एक फिल्म पार्टी में दीप्ति नवल को देखकर हमारी बिरादरी के एक साथी ने हमें कुहनी मार कर पूछा- 'अच्छा यह बताओ, दीप्ति नवल में ऐसी क्या खास बात है कि टाॅप की हीरोईन बन गयी है? न कद न रूप सौंदर्य, न वसंती यौवन, न बाँकी तेज तर्राहट पिद्दी है पिद्दी। - पन्नालाल व्यास
हमने कहाः- दीप्ति में बस यही बातें नहीं है बाकी तो सब हैं।”
एक भी खास बात बताओ?
तुम थोड़ी देर के लिए उसके पास चले जाओ। यदि तुम्हें उसकी मंद-मंद झरने की तरह किलकारियाँ करती हँसी मोह न ले तो फिर कहना
वे पार्टी में काफी देर तक दीप्ति के आसपास चक्कर काटते रहे। फिर हमारे पास आकर कुहनी मार कर कहा- यार तुम्हारा ऑब्जर्वेशन कमाल है। वाकई में उसकी मुस्कराहट में जादू है।
यह तो उसकी एक खास बात हुई। दूसरी खास बात उसकी एक्ंिटग का कमाल है। वह कमाल की एक्टिंग करती है। क्यों तुमने उसकी ‘चश्मे बद्दूर’ नहीं देखी? ‘एक बार चले आओ’ और ‘रंग बिरंगी’ तो उसकी ताजा फिल्में हैं। जब तुम उसकी फिल्में ही नहीं देखते तो उस मामूली सी दिखने वाली पिद्दी हीरोईन के बारे में तुम क्या जानोगे? और कैसे समझोगे कि वह फस्र्ट क्लास हीरोईन है।
कुछ भी कहो, उसकी मंद मुस्कराहट से हमें बिना पिये ही नशा हो गया है।
और इस घटना के चंद दिनों बाद ही जब हमारी मुलाकात दीप्ति से हुई तो हमने उसकी हँसी से ही बातचीत का सूत कातते हुए कहाः-
क्यों तुम कभी खुल कर नहीं हँस सकती? हमने तो हमेशा तुम्हें चोर की तरह हँसते देखा है। कभी-कभी तो तुम मुँह छिपा कर तो कभी हथेली से मुँह ढाप कर तो कभी किताब की जिल्द की ओट में हँसती हो। हमने तो आज तक तुम्हारी खिलखिलाहट भरी हँसी नहीं देखी?
बस इतना भर जल को हिलाना था कि लहरें लहरा उठीं। वह खिलखिला कर इतने जोर से हँसी जैसे निर्झर ज्वार के साथ फूट पड़ा हो।
बड़ी मुश्किल से हँसी को रोक कर उसने कहाः-
मुझे तो आज आपके इस सवाल पर ही हँसी आ रही है। भला यह भी कोई इंटरव्यू की बात हुई
हाँ मन ने कहा आज जरा इंटरव्यू का रूख बदल लें तो कितना अच्छा रहे। हैंगओवर से चेंज ओवर करना बेहतरीन होता है।
वह फिर एक बार हँसी। फिर अपने को बाँध कर बोलीः- यह सच है, जीवन में कई बार ऐसे क्षण आते हैं जब हँसी एकाएक फूट पड़ती है। उसके पीछे एक राज और गहरी बात रहती है। कहकर दीप्ति ने अपनी नन्हीं मुन्नी भोली-भाली आँखों को टिमटिमा कर उन क्षणों को याद करते हुए कहाः- कुछ दिनों पहले जब दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में सक्रिय हिस्सा लिया तो कानों में भनक पड़ी कि मैं राष्ट्रीय अँवार्ड हासिल करने की नीयत से यहाँ चंद मंत्रियों और आॅफीसरों के सामने अपनी इमेज बना रही हूँ। यह सुनते ही मैं खिलखिला कर हँस पड़ी थी।
