“बुसान इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल” सहित कई अंतरराष्ट्रीय फिल्मों में भारत का झंडा फहरा रही सुमन मुखोपाध्याय की हिंदी फिल्म “नजरबंद” से अभिनेता तन्मय धनानिया काफी षोहरत बटोर रहे हैं। वैसे तन्मय धनानिया ऐसे भारतीय कलाकार हैं,जो कि अमरीका, लंदन और ग्रीस में अपने अभिनय का डंका बजाने के बाद भारतीय फिल्मों से जुड़े। वह अब तक अंग्रेजी, बंगला,हिंदी, मलयालम भाषाओं की छह फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं, जिनमें से दो फिल्में नेटफ्लिक्स व एक फिल्म ‘मूबी’पर स्ट्ीम हो रही हैं। जबकि चैथी फिल्म ‘‘नजबरबंद’’ फिलहाल विभिन्न फिल्म फेस्टिवल में डंका बजा रही है। तो वहीं एक हिंदी व एक मलयालम की उनकी फिल्में भी प्रदर्षन के लिए तैयार हैं।
प्रस्तुत है “मायापुरी” पत्रिका के लिए तन्मय धनानिया से षांतिस्वरुप त्रिपाठी की हुई बातचीत के खास अंष...
आपके दिमाग में अभिनेता बनने की बात कब आयी थी?
देखिए, हम लोग मूलतः राजस्थान के रहने वाले मारवाड़ी हैं, मगर कलकत्ता, पश्चिम बंगाल में बसे हुए हैं। मेरे दादा, चाचा,पापा सभी बिजनेस से जुड़े हुए हैं। हमारे घर या परिवार में कला को कोई माहौल नही है। जबकि मेरी समझ से अभिनय में मेरी दिलचस्पी बहुत छोटी उम्र से ही थी।जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तो 13 वर्ष की उम्र से ही मैं चुटकुले सुनाने के साथ मिमिक्री करने लगा था। मैं षिक्षकों की नकल उतरता था।इसलिए मैं पूरे स्कूल में मषहूर हो गया था।उसके बाद चिल्ड्ेन्स डे, टीचर्स डे के अवसर पर स्कूल के अंदर आयोजित होने वाले छोटे छोटे नाटको में मुझे जुड़ने का अवसर मिलने लगा था। कुछ अवाॅर्ड भी मिले थे। उसके बाद दसवीं कक्षा में मैने ‘‘भय’’ नामक एक गंभीर नाटक में अभिनय किया था। जिसके लिए मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला। इससे अमैच्योर स्कूल थिएटर सर्कल में मेरा काफी नाम हो गया था। पर उस वक्त तक मुझे इस बात का अहसास/समझ नहीं थी कि अभिनय या कला को किस तरह से कैरियर के रूप में आगे बढ़ाया जा सकता है। पर जब मैने घर वालों को बताया कि मैं अभिनय करना चाहता हॅूं, तो उन्हें बड़ा अजीब लगा था। वैसे इन दिनों कलकत्ता में रह रहे मारवाड़ी समुदाय की नई पीढ़ी के लोग धीरे धीरे कला की तरफ आ रहे हैं। लेकिन आज से पंद्रह वर्ष पहले जब मैने अपने पिता जी से कहा था कि मैं अभिनय में कैरियर बनाना चाहता हूं, तो उनकी समझ में कुछ नहीं आया था। दूसरी तरफ मेरे पापा की तरफ से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने का दबाव भी था। इसलिए मैं न्यूकलियर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए अमरीका चला गया। अमरीका में न्यूकलियर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान थिएटर के प्रति मेरी दिलचस्पी नए सिरे से विकसित हुई। वहां पर जो लोग मेरे साथ जुड़े हुए थे, उनसे मुझे प्रोत्साहन भी मिला। सभी का मानना था कि मेरे अंदर अभिनय का हूनर है और मैं थिएटर में अभिनय करते हुए खुश भी बहुत नजर आता हूँ। तो लगभग बीस साल की उम्र मे मुझे अहसास हुआ कि मेरे अंदर से अभिनय को लेकर जो आवाज आ रही है, यदि मैंने उसे अनसुना कर दिया, तो मैं जिंदगी में खुष नही रह पाउंगा। भले ही मैं इंजीनिरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद अच्छा खासा धन क्यों न कमा लूं। या व्यापार कर लूं। इस तरह बीस साल की उम्र में मैने प्रोफेषनल एक्टर बनने का निर्णय कर लिया।वहां से कलकत्ता वापस आकर मैने ‘टिनकैन’नाट्यग्रुप के साथ कई नाटको में अभिनय किया। फिर 2010 में मैं अभिनय का विधिवत प्रषिक्षण लेने के लिए लंदन गया। वहां मैने ‘रॉयल अकादमी आफ ड्मैटिक आर्ट्स’(आर ए डी ए ) में तीन वर्ष का प्रषिक्षण हासिल किया। वहां पर मैने कुछ अंग्रेजी टीवी सीरियलों में भी अभिनय किया। 2015 में वापस कलकत्ता आ गया।
क्या आपको लगता है कि आपने न्यूकलियर इंजीनियरिंग करने में चार वर्ष बर्बाद किए?
