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‘फिल्म ‘सांड की आंख’ की कहानी कही जानी चाहिए...’- विनीत कुमार सिंह 

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By Shanti Swaroop Tripathi
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‘फिल्म ‘सांड की आंख’ की कहानी कही जानी चाहिए...’- विनीत कुमार सिंह 

यूँ तो विनीत कुमार सिंह ने 2001 में महेश मांजरेकर की फिल्म ‘पिता’ से बॉलीवुड में कदम रखा था. इसके बाद से 18 वर्षों तक वह लगातार संघर्ष करते रहे. इस बीच ‘गैंग आफ वासेपुर’, ‘बांबे टॉकीज’ जैसी कुछ फिल्में भी करते रहे. पर उन्हें असली पहचान मिली अनुराग कश्यप की फिल्म ‘मुक्काबाज’ से, जिसमें वह हीरो बनकर आए थे. उसके बाद से उनका करियर निरंतर सरपट दौड़ रहा है. कुछ समय पहले वह अक्षय कुमार के साथ फिल्म ‘गोल्ड’ में नजर आए थे. तो वहीं 27 सितंबर से ‘नेटफ्लिक्स’ पर स्ट्रीमिंग हो रही ‘बार्ड ऑफ ब्लड ’में विनीत कुमार सिंह एक अफगानी कमांडों के किरदार में नजर आ रहे हैं.फिलहाल वह तुषार हीरानंदानी निर्देशित फिल्म ‘सांड़ की आंख’ को लेकर उत्साहित हैं, जिसमें वह निशानेबाजी के कोच के किरदार में हैं. फिल्म ‘मुक्काबाज’ बॉक्सिंग के खेल पर थी, तो वहीं ‘सांड की आंख’ निशानेबाजी के खेल पर है।

प्रस्तुत है उनसे ‘मायापुरी’ के लिए हुई बातचीत के खास अंष...

फिल्म ‘मुक्काबाज’ के बाद आपके कैरियर व जिंदगी में क्या बदलाव आए?

- ‘मुक्काबाज’ ने मुझे मेरी जिंदगी के संघर्ष के 10 साल वापस कर दिए. आज मैं यही कहना चाहूंगा कि इस फिल्म के बाद एक कलाकार के तौर पर बहुत सारी आजादी मिली है. ‘मुक्काबाज’ और उससे पहले की फिल्मों में मैंने जो काम किया था, उसकी वजह से अब ढेर सारा एक्सपरीमेंट करने का मौका मिल रहा है. अब लोग मुझ पर यकीन करने लगे हैं. फिल्म ‘गैंग ऑफ वासेपुर’ में मेरा किरदार एकदम अलग था.जबकि ‘बॉम्बे टॉकीज’ में एकदम अलग.तो मैं अब तक हर फिल्म में कुछ अलग काम करता आया हॅूं.उन्हे भी ध्यान में रखकर ‘मुक्काबाज’ के बाद मेरे पास फिल्मों के ऑफर आ रहे हैं. एक कलाकार यही चाहता है कि उसे ज्यादा से ज्यादा एक्सपरीमेंट करने का मौका मिले. मुझे यह अवसर ‘मुक्काबाज’ ने दिलाया. ‘मुक्काबाज’ के बाद फिल्म ‘गोल्ड’ में मैंने कुछ अलग किया था. अभी 27 सितंबर से ‘नेटफ्लिक्स’ पर आयी ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ में अफगानी बना हॅूं. यह 190 देशों में रिलीज हुई.अब 25 अक्टूबर को फिल्म ‘सांड़ की आंख’ रिलीज हो रही है।

‘फिल्म ‘सांड की आंख’ की कहानी कही जानी चाहिए...’- विनीत कुमार सिंह 

 जब आपने ‘सांड की आंख’ की कहानी सुनी, किरदार सुना, तो इससे जुड़ने के लिए आपको किस बात ने इंस्पायर किया?

- इसकी दो वजहें थीं. पहली वजह कि यह कहानी कही जानी चाहिए. मैं इस बात में विश्वास रखता हूं कि किसी को भी उसके जेंडर यानी लड़का या लड़की, अथवा उसकी जात पात, धर्म अथवा उसकी आर्थिक स्थिति के आधार पर उसको किसी काम को करने से ना रोका जाए. मैं इस बात में व्यक्तिगत तौर पर यकीन करता हूं. इसलिए मैं निजी स्तर पर  चाहता हूं कि ऐसी कहानी कही जाए. दूसरी वजह यह रही कि यह पूर्वी उत्तर प्रदेश की बजाय पश्चिमी उत्तर प्रदेश का किरदार है. जो लोग उत्तर प्रदेश से वाकिफ हैं, उन्हें पश्चिमी व पूर्वी उत्तर प्रदेश का फर्क भी पता है. वेस्टर्न यूपी में बातचीत अलग तरह से की जाती है. तो यह किरदार जो काम करता है, जिस तरह की भाषा बोलता है, वह मैंने इससे पहले कभी किया नहीं था।

 डॉ. यशपाल के किरदार को निभाने के लिए आपने क्या तैयारी की?