फिर एक बार जब मैं अपनी कविताओं को दिखाने के लिए और उस दिशा में सही प्रेरणा के लिए गुलजार साहब के पास गयी और फिर जब बराबर उनके पास जाने लगी तो लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि मैं गुलजार साहब के जीवन में राखी का स्थान लेने जा रही हूँ। यह सुनते ही मैं दिल खोल कर ठहाके के साथ हँस पड़ी।
मैं पिछली होली के दिन, होली के हृडदंग में भाग लेने के लिए आर०के० स्टूडियो गई तो जर्नलिस्टों ने लिख मारा के मैं राजकपूर की फिल्मों में काम करने के लिए उन्हें मस्का लगाने गई थी। यह सुनकर भी मैं जोरों से हँस पड़ी।
फिर उस दिन तो रियल लाइफ कॉमेडी ड्रामा हुआ जब इंकम टैक्स वाले राईफलों से लैंस दो पुलिसवालों को लेकर मेरे यहाँ आ धमके। उन्होंने मेरे सारे कमरे की खाक छान मारी। ज्यों-ज्यों वे मेरी चीजों को उथल-पुथल करते रहें। मैं बराबर हँसती रही क्या मिला उन्हें विदेशी टिकट और चिल्लर। मेरी हँसी के साथ उन्हें भी हँसी आ गयी। और वे खुद समझ नहीं पाये कि वे मेरे यहाँ जहाँ मैं पेईंग गेस्ट रहती हूँ क्यों आये? खोदा पहाड़ निकली चूहिया। शायद उन्हें भ्रम हो गया कि हीरोईन बनकर मैंने लाखों रुपये यहाँ वहाँ छुपा दिये होगें। कितना बड़ा भ्रम हो गया था मेरे बारे में। इसी भ्रम पर उस दिन मैं इतनी हँसी, इतनी हँसी कि हँसते हँसते पेट में बल पड़ गये। एक तरह से इनकम टैक्सवालों का यह छापा एक कॉमेडी सीन की तरह हो गया जो मैं जीवन भर नहीं भूल पाऊँगी।’
हमें तो ऐसा लगता है कि जब से तुमने रिज्वर्ड रहना छोड़ दिया है तुम्हारी चर्चा पहले से ज्यादा होने लगी है?
हाँ मेरा भी यही ख्याल हैं। पहले मैं बहुत जरूरत से ज्यादा ही रिज्वर्ड रहती थी। एलूफ रहती थी। उससे यह भ्रम पैदा हो गया कि आई एम वैरी डिफिकल्ट टू हैंडल।
मैडम आदत और लत छुड़ाये नहीं छुटती। आज भी देखो, तुम ज्योंही शॉट खत्म होता है अपने मेकअप रूम में जाकर किताब में खो जाती हो। सैट पर फोटू खिचवानें से तुम्हें आज भी एलर्जी है. जो बात पसंद नहीं आती उस पर ख्वामख्वाह नाक भौं सिकोड़ती रहती हो। ऐसा लगता आज भी डायरेक्टर से बहस करती रहती हो। ऐसा लगता है कि फिल्मी दुनिया में रह कर भी तुम कोई अलग किस्म की चिड़िया हो।
हमारे इस मंतव्य पर दीप्ति नवल जोरों से एक बार फिर हँस पड़ी और फिर कुछ गंभीर होकर बोलीः- बात यह है कि आई एम वैरी सेन्सेटिव पर्सन एण्ड आर्टिस्ट।
हमने देखा है कि तुम जितनी हल्की फुल्की कॉमेडी की मास्टर हो उतनी ही तुम इमोशनल और ट्रेजेडी रोल में जम जाती हो। एक आँख से हँसती तो और दूसरी आँख से रोती हो। यह चमत्कार कैसे कर लेती हो?
लाइफ भी दो पाटों के बीच है। या तो हँस लो या रो लो। मैं संसार की इस रीत को थोड़ी बदल सकती हूँ।
पर दोनों नावों पर सैर कैसे करोगी? या तो कॉमेडियन बनों या फिर ट्रेजेडियन।
आप तो ट्रेडीशन की बातें कर रहे हैं। मैं तो ट्रेडिशन को तोड़कर फिल्मों में आई हूँ। जिंदगी में नौ रस हैं मैं उन्हीं से भरी नौ प्रकार की भूमिकाएँ करना चाहती हूँ।
भयानक और विभत्स रस के रोल भी कर लोगी?
