देन लाइफ ही दिखाया जाता रहा है, जो हर काम में तेज़ है, लेकिन हमने स्मॉलर देन लाइफ हीरो नहीं दिखाया जबकि असली हीरो यही होता है। इसे आप ज़ीरो न समझें, यही असली हीरो है।

आपको क्या लगता है कि हीरो कैसा होना चाहिए?

मैं भी राजू बन गया जेंटलमैन, चमत्कार, कभी हां कभी न जैसी फिल्मों में लार्जन देन लाइफ हीरो नहीं था। बादशाह, डर और बाजीगर में मेरा रोल थोड़ा लार्जर था, लेकिन वह भी कॉमिक था। मुझे लगता है हीरो स्मॉलर देन लाइफ होना चाहिए, अगर उसके बाद भी वह लोगों के लिए हीरो है, तब सही है। फिल्म चक दे का कबीर खान लूज़र था क्योंकि उसके कारण टीम मैच हार गई थी। वह सिर्फ अपनी मां को खुश करने के लिए लड़कियों का कोच बनता है और मैच जीतता भी है, मुझे ऐसा हीरो ज्यादा अच्छा लगता है।Srk-anand

फिल्म ज़ीरो के बारे में कुछ बताएं?

बराबरी की भावना जगाने वाली फिल्म है 'जीरो' जिसमें मेरा किरदार बौना है, लेकिन वह कभी भी किसी से खुद को कम नहीं समझता है। फिल्म के ट्रेलर में यह लाइन भी है, जब अनुष्का कहती हैं कि बराबरी अब हुई है बउआ। अनुष्का भी उसे इसलिए पसंद करती है क्योंकि वह उससे नार्मल बात करता है, व्हील चेयर पर बैठी अनुष्का को वह कमतर नहीं आंकता, स्पेशल ट्रीट नहीं करता या दया की भावना नहीं रखता, बल्कि वह उसे बराबरी का समझकर नार्मल और थोड़ी बदतमीजी से बात करता है। अनुष्का के किरदार को उसकी यही बराबरी वाली भावना पसंद आती है।

लोगों को इस बराबरी के मायने समझाएं?

यही कि हम लड़कियों को लेकर कुछ ज्यादा ही गंभीर हो जाते हैं और हमें उनकी केयर की टैंशन रहती है। उनका हालचाल ज्यादा पूछते हैं। उनको लडक़ों से अलग देखते हैं जबकि मेरा मानना है कि लड़कियों के साथ भी बराबरी का व्यवहार करना चाहिए। लडक़ी को बेचारी समझकर सहानभूति न दिखाएं। फिल्म में कोई भी किरदार या सीन ऐसा नहीं है, जहां हम दर्शकों को ऐसा फील कराएंगे कि किरदार किसी भी तरह की तकलीफ से गुजर रहे हैं या वह किसी से कम हैं, यही इस फिल्म की खास बात है।

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किस तरह की बातें फिल्म को खास बनाती हैं?

इस फिल्म में हमने किसी पर तरस खाने वाला दृश्य नहीं दिखाया है। कमतर इंसान के साथ भी बराबरी का व्यवहार दिखाया है। सहानुभूति दिखाने से उन्हें यह महसूस नहीं होने दिया कि कोई उनपर तरस खा रहा है। कभी-कभी पत्नी को अच्छा महसूस करवाने के लिए अपनी आंखों में ग्लिसरीन डालकर नकली आंसू भी निकालने पड़ते हैं और सॉरी कहना पड़ता है। ऐसा ही फिल्म में बउआ भी करता है। यही सब बातें इस फिल्म को खास बनाती हैं, फिल्म देखते समय आपको लगेगा कि हिंदी फिल्मों में ऐसे किरदार तो आप देखते ही नहीं हैं।

खुश रहने का सही तरीका क्या है?

मुझे लगता है कि सिर्फ पैसे और प्रसिद्धि से इंसान खुश नहीं हो सकता। जब मैं 20 से 25 साल का था तो सिर्फ यही सोचकर खुश हो जाता था कि एक्टर बनूंगा। अब आज मेरी बिटिया सुहाना ऐक्टिंग करना चाहती है, छोटा बेटा अबराम फुटबॉल खेलना चाहता है। यही तो उत्साह है, जो उन्हें खुश रखता है।

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