- सबसे पहले तो इस किरदार के रिदम को पकड़ना बहुत जरुरी था. डॉ. यशपाल का रिदम बिल्कुल अलग है. ‘मुक्काबाज’ में वह फट से हाथ चला देता है. गुस्सैल है. भावनाओं में बहकर काम करता है. मगर ‘सांड़ की आंख’ का यशपाल एकदम अलग है. इसमें वह निशानेबाज और कोच है. निशानेबाजी में अगर सांस थोड़ी भी ऊपर नीचे हुई, तो आप निशाना चूक जाते हैं. निशानेबाजी एक ऐसा खेल है, जिसमें आपको पूरा ध्यान अपने टारगेट पर रखना पड़ता है. जरा सी भी हृदय की धड़कन ऊपर नीचे हुई, तो आपका टारगेट हिल जाता है. बॉक्सिंग में आप बहुत तेज मूव कर रहे होते हैं. तो दोनों खेल का रिदम बिल्कुल अलग है. जबकि दोनों खेल ही हैं. मैंने ‘सांड की आंख’ में वह अपने किरदार में भी डाला है कि यशपाल अपने टारगेट पर हिट करने से पहले काफी कंसेंटेट रहता है. एकदम शात रहता है. अपने कंट्रोल को नहीं छोड़ता. वह रिदम बनाए रखता है. यह किरदार रिएक्ट कम करता है, जो करना है, वही करता है।

‘फिल्म ‘सांड की आंख’ की कहानी कही जानी चाहिए...’- विनीत कुमार सिंह 

भाषा भी सीखनी पड़ी?

- यशपाल के किरदार के लिए मैंने अपने सभी जाट दोस्तों से बात की और इन सभी से मैंने हरियाणवी वाली भाषा में बात करना शुरू किया. जहां मेरी गलती होती थी, वहां मेरेे दोस्त उसमें सुधार करते गए.मैंने उनसे कह दिया था कि यह गांव में कोच है.इस बात को भी ध्यान में रखना है. इसके अलावा सेट पर सुनीता शर्मा हमारे उच्चारण दोष को ठीक करने के लिए मौजूद रहती थीं. उन्होंने ही फिल्म ‘दंगल’ में भी डिक्शन टीचर थी. मैंने जौहरी गाँव के लोगों से बहुत बाते की.मैं गॉंव के जितने भी शूटर थे, उनके साथ बैठता था.उनसे सीखता था. उन शूटरों ने मुझे कई तरह की गन चलानी सिखायी. जो कुछ सीखा, उसका अपने किरदार में उपयोग किया।

जौहरी गांव में रहने व शूटिंग करने के क्या अनुभव रहे?

- बहुत बढ़िया अनुभव रहे. यूँ भी मैं गाँव से जुड़ा इंसान हूं. मेरा गांव गाजीपुर में है और मैं अक्सर गांव जाता रहता हूँ. गांव वाले बहुत सीधे होते हैं. वह बड़े प्यार से मिलते थे. आवभगत करते थे.उनकी भैंस को पानी भी पिलाता था. एक सांड था, बहुत खतरनाक था. पर वह भी मुझे मानने लगा. खेतों में गन्ना तोड़कर खाता था.लोगों से बहुत सी बातें की. हर इंसान अपनी अपनी कहानी सुनाता था, मैं सुनता था. क्योंकि यह सब कलाकार के तौर पर कभी न कभी हमें मदद ही करता है।

तुषार हीरानंदानी ने बतौर लेखक हमेशा सेक्स कॉमेडी फिल्में लिखी. निर्देशक के तौर पर यह उनकी पहली फिल्म है. उनके साथ काम करने के आपके अनुभव कैसे रहे?

- बहुत अच्छे अनुभव रहे. मेरे लिए तो आश्चर्य था कि वह इस तरह की फिल्म निर्देशित करने जा रहे हैं.मगर मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी, तो फिल्म करनी है, यह तय हो गया. बाद में तुषार से मिला. वह बहुत क्लियर है कि उन्हे क्या चाहिए. मैं तो निर्देशक का कलाकार हूं.निर्देशक के सामने खुद को पूरी तरह से सरेंडर कर देता हूं।

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इसके अलावा क्या कर रहे हैं?

- छः दिसंबर को मेरी एक बहुत प्यारी फिल्म ‘आधार’ आने वाली है, जिसमें सौरभ शुक्ला,रघुवीर यादव जैसे कलाकार है. यह फिल्म आधारकार्ड से जुड़ी है. इसे दृश्यम फिल्मस व ‘जियो स्टूडियो’ ने बनाया है. झारखंड में शूटिंग की है. इसके अलावा ‘धर्मा प्रोडक्शन’ की कारगिल वाली फिल्म ‘गुंजन सक्सेना’ कर रहा हॅॅूं।

अब किस तरह के किरदार निभाने हैं?

- मैं अच्छा काम करने की आजादी चाहता हूँ. अच्छी पटकथा वाली फिल्म का हिस्सा बनने की आजादी चाहता हूँ।

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