क्यों नहीं, बशर्ते वे रोल अपने आप में पूर्ण और शक्तिशाली हों।
चाहे तुम्हें बिकिनी पहननी पड़े?
वह हर्गिज नहीं होगा। चाहे मुझे फिल्मों में रहना पड़े या न रहना पड़े मैं अंग प्रदर्शन वाले न्यूड रोल नहीं करूंगी।
रोमांटिक रोल तो तुम कर ही रही हो?
हाँ, बेतुके रोमांटिक रोल भी अब तक ठुकराती आ रही हूँ। क्या बिना इमोशन्स के रोमांस होता है क्या। क्या रोमांस करने वाली लड़की साड़ी खोल देती है क्या? आखिर संस्कार भी तो कोई चीज हैं?
तो तुम संस्कारों में पूरी आस्था रखती हो?
हाँ, पूरी आस्था पर अंधविश्वास नहीं करती।
पर हमने तो पढ़ा था कि तुम तो सारी स्वातंत्रय (विमेन््स लिब-याने लिबरेशन) की जबरदस्त समर्थक हो?
हाँ हूँ क्यों नहीं। मैं चाहती हूँ कभी पुरूष के अधिकार और दायित्व में भेद न हो। मैं इस बात के कतई हक में नहीं हूँ कि लड़की एम०ए० करने के बाद घर में चूल्हा चैका करे। बर्तन मांजे और सास की डाँट फटकार सुने। मुझे उन पुरूषों से नफरत है जो औरत को अपनी हवस की पूर्ति की चीज समझते हैं
कि वह उनकी सेवाओं के लिए कोई मशीन है। यह सब मेरी नजर में पाखंड और पाप है। मैं तो इसके हक में हूँ कि नारी को पुरूषों के बराबर ही आदर, सम्मान और अवसर मिलने चाहिए। औरतें पुलिस और आई०जी०पी ० भी बननी चाहिए। वे केवल एयर होस्टेस नहीं पॉयलट भी बनें। इंजन ड्राइवर भी बने, जज भी बने, शासन की बागडोर सम्हालने वाली एग्जीक्यूटिव भी बने।
पर तुम तो केवल ग्लैमर दुनिया की हीरोईन हो?
पर मैं किसी की गुलाम नहीं हूँ। मैं अपने कार्य क्षेत्र में पूरी तरह स्वतंत्र हूँ।
पर नाचती तो डायरेक्टर के इशारे पर ही हो। हमने उसे चिढ़ाने के लिए कहा।
उसने तिलमिला कर कहाः- यह सही नहीं है। हीरोईन के बतौर मेरा आस्तित्व इन्डिपेन्डेंट है। और फिर यह प्रोफेशन है, जॉब है। मैं इस प्रोफेशन में अपनी मर्जी के अनुसार उड़ान भर सकती हूूँ।
तो कल तुम डायरेक्टर भी बन सकती हो?
बेशक, क्यों नहीं! साई परांजपे को डायरेक्शन करते देखती हूँ तो मन बेचैन हो उठता है सोचती हूँ मैं भी डायरेक्टर क्यों न बन जाऊँ।
साई परांजपे की फिल्म कथा में तुम्हारा क्या रोल है?