जी नही... यदि मैं चार वर्ष की न्यूकलियर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए अमरीका न जाता, तो षायद आज मैं अभिनेता न होता।वहां जाने के बाद ही मैं खुद को और अपने अंदर की प्रतिभा को सही मायनों में समझ पाया। कई बार सही राह पकड़ने के लिए घूमकर आना पड़ता है। न्यूकलियर इंजीनियरिंग करने से मुझे काफी कुछ मिला। वहां के षिक्षकों ने मेरा हौसला बढ़ाया।मेरी गणित बहुत अच्छी थी। मैं गणित को कविता मानता हॅूं। मैं कभी यह नही मानता के मेरा वक्त बर्बाद हुआ। मुझे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए ही स्काॅलरषिप मिल रही थी। जिसके चलते मैं अमरीका में रह पाया और वहां पर मैं थिएटर तथा लघु फिल्में कर पाया। तो अमरीका जाने के बाद मेरी जिंदगी ज्यादा खुल गयी। अमरीका जाने के बाद मैने सीखा कि इंसान जो चाहता है, वह कर सकता है। उस वक्त कलकत्ता या भारत में इतने अवसर नही थे। मारवाड़ी परिवारों में तो कला का माहौल नहीं था। लेकिन मेरे जो बंगाली दोस्त थे,उनके घर पर नृत्य, संगीत, साहित्य आदि का माहौल था। तो मेरे दोस्तों को गायन, लिखने व फिल्मों का षौक है। ऐसे में अमरीका का पड़ाव मेरी जिंदगी का काफी अहम पड़ाव रहा।
अमरीका में रहते हुए थिएटर की पढ़ाई तथा नाटकों व लघु फिल्मों में अभिनय करने से आपकी जिंदगी में क्या बदलाव आए?
मुझे पूरी एक नई दुनिया देखने को मिली।वहां पर कालेज की पढ़ाई से लेकर नाटक व लघु फिल्मों की पटकथा सब कुछ अंग्रेजी में था। मैंने वहां पर षेक्सपिअर व ग्रीक के कई नाटक पढ़े और जब उन्हे परफॉर्म किया, तो पूरी नई दुनिया मेरी आँखों के सामने खुल गयी। एक अमरीकन नाटक पढ़ने से पहले मुझे पता ही नहीं था कि इस तरह के भी नाटक हो सकते हैं। इतनी गहराई में मानवीय ज्ञान हो सकता है, यह पता चला। मुझे यह पता था कि विज्ञान या इंजीनियरिंग के क्षेत्र में काफी काम हो चुका है, मगर साहित्य या नाटकांे में इतना काम हो चुका है, यह तो मेरी समझ में पहली बार आया।यह लेखकों के संदर्भ में मुझे जो ज्ञान मिला, उसकी बात कर रहा हॅूं। दूसरी बात यह हुई कि थिएटर करते करते मैं खुद को समझ पाया। मैं दिमागी तौर पर और षारीरिक रूप से खुद को विकसित करने के साथ ही खुद को तराष पाया।मेरी समझ में आया कि अगर मैं एंग्री यंग मैन का किरदार निभा रहा हूं, तो मेरी जिंदगी में ऐसा क्या क्या हुआ है,जिसका मैं उपयोग कर सकता हूँ। तो उस वक्त मेरी यात्रा काफी थियराॅटिकल हुई है। मैं स्काॅलरषिप के बल पर न्यूकलियर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था, तो मुझ पर दबाव भी था।