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उर्दू और हिंदी में शायरी में अलग पहचान बना चुके अखलाक मुहम्मद खान कैसे बने 'शहरयार'

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By Asna Zaidi
उर्दू और हिंदी में शायरी में अलग पहचान बना चुके अखलाक मुहम्मद खान कैसे बने  'शहरयार'
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Akhlaq Mohammed Khan: अखलाक मुहम्मद खान 'शहरयार' (Akhlaq Mohammed Khan Shahryar) का जन्म- 16 जून, 1936 और मृत्यु- 13 फरवरी, 2012 में हुई थी. वें एक प्रसिद्ध उर्दू शायर थे.उर्दू शायरी की दुनिया में कुँवर अखलाक मुहम्मद खान को 'शहरयार' के नाम से जाना जाता है.उन्होंने फिल्मों के लिए गाने भी लिखे. वहीं  'शहरयार' के द्वारा लिखीं गई गजल आज भी लोगों की जुबान पर रहती हैं. ऐसे में चलिए आज हम आपको अपने आर्टिकल के जरिए बताते हैं अखलाक मुहम्मद खान की लाइफ से जुड़े कुछ अनसुने किस्से जिसके बारे में दर्शक शायद ही जानते होंगे.

इस तरह बनें अखलाक मुहम्मद खान से शहरयार

बता दें अखलाक मुहम्मद खान 'शहरयार' ने 'गमन' और 'आहिस्ता आहिस्ता' जैसी कुछ हिंदी फिल्मों के लिए गाने लिखे, लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा लोकप्रियता 1981 में अभिनेत्री रेखा और फारूक शेख अभिनीत फिल्म 'उमराव जान' से मिली.'इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों है', 'कभी किसी को मुक्कम्मल जहां नहीं मिलता' जैसे गाने लिखकर शहरयार हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में काफी लोकप्रिय हो गए. लेकिन क्या आप अखलाक मुहम्मद खान से  'शहरयार' बनने की असली वजह के बारे में जानते हैं. तो चलिए आज हम आपको बताएंगे किअखलाक मुहम्मद खान कैसे बने  'शहरयार' . तो ये कहानी काफी लंबी हैं. एक इंटरव्यू के दौरान अखलाक मुहम्मद खान ने खुद कहा था कि  शुरू में मेरी जो चीजें थीं कुंवर अखलाख मुहम्मद खान के नाम से छपीं.मेरे दोस्तों ने इस बात एतराज किया कि ये नाम बहुत ही गैर-शायराना है तो उसका हल हमने ये निकाला कि मैंने एक आद गजल में कुंवर का इस्तेमाल किया था तो आजमी मरहूम ने कहा कि कुंवर तो इक्विवलेंट शहरयार है.कुंवर का मतलब होता हैं प्रिंस और शहरयार के भी! तो तुम अपना नाम शहरयार रख लो.मैंने अपना नाम शहरयार लिखना शुरू कर दिया और ये 56-57 से समझ लीजिए मैं लिख रहा हूं और 58 से मैंने बहुत सीरियसली शायरी की.जितनी भी बड़ी मैग्जींस थीं, उनमें मेरा शहरयार के नाम से कलाम छपता रहा, और अब शहरयार ही मुझे असली नाम लगता है.

पुलिस और फौजी वाले खानदान में पले बढ़े कैसे बने शायर 

अखलाक मुहम्मद खान उर्फ 'शहरयार' ने कहा कि मैं पहला शख्स था जिसने शेर कहे यानी मुझे अपनी पुरानी जिंदगी में कहीं कोई ऐसा सुराग नहीं मिलता, जिससे ये नतीजा निकाला जा सके कि मैं किसी स्टेज में शायर बनूंगा.मेरा सारा खानदान पुलिस और फौज में था.शायरी से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी.में एक हॉकी प्लेयर, एथलीट हुआ करता था.मेरे पिता मेरे अंदर एक पुलिस ऑफिसर की झलक देखते थे और वे मुझे उसी तरह ग्रूम कर रहे थे. लेकिन जब मैंने यह फैसला किया कि मैं पुलिस में नहीं जाऊंगा, तब भी मुझे नहीं मालूम था कि मुझे क्या करना है.मेरे साथ हो रही सारी चीजें एक्सीडेंट्स हैं.इनका कोई लॉजिकल एक्सप्लेनेशन मेरे पास नहीं है।