कोई बहुत बड़ा रोल नहीं है। मैंने उस फिल्म में पूना स्थित एक चाल में रहने वाली लड़की का रोल किया है। पर मैं तो कभी किसी चाल में रही नहीं। मैं उसके बारे में सोच रही थी कि साई परांजपे ने वह कठिनाई दूर कर दी। कुशल डायरेक्टर होने के नाते उन्होंने मेरे भीतर से वह निकाल लिया जो उस रोल के लिए जरूरी था। उनकी ‘चश्मे बद्दूर’ में मैंने जिस लड़की का रोल किया उसके संस्कारों से मैं पूरी तरह वाकिफ थी। वह मेरे लिए कोई पराई लड़की नहीं थी। पर कथा वाली लड़की मेरे लिए एकदम पराई थी। पर साई परांजपे का कहना है कि मैंने इस कठिन रोल का निर्वाह कर लिया है। फिल्म देखने के बाद आप अपनी राय जरूर बताईयेगा।
और आने वाली फिल्में?
बहुत सी हैं। ऋषि दा ने ‘रंग बिरंगी’ के बाद मुझे अपनी अगली फिल्म में भी लिया है। रंग बिरंगी में तो आपने मुझे देखा ही होगा। महेश भट्ट की ‘अर्थ’ के बाद अगली बनने वाली फिल्म के लिए मेरा चुनाव हो गया है। उसमें मैं पेंट कोट टाई वाली लड़की हूँ। ‘रास्ते और रिश्ते’! लगभग तैयार है। ‘छाया’ फिल्म भी पूरी हो चुकी है। फिल्मों की संख्या और नाम गिना कर मैं पब्लिसिटी नहीं करना चाहती। पब्लिसिटी मेरा काम है जिसके प्रति मैं पुरी तरह समर्पित हूँ।
इस इंटरव्यू के कुछ दिनों बाद ही खबर पढ़ने को मिली कि साई परांजपे को उनकी फिल्म “कथा” पर सर्वश्रेष्ठ डायरेक्शन का राष्ट्रीय अँवार्ड मिला है। तब से हम दीप्ति को यहाँ वहाँ ढूंढ रहे हैं कि मिले तो उसे भी बधाई दें। साई परांजपे को तो हमने फोन से बधाई दे दी।
दीप्ति की बधाई हमारी मुट्ठी में हैं। जब भी मिलेगी हम उसे दे देंगे।
यह लेख दिनांक 17-07-1983 मायापुरी के पुराने अंक 460 से लिया गया है!
एक फिल्म पार्टी में दीप्ति नवल को देखकर हमारी बिरादरी के एक साथी ने हमें कुहनी मार कर पूछा- 'अच्छा यह बताओ, दीप्ति नवल में ऐसी क्या खास बात है कि टाॅप की हीरोईन बन गयी है? न कद न रूप सौंदर्य, न वसंती यौवन, न बाँकी तेज तर्राहट पिद्दी है पिद्दी। - पन्नालाल व्यास
हमने कहाः- दीप्ति में बस यही बातें नहीं है बाकी तो सब हैं।”
एक भी खास बात बताओ?
तुम थोड़ी देर के लिए उसके पास चले जाओ। यदि तुम्हें उसकी मंद-मंद झरने की तरह किलकारियाँ करती हँसी मोह न ले तो फिर कहना
वे पार्टी में काफी देर तक दीप्ति के आसपास चक्कर काटते रहे। फिर हमारे पास आकर कुहनी मार कर कहा- यार तुम्हारा ऑब्जर्वेशन कमाल है। वाकई में उसकी मुस्कराहट में जादू है।
यह तो उसकी एक खास बात हुई। दूसरी खास बात उसकी एक्ंिटग का कमाल है। वह कमाल की एक्टिंग करती है। क्यों तुमने उसकी ‘चश्मे बद्दूर’ नहीं देखी? ‘एक बार चले आओ’ और ‘रंग बिरंगी’ तो उसकी ताजा फिल्में हैं। जब तुम उसकी फिल्में ही नहीं देखते तो उस मामूली सी दिखने वाली पिद्दी हीरोईन के बारे में तुम क्या जानोगे? और कैसे समझोगे कि वह फस्र्ट क्लास हीरोईन है।
कुछ भी कहो, उसकी मंद मुस्कराहट से हमें बिना पिये ही नशा हो गया है।
और इस घटना के चंद दिनों बाद ही जब हमारी मुलाकात दीप्ति से हुई तो हमने उसकी हँसी से ही बातचीत का सूत कातते हुए कहाः-
क्यों तुम कभी खुल कर नहीं हँस सकती? हमने तो हमेशा तुम्हें चोर की तरह हँसते देखा है। कभी-कभी तो तुम मुँह छिपा कर तो कभी हथेली से मुँह ढाप कर तो कभी किताब की जिल्द की ओट में हँसती हो। हमने तो आज तक तुम्हारी खिलखिलाहट भरी हँसी नहीं देखी?