दिन में कालेज जाना, फिर तीन चार घ्ंाटे गणित का होम वर्क करना, फिर रात में तीन चार घ्ंाटे नाटकों की पटकथा पढ़ना, उसे पढ़कर किरदार को तैयार करना। इससे मेरा वर्क कल्चर काफी अच्छा हो गया। मैं उन दिनों अमरीका में रहते हुए हर दिन 18 से बीस घ्ंाटे काम कर रहा था। इससे मुझे मेरे अंदर काम करने की क्षमता का अहसास हुआ। मुझे यह सीख मिली कि यदि इंसान कुछ करना चाहता है, तो वह उसे करने का कोई भी तरीका निकाल लेता है। मैं यह नही कह सकता कि मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था,इसलिए थिएटर नहीं कर पाया। मैं दोनों कर रहा था। क्योंकि मुझे पढ़ाई के साथ थिएटर करने में मजा आ रहा था।
अमरीका में रहते हुए आपने किन नाटको व लघु फिल्मों में अभिनय किया था?
मेरा पहला प्रोफेषनल नाटक मंजुला पद्नाभन लिखित ‘‘हार्वेस्ट” था। मंजुला पद्नाभन भारतीय हैं, मगर वह अमरीका सहित कई देषों में रहती हैं। नाटक ‘‘हार्वेस्ट” में भारत के एक परिवार की कहानी है। परिवार का मुखिया अपने परिवार की जरुरत के लिए पैसा इकट्ठा करने के मकसद से धीरे धीरे अपने षरीर के हर अंग को बेच रहा है। इसके बाद मैने एक ग्रीक नाटक ‘‘बाकाय’ किया। जिसमें मैने टेरेसपियास नामक 400 वर्ष के ग्रीक पाफेक्ट का किरदार निभाया जो कि अंधा भी है।इसके अलावा भी कई नाटक किए।दो लघु फिल्में की।
लंदन में कौन से नाटक व सीरियल किए?
जब में ‘राडा’ में अभिनय की ट्रेनिंग ले रहा था, तब मैंने जे एम बैरी का नाटक ‘पीटरपेन’ किया था। इसका एक वर्जन बनाया था,जिसमें मैंने ‘कैप्टन हुक’ का किरदार निभाया था। इसे काफी शोहरत मिली थी। वहां के लोकप्रिय अभिनेता एलन डिकमेन जी मेरा नाटक देखने आए थे और मेरे अभिनय की काफी तारीफ की थी। उनके साथ हमारे संबंध अभी भी बने हुए हैं। फिर मैने बीबीसी के लिए एक सीरियल “यू ट्कि” किया। इसे भी काफी षोहरत मिली। इसके अलावा एक सीरियल ‘इंडियन समर’ भी लोकप्रिय हुआ, जिसमें मैने मिस्टर नसीम खान नामक पत्रकार का किरदार निभाया। ‘द डरेल्स आफ कफ्र्यू’ में प्रिंस जीजीबौय का किरदार निभाया था। इन सीरियलों को मिली लोकप्रियता से मुझे विदेशो में अच्छी खासी पहचान मिली। दो वर्ष पहले मैं लंदन में एक नाटक ‘द प्वाइंट आफ इट’ करने के लिए गया था.इसके लंदन में 20 षो हुए। मेरे अभिनय को वहंा के अखबारों में काफी सराहा गया।
ब्राम्हण नमन के बाद कौन सी फिल्में की?