बंबई के रंग में क्यों रंग नहीं पाए 'शहरयार'

इस बात का जवाब देते हुए शहरयार ने कहा कि, इसमें दो-तीन चीजें हैं वो ये कि मेरा मिजाज पूरा था.अगर दौलत, बिना इज्जत के मुझे मिल रही है तो वो मैंने कभी कबूल नहीं की.यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाला और खासकर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाला आदमी बहुत इज्जत का आदी हो जाता है, सैकड़ों सलाम मिलते हैं.बंबई में जाकर सैकड़ों को सलाम करने पड़ते हैं.दूसरे ये कि मैं उसको व्होल टाइम इसलिए नहीं बना सका कि उस सूरत में मुझे हर तरह की चीजें लिखनी होतीं, जो मैं अहल नहीं समझता.मेरे बच्चे वहां पढ़ रहे थे, मेरी बीवी वहां थी, तो मैं वहां घर भी छोड़ कर नहीं जा सकता था.दूसरे ये कि ऐसी फिल्में जिनमें शायरी की गुंजाइश हो, बहुत कम बनने लगी थीं, इसलिए मेरा वहां रोल था नहीं, इसलिए मैंने बहुत इज्जत के साथ उससे अपने को दूर रखा.

शहरयार' के पंसदीदा क्लासिकल और मॉडर्न कौन-कौन हैं?

शहरयार ने कहा कि मेरे तो अव्वल भी और आखिरी भी सबसे पंसदीदा शायर मिर्ज़ा गालिब हैं. यानी वो ऐसे शायर है, जिसको हर वक्त पढ़ा जा सकता है.हर वक्त ऐसा होता है कि दुनिया छिपी हुई थी और गालिब के से वह फिर से सामने आई.वैसे जाहिर है कि फैज फिराक, इकबाल, मौर, अख्तरखल ईमान और भी बहुत.मेरा मानना यह है कि जिंदगी में जितनी वैरायटी हो उतना ही अच्छा है.यही मैं शायरी में चाहता हूं.किसी एक तरह की शायरी मेरे लिए काफी नहीं होती.मैं हर तरह की शायरी पढ़ता हूं।

खय्याम साहब के साथ काम करने का मिला मौका 

सबसे पहले तो मैंने जयदेव के साथ काम किया.जयदेव जैसा आदमी मैंने तो फिल्म इंडस्ट्री में देखा नहीं.इतना बेनियाज आदमी, इतना कॉन्फिडेंट आदमी, इतना ट्रांसपेरेंट आदमी यानी वो गैर-मामूली आदमी थे.मैंने शिव-हरि के साथ भी एक फिल्म में काम किया.खय्याम साहब से इसलिए मेरी इक्वेशन ठीक रही क्योंकि वो मुझसे कम्यूनिकेट कर सकते थे, मैं उनसे कर सकता था.लेकिन उनका अंदाज बहुत एग्रेसिव होता था.लेकिन उनको फिल्म की कामयाबी का बहुत खयाल होता था.ये बहुत बड़ी कामयाबी का बहुत खयाल होता था.ये बहुत बड़ी बात उनके अंदर है, जो जयदेव के यहां नहीं होती थी कि स्क्रिप्ट क्या लिखी जा रही है.फिल्म कामयाब होगी या नहीं होगी.वो अपना काम बेहतर से बेहतर करने की कोशिश करते थे.खय्याम फिल्म की कामयाबी को जरूरी समझते हैं इसलिए वो समझते हैं कि मेरे म्यूजिक की अहमियत उसी वक्त होगी, जब फिल्म कामयाब होगी.और शायद इसकी वजह से वो और लोगों के मुकाबले में ज्यादा सक्सेस हैं!

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