बस इतना भर जल को हिलाना था कि लहरें लहरा उठीं। वह खिलखिला कर इतने जोर से हँसी जैसे निर्झर ज्वार के साथ फूट पड़ा हो।
बड़ी मुश्किल से हँसी को रोक कर उसने कहाः-
मुझे तो आज आपके इस सवाल पर ही हँसी आ रही है। भला यह भी कोई इंटरव्यू की बात हुई
हाँ मन ने कहा आज जरा इंटरव्यू का रूख बदल लें तो कितना अच्छा रहे। हैंगओवर से चेंज ओवर करना बेहतरीन होता है।
वह फिर एक बार हँसी। फिर अपने को बाँध कर बोलीः- यह सच है, जीवन में कई बार ऐसे क्षण आते हैं जब हँसी एकाएक फूट पड़ती है। उसके पीछे एक राज और गहरी बात रहती है। कहकर दीप्ति ने अपनी नन्हीं मुन्नी भोली-भाली आँखों को टिमटिमा कर उन क्षणों को याद करते हुए कहाः- कुछ दिनों पहले जब दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में सक्रिय हिस्सा लिया तो कानों में भनक पड़ी कि मैं राष्ट्रीय अँवार्ड हासिल करने की नीयत से यहाँ चंद मंत्रियों और आॅफीसरों के सामने अपनी इमेज बना रही हूँ। यह सुनते ही मैं खिलखिला कर हँस पड़ी थी।
फिर एक बार जब मैं अपनी कविताओं को दिखाने के लिए और उस दिशा में सही प्रेरणा के लिए गुलजार साहब के पास गयी और फिर जब बराबर उनके पास जाने लगी तो लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि मैं गुलजार साहब के जीवन में राखी का स्थान लेने जा रही हूँ। यह सुनते ही मैं दिल खोल कर ठहाके के साथ हँस पड़ी।
मैं पिछली होली के दिन, होली के हृडदंग में भाग लेने के लिए आर०के० स्टूडियो गई तो जर्नलिस्टों ने लिख मारा के मैं राजकपूर की फिल्मों में काम करने के लिए उन्हें मस्का लगाने गई थी। यह सुनकर भी मैं जोरों से हँस पड़ी।
फिर उस दिन तो रियल लाइफ कॉमेडी ड्रामा हुआ जब इंकम टैक्स वाले राईफलों से लैंस दो पुलिसवालों को लेकर मेरे यहाँ आ धमके। उन्होंने मेरे सारे कमरे की खाक छान मारी। ज्यों-ज्यों वे मेरी चीजों को उथल-पुथल करते रहें। मैं बराबर हँसती रही क्या मिला उन्हें विदेशी टिकट और चिल्लर। मेरी हँसी के साथ उन्हें भी हँसी आ गयी। और वे खुद समझ नहीं पाये कि वे मेरे यहाँ जहाँ मैं पेईंग गेस्ट रहती हूँ क्यों आये? खोदा पहाड़ निकली चूहिया। शायद उन्हें भ्रम हो गया कि हीरोईन बनकर मैंने लाखों रुपये यहाँ वहाँ छुपा दिये होगें। कितना बड़ा भ्रम हो गया था मेरे बारे में। इसी भ्रम पर उस दिन मैं इतनी हँसी, इतनी हँसी कि हँसते हँसते पेट में बल पड़ गये। एक तरह से इनकम टैक्सवालों का यह छापा एक कॉमेडी सीन की तरह हो गया जो मैं जीवन भर नहीं भूल पाऊँगी।’
हमें तो ऐसा लगता है कि जब से तुमने रिज्वर्ड रहना छोड़ दिया है तुम्हारी चर्चा पहले से ज्यादा होने लगी है?