इसके बाद मैंने कौषिक मुखर्जी निर्देषित कामुक ड्ामा फिल्म ‘गार्बेज’ में फणीष्वर का किरदार निभाया, जिसमें मेरे संवाद हिंदी में है, पर दूसरे किरदार अंग्रेजी में भी बोलते हैं। यह फिल्म ‘68 वें बर्लिन फिल्म फेस्टिवल’ में प्रीमियर हुई थी।यह फिल्म भी ‘नेटफ्लिक्स’ पर है। इसके बाद मैंने रोनी सेन निर्देषित फिल्म ‘कैट स्टिक्स’ की। यह फिल्म अंग्रेजी, बंगला और हिंदी मिश्रित है। इसे ‘स्लैमडांस फिल्म फेस्टिवल’ में ज्यूरी अवार्ड से सम्मानित किया गया था। यह फिल्म ‘मूबी’ पर मौजूद है। लेकिन मेरे कैरियर की चैथी फिल्म सुमन मुखोपाध्याय निर्देषित ‘‘नजरबंद” सही मायनो में मेरी पहली हिंदी फिल्म है। इसका ‘बुसान अंतरराष्ट्ीय फिल्म समारोह’में प्रीमियर हो चुका है। फिर न्यूयार्क फेस्टिवल में भी दिखायी जा चुकी है।
फिल्म “नजरबंद” कैसे मिली?
फिल्म ‘नजरबंद’ के निर्देषक सुमन मुखोपाध्याय ने ‘बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में मेरी फिल्म ‘‘गार्बेज’’ देखी थी। इस फिल्म में मेरा अभिनय देखकर वह काफी प्रभावित हुए थे। जब उन्होने ‘नजरबंद’ पर काम शुरू किया, तो उन्होने फिल्म ‘ब्राम्हण नमन’ के निर्देषक कौषिक मुखर्जी उर्फ क्यू से मेरा नंबर लेकर मुझे फोन करके मुझसे इस हिंदी फिल्म में काम करने के बारे में पूछा। तो मैंने उनसे कहा कि मैं आपके साथ फिल्म करना चाहूंगा, मगर आपको यह क्यों लगा कि मैं आपकी फिल्म के लिए उपयुक्त हॅंू। उस वक्त वह और मैं दोनों मुंबई में थे। हम लोग एक दिन एक बार में मिले। उस वक्त हम दोनों के बीच काफी बातचीत हुई और उसी वक्त मैने तय कर लिया कि मुझे सुमन मुखोपाध्याय जी के साथ काम करना है। हम दोनो में काफी समानताएं हैं। उन्ही की तरह मैं भी थिएटर से हॅूं। हमारे नजरिए में समानता थी।हम दोनो अपनी कला के माध्यम से एक ही बात कहना चाहते थे। उन्हे मेरी अभिनय क्षमता पर इतना यकीन था कि वह मेरा आॅडीषन भी नही ले रहे थे। उन्होने मुझसे ‘नजरबंद’ के बारे में बताया था कि यह फिल्म दो अजनबी लोगों की प्रेम कहानी के साथ ही कलकत्ता षहर से प्रेम की कहानी है। मैं मूलतः बंगाली नही हॅूं, पर कलकत्ता मेरा षहर है। कलकत्ता से मुझे बहुत प्यार है। फिर जब इस फिल्म के वर्कषाॅप के दौरान इंदिरा तिवारी मिली, तो मैं आष्वस्त हो गया था कि यह फिल्म बेहतरीन बनेगी।
च फिल्म ‘नजरबंद’के अपने किरदार को आप किस तरह से परिभाषित करेंगें?