हाँ मेरा भी यही ख्याल हैं। पहले मैं बहुत जरूरत से ज्यादा ही रिज्वर्ड रहती थी। एलूफ रहती थी। उससे यह भ्रम पैदा हो गया कि आई एम वैरी डिफिकल्ट टू हैंडल।
मैडम आदत और लत छुड़ाये नहीं छुटती। आज भी देखो, तुम ज्योंही शॉट खत्म होता है अपने मेकअप रूम में जाकर किताब में खो जाती हो। सैट पर फोटू खिचवानें से तुम्हें आज भी एलर्जी है. जो बात पसंद नहीं आती उस पर ख्वामख्वाह नाक भौं सिकोड़ती रहती हो। ऐसा लगता आज भी डायरेक्टर से बहस करती रहती हो। ऐसा लगता है कि फिल्मी दुनिया में रह कर भी तुम कोई अलग किस्म की चिड़िया हो।
हमारे इस मंतव्य पर दीप्ति नवल जोरों से एक बार फिर हँस पड़ी और फिर कुछ गंभीर होकर बोलीः- बात यह है कि आई एम वैरी सेन्सेटिव पर्सन एण्ड आर्टिस्ट।
हमने देखा है कि तुम जितनी हल्की फुल्की कॉमेडी की मास्टर हो उतनी ही तुम इमोशनल और ट्रेजेडी रोल में जम जाती हो। एक आँख से हँसती तो और दूसरी आँख से रोती हो। यह चमत्कार कैसे कर लेती हो?
लाइफ भी दो पाटों के बीच है। या तो हँस लो या रो लो। मैं संसार की इस रीत को थोड़ी बदल सकती हूँ।
पर दोनों नावों पर सैर कैसे करोगी? या तो कॉमेडियन बनों या फिर ट्रेजेडियन।
आप तो ट्रेडीशन की बातें कर रहे हैं। मैं तो ट्रेडिशन को तोड़कर फिल्मों में आई हूँ। जिंदगी में नौ रस हैं मैं उन्हीं से भरी नौ प्रकार की भूमिकाएँ करना चाहती हूँ।
भयानक और विभत्स रस के रोल भी कर लोगी?
क्यों नहीं, बशर्ते वे रोल अपने आप में पूर्ण और शक्तिशाली हों।
चाहे तुम्हें बिकिनी पहननी पड़े?
वह हर्गिज नहीं होगा। चाहे मुझे फिल्मों में रहना पड़े या न रहना पड़े मैं अंग प्रदर्शन वाले न्यूड रोल नहीं करूंगी।
रोमांटिक रोल तो तुम कर ही रही हो?
हाँ, बेतुके रोमांटिक रोल भी अब तक ठुकराती आ रही हूँ। क्या बिना इमोशन्स के रोमांस होता है क्या। क्या रोमांस करने वाली लड़की साड़ी खोल देती है क्या? आखिर संस्कार भी तो कोई चीज हैं?
तो तुम संस्कारों में पूरी आस्था रखती हो?
हाँ, पूरी आस्था पर अंधविश्वास नहीं करती।
पर हमने तो पढ़ा था कि तुम तो सारी स्वातंत्रय (विमेन््स लिब-याने लिबरेशन) की जबरदस्त समर्थक हो?
हाँ हूँ क्यों नहीं। मैं चाहती हूँ कभी पुरूष के अधिकार और दायित्व में भेद न हो। मैं इस बात के कतई हक में नहीं हूँ कि लड़की एम०ए० करने के बाद घर में चूल्हा चैका करे। बर्तन मांजे और सास की डाँट फटकार सुने। मुझे उन पुरूषों से नफरत है जो औरत को अपनी हवस की पूर्ति की चीज समझते हैं
कि वह उनकी सेवाओं के लिए कोई मशीन है। यह सब मेरी नजर में पाखंड और पाप है। मैं तो इसके हक में हूँ कि नारी को पुरूषों के बराबर ही आदर, सम्मान और अवसर मिलने चाहिए। औरतें पुलिस और आई०जी०पी ० भी बननी चाहिए। वे केवल एयर होस्टेस नहीं पॉयलट भी बनें। इंजन ड्राइवर भी बने, जज भी बने, शासन की बागडोर सम्हालने वाली एग्जीक्यूटिव भी बने।
पर तुम तो केवल ग्लैमर दुनिया की हीरोईन हो?