इसमें मैने चंदू का किरदार निभाया है। चंदू बहुत ही रोचक किरदार है। जब मैं शुरू में इस किरदार को गढ़ रहा था,तब मुझे लगा था कि चंदू दिल का अच्छा इंसान है,मगर बुरे/गलत काम करता रहता है। पर एक दिन निर्देषक सुमन जी ने मुझसे एक बात कही, जिसने चंदू को लेकर मेरा पूरा नजरिया ही बदल गया। उन्होने कहा-‘‘चंदू दिल का यानी कि अंदर से खराब/गलत इंसान है, मगर अब अच्छा बनने का प्रयास कर रहा है। ’’यह काफी रोचक बात थी। चंदू की जिस तरह की पैदाइष व परवरिष है, उसने अपने आस पास सिर्फ गंदगी ही देखी है। उसने सीखा है कि गंदगी में ही फायदा है। उसे बताया गया कि यदि वह ठगी, चोरी, चमारी करता रहेगा, तो सुखी रहेगा। तभी सफल हो सकोगे। क्योंकि यह दुनिया बहुत ही खराब है। उसके अंदर बहुत कुछ चलता रहता है, जिसे वह कभी दिखाता नही है। मगर जेल से निकलने के बाद जब वह वासंती के यात्रा पर निकलता है, तो पहली बार चंदू को अपने अंदर झांकने का अवसर मिलता है, फिर भी वह सब कुछ अच्छा नही करता है। तो वह अपने डार्कनेस/अंधकार के साथ काफी जूझता है।
‘नजरबंद’ की नायिका इंदिरा तिवारी की यह पहली फिल्म है। उनके साथ काम करने के क्या अनुभव रहे?
इंदिरा तिवारी के साथ काम करने में बड़ा मजा आया। इस फिल्म की विषयवस्तु व किरदार के हिसाब से इंदिरा तिवारी से बेहतर सह कलाकार हो ही नही सकता था। वैसे मैं अब तक भाग्यषाली रहा हॅूं कि मुझे हर फिल्म में सह कलाकार अच्छे ही मिले। फिल्म ‘ब्राम्हण नमन’ में अनुला नवलेकर और सिंधू श्रीनिवास मूर्ति, फिल्म ‘गार्बेज’ में सतरूपा दास और ‘कैट स्टिक’ में श्रीजिता मित्रा जैसी बेहतरीन सह कलाकारों के साथ काम करने का अवसर मिला। अभी मैने कोंकणासेन षर्मा और कनि श्रुति के साथ काम किया है। फिल्म ‘नजरबंद’ की मेरी हीरोईन इंदिरा तिवारी के साथ हम कलकत्ता घूमे। वह अमेजिंग कलाकार है। उसने बेहतरीन परफार्मेंस दी है। जब इंदिरा तिवारी जैसी बेहतरीन अदाकारा साथ हो, तो आपका अभिनय भी निखर जाता है। हमारी केमिस्ट्ी जबरदस्त रही।हम अभी भी अच्छे दोस्त हैं।
फिल्म ‘नजरबंद’ के निर्देषक सुमन मुखोपाध्याय को लेकर क्या कहेंगें?
वह बहुत ही बेहतरीन निर्देषक हैं। वह भी थिएटर से हैं। उन्होने थिएटर पर काफी काम किया है। कई बेहतरीन फिल्में निर्देषित की हैं। उन्हे कई अवार्ड मिल चुके हैं। वह अभिनेता भी हैं। वह तो अभी भी नाटकों में अभिनय करते हैं। उनका हर चीज को देखने का नजरिया भी काफी रोचक है। वह कलाकार को अपनी प्रतिभा को निखारने के लिए पूरी छूट देती हैं। मुझे पहले नही पता था कि वह स्टार हैं। जब हम षूटिंग कर रहे थे,तो अक्सर हम देखते थे कि लोग आते थे और उनके पैर पर गिरकर उनका आषिर्वाद लेते थे। उन्होने सेट पर अपना रौब नही दिखाया। उनके जैसा विनम्र इंसान मिलना मुष्किल है। उनके कंविक्ष्ंान की ताकत बड़ी है।
फिल्म ‘बुसान’सहित कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहो में जा चुकी है। किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली?
देखिए, कोरोना की वजह से हम तो किसी भी अंतरराष्ट्ीय फिल्म समारोह में नही जा सके, पर हमें वहां से काफी अच्छी प्रतिक्रियाएं मिली। ‘बुसान’ फेस्टिवल में सिर्फ केारिया के ही लोग जा सके और उसमें भी एक तिहाई दर्षकों को ही हर सिनेमाघर के अंदर जाने का अवसर मिला, जिसके चलते फिल्म समारोहों में जितने बड़े दर्षक वर्ग तक फिल्म पहुॅचनी चाहिए थी, वह नहीं पहुॅची। फिर भी जितने लोगों ने देखा है, उन सभी ने काफी अच्छी प्रतिक्रियाएं मिल रही है। दक्षिण कोरिया के एक पत्रकार ने मुझे अपने विचारांे से अवगत कराया। लंदन से दो दोस्तो ने फोन पर फिल्म को लेकर बात की।अभी तक फिल्म व्यावसायिक स्तर पर प्रदर्षित नही हुई है।
इसके अलावा क्या कर रहे हैं?