पर मैं किसी की गुलाम नहीं हूँ। मैं अपने कार्य क्षेत्र में पूरी तरह स्वतंत्र हूँ।
पर नाचती तो डायरेक्टर के इशारे पर ही हो। हमने उसे चिढ़ाने के लिए कहा।
उसने तिलमिला कर कहाः- यह सही नहीं है। हीरोईन के बतौर मेरा आस्तित्व इन्डिपेन्डेंट है। और फिर यह प्रोफेशन है, जॉब है। मैं इस प्रोफेशन में अपनी मर्जी के अनुसार उड़ान भर सकती हूूँ।
तो कल तुम डायरेक्टर भी बन सकती हो?
बेशक, क्यों नहीं! साई परांजपे को डायरेक्शन करते देखती हूँ तो मन बेचैन हो उठता है सोचती हूँ मैं भी डायरेक्टर क्यों न बन जाऊँ।
साई परांजपे की फिल्म कथा में तुम्हारा क्या रोल है?
कोई बहुत बड़ा रोल नहीं है। मैंने उस फिल्म में पूना स्थित एक चाल में रहने वाली लड़की का रोल किया है। पर मैं तो कभी किसी चाल में रही नहीं। मैं उसके बारे में सोच रही थी कि साई परांजपे ने वह कठिनाई दूर कर दी। कुशल डायरेक्टर होने के नाते उन्होंने मेरे भीतर से वह निकाल लिया जो उस रोल के लिए जरूरी था। उनकी ‘चश्मे बद्दूर’ में मैंने जिस लड़की का रोल किया उसके संस्कारों से मैं पूरी तरह वाकिफ थी। वह मेरे लिए कोई पराई लड़की नहीं थी। पर कथा वाली लड़की मेरे लिए एकदम पराई थी। पर साई परांजपे का कहना है कि मैंने इस कठिन रोल का निर्वाह कर लिया है। फिल्म देखने के बाद आप अपनी राय जरूर बताईयेगा।
और आने वाली फिल्में?
बहुत सी हैं। ऋषि दा ने ‘रंग बिरंगी’ के बाद मुझे अपनी अगली फिल्म में भी लिया है। रंग बिरंगी में तो आपने मुझे देखा ही होगा। महेश भट्ट की ‘अर्थ’ के बाद अगली बनने वाली फिल्म के लिए मेरा चुनाव हो गया है। उसमें मैं पेंट कोट टाई वाली लड़की हूँ। ‘रास्ते और रिश्ते’! लगभग तैयार है। ‘छाया’ फिल्म भी पूरी हो चुकी है। फिल्मों की संख्या और नाम गिना कर मैं पब्लिसिटी नहीं करना चाहती। पब्लिसिटी मेरा काम है जिसके प्रति मैं पुरी तरह समर्पित हूँ।
इस इंटरव्यू के कुछ दिनों बाद ही खबर पढ़ने को मिली कि साई परांजपे को उनकी फिल्म “कथा” पर सर्वश्रेष्ठ डायरेक्शन का राष्ट्रीय अँवार्ड मिला है। तब से हम दीप्ति को यहाँ वहाँ ढूंढ रहे हैं कि मिले तो उसे भी बधाई दें। साई परांजपे को तो हमने फोन से बधाई दे दी।
दीप्ति की बधाई हमारी मुट्ठी में हैं। जब भी मिलेगी हम उसे दे देंगे।
यह लेख दिनांक 17-07-1983 मायापुरी के पुराने अंक 460 से लिया गया है!