कुछ अच्छी फिल्में की हंै। मैंने एक मलयालम फिल्म ‘बीइंग ए बियर’ की है। पर यह फिल्म मलयालम, बंगला, हिंदी संवादांे से युक्त है। इसे केरला स्टेट फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेषन’ ने बनाया है। बहुत ही खूबसूरत कहानी है। इसमें मैं एक बंगाली मर्चेंट का किरदार निभा रहा हॅूं। इसमे मेरे साथ कनि श्रुति नामक मलयालम सिनेमा की बड़ी कलाकार हैं। उन्हे कई अवार्ड मिल चुके हैं।इसके कैमरामैन महेष महादेवन हैं। फिर मैंने अपर्णा सेन के निर्देषन में एक अनाम हिंदी फिल्म की है। इस फिल्म में अर्जुन रामपाल और कोंकणासेन षर्मा हैं.इसकी षूटिंग हमने दिल्ली मे की है। यह बहुत ही ज्यादा डार्क फिल्म है। कुछ विज्ञापन फ़िल्में की है। अपनी लघु फिल्मों का निर्माण भी किया है। दो तीन दूसरी फिल्में हैं, जिनकी षूटिंग शुरू होनी है।
किस तरह की लघु फिल्में बनायी हैं?
मैं प्रयोगात्मक और अपने निजी अनुभवों को लेकर लघु फिल्में बनाता रहता हॅंू। मुझे पिछले वर्ष लंदन से एक ‘आर्ट पीस’बनाने के लिए ग्रांट मिला था.उसके लिए मैने एक लघु नाटक ‘ए मैन्युअल आफ फैंटास्टिकल जियोलाॅजी’ तैयार किया था। इसे हमने जूम पर बनाया था। यह आॅन लाइन ही पूरे विष्व भर में प्रसारित भी हुआ था। इस नाटक की कहानी के अनुसार हम चार दोस्त हैं। सभी अपने अपने घर पर हैं। पहले लाॅक डाउन के चलते जो मानसिक बीमारी के मुद्दे उठे थे, उसी की जांच यह चार दोस्त करते हैं। यह था तो नाटक मगर हमने इसका लाइव प्रदर्षन ‘जूम’ पर किया, तो इसकी रिकार्ड भी की। इसलिए अब यह लघु फिल्म भी बन गसी है। फिर लाॅक डाउन के वक्त हमने ‘नेटफ्लिक्स’ के लिए एक लघु हास्य फिल्म ‘डिलीवरी ब्वाॅय’ बनायी। यह लाॅक डाउन में एक डिलीवरी ब्वाॅय की एक दिन की जिंदगी की कहानी है। नेटफ्लिक्स ने मेरे घर पर दो आई फोन भेजे और मैने ख्ुाद यह लघु फिल्म बनायी। इसमें मुझे काफी मजा आया। आजकल मैं गोवा में रहता हॅूं। यहां थिएटर के लिए एक सोलो परफार्मेंस के लिए नाटक बना रहा हॅूं। कुछ आर्टिस्टिक पीस बना रहा हॅू। गोवा में काफी आर्टिस्ट व फोटोग्राफर हैं। एक फोटोग्राफर के साथ मैने एक किरदार को रचा है और अब उस फोटोग्राफर के संग एक फोटोबुक बना रहा हॅंू। इसमें कुछ वीडियो भी हो सकते है। मैं इसके इर्द गिर्द एक कहानी भी लिख रहा हॅू। इसे फिल्म नही कह सकते,पर एक रोचक वीडियो के साथ बुक होगी। तो कुछ रोचक आर्टिस्टिक काम कर रहा हॅूं। इसमें मेरे कुछ फोटोग्राफर दोस्त मेरी मदद कर रहे हैं।