(उद्योग में लेखजी के नाम से प्रसिद्ध) लेखराज टंडन का जन्म पंजाब के जिले किला शेखूपुरा के तहसील ननकाना साहब के गांव चक चैदह में हुआ था, जो वर्तमान में पाकिस्तान में है. जिसके लगभग 30 मील की दूरी पर लाहौर हैं. उनके दादा जयकिशन टंडन साहूकार किसान थे, और उनकी दादी का नाम राधा देवी था. लेखजी के नाना जेलदार गंगाराम ने कानूनगो के रूप में 14 गांवों की अध्यक्षता (अधिकारपद पर बैठना) करते थे. लेख टंडन के पिता फकीरचंद और माता रामप्यारी टंडन ने अपने बेटे लेख को पांच भाइयों और दो बहनों में सबसे बड़ा माना. पिता फकीरचंद ने खालसा स्कूल से पढाई कि और अपने सहपाठी पृथ्वीराज कपूर के साथ आजीवन मित्रता निभाई. उन्होंने पंजाब सरकार में राजस्व और एक्साइज विभाग के लिए भी काम किया था.
लेख टंडन धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संरेखण (अलाइन्मन्ट) का जमकर समर्थन करते थे. यहां तक कि जब वह अपनी किशोरावस्था में थे, तब उन्होंने रानी को बचाने के लिए भगवान का सम्मान नहीं करने के लिए, मुरी (एक शानदार हिल स्टेशन, जो अब पाकिस्तान में है) में एक फिल्म थियेटर में ब्रिटिश सैनिकों से टक्कर ली थी. 18 साल की उम्र में, उन्हें माता-पिता द्वारा 11 अगस्त, 1947 को दिल्ली भेज दिया गया था, (जिस दौरान सुलगते तनाव ने देश को अस्त व्यस्त कर दिया था) और वह अगले दिन दिल्ली पहुंच गए थे. उनके माता-पिता और परिवार 25 अगस्त, 1947 को सांप्रदायिक विनाश से बचने के बाद दिल्ली आ गए थे. लेखी के पास उस दर्दनाक युग की चैंकाने वाली दास्तां है. उस शमेलेस कनाइवन्स को सफलतापूर्वक इतिहास में दर्ज किए जाने से रोक दिया गया और विभाजन की कहानियों से अलग रखा गया. उन दर्दनाक दिनों के निशान ने शायद लेखजी और गहन भावनात्मक व्यक्तित्व को एक विशेषता बना दिया है जो उनके काम में भी दिखाई देता है.
लेख टंडन एक ऑल राउंडर थे, पूरी तरह से फिल्म के सभी ह्यूजेस के साथ बातचीत कर रहे थे कि प्रसिद्ध दिग्गजों से उनके रचनात्मक सालो से पाए ज्ञान ने उन्हें अच्छी जगह ला खड़ा किया था. और यह सारी नॉलेज उन्हें लीजेंडरी सिनेमेटिक क्राफ्ट्समैन के वोर्किंग स्टाइल्स के संपर्क में आने से आई.
एक युवा लेख टंडन 17 सितंबर, 1947 को अपने पिता के प्रिय मित्र पृथ्वीराज कपूर के कहने पर उनके बेटे राज कपूर के ब्रांड आर. के. फिल्म्स के नए बैनर के साथ शामिल होने के लिए मुंबई पहुंचे. लेखजी राज कपूर द्वारा निर्दशित फिल्म “आग” में कैमरामैन वी. एन .रेड्डी के असिस्टेंट थे, फिल्म नरगिस, कामिनी कौशल, निगार और राज कपूर द्वारा अभिनीत थी. चाचा अमरनाथजी (पृथ्वीराज कपूर के भाई) ने बाद में लेखजी को रणजीत लेबोरेटरीज में शामिल कर लिया और उन्होंने अमर कपूर के अंडर फिल्म प्रोसेसिंग सीखी. राज कपूर ने उन्हें अपने गुरु के रूप में निर्देशक किदार शर्मा से मिलवाया. शर्माजी ने एक बार लेबोरेटरी का दौरा किया और एक युवा लेख टंडन को एक फोटोग्राफी पत्रिका पढ़ते हुए पाया. उनके उत्साह ने शर्माजी को खूब प्रभावित किया था और उन्होंने जल्द ही उन्हें अपने चीफ असिस्टेंट के रूप में ओरिएंटल पिक्चर्स में शामिल कर लिया. लेखजी ने किदार शर्मा की इन फिल्मों ठेस (1949- भारत भूषण, पूर्णिमा), नेकी और बदी (1949- मधुबाला, गीता बाली, किदार शर्मा), बावरे नैन (1950- गीता बाली, राज कपूर), जोगन (1950- दिलीप कुमार, नरगिस), बेदर्दी (1951- गीता बाली, निम्मी, जसवंत), शोखियाँ (1951 सुरैया, प्रेमनाथ) और सपना (1952- बीना राय, किशोर साहू) में सहायता करते हुए डायरेक्शन सिखा था.
लेखजी ने स्वतंत्र निदेशक बनने के लिए 1957 में आर. के. फिल्म्स को छोड़ने का विकल्प चुना था. वह अपने अंकल पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर में शामिल हुए और यहां तक कि उनके एकमात्र निर्देशन में बनी फिल्म ‘पैसा’ (1958) में भी उनकी सहायता की. उन्होंने निर्देश में ब्रेक पाने के लिए कई प्रयास किए लेकिन उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई. निराश होकर, उन्होंने दिल्ली में अपने पिता के पास लौट जाने का मन बना लिया था, लेकिन श्रीमती कृष्णा राज कपूर ने उन्हें यही रहने और कोशिश जारी रखने के लिए राजी किया था.
1955, लेख टंडन के जीवन का एक बहुत ही खास साल था, उन्होंने सावरन नमक एक अद्भुत महिला से शादी की थी, जो हर स्थिति में उनके साथ खड़ी रही और उन्हें अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रेरित करती रही. लेख अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते थे और उनका इतना सम्मान करते थे की वह उन्हें ‘माँ’ कहा करते थे. और वह दो लड़को और दो लडकियों के पैरेंट्स थे. हो सकता है कि लेखजी अपने जीवन में आए अन्य प्रकार के आकर्षक के बारे में सोच कर खूब हसे हों, लेकिन लेख और सावरन के बीच का संबंध कुछ ऐसा माना जाने वाला था जो वास्तव में उन सभी लोगों द्वारा सिखने योग्य था, जो करीब और एक दुसरे से जुड़े रहने का सपना देखते हैं.
उनके संघर्ष के अंतिम पचास के दशक में, यह जल्द ही लेखजी पर हावी हो गया कि उन्हें एक फुल प्रोजेक्ट कांसेप्ट को विकसित करना होगा और पूरी फिल्म की स्क्रिप्ट को तैयार करना होगा. उन्होंने ‘प्रोफेसर’ के कांसेप्ट को डेवेलोप किया. लेखक अबरार अल्वी (व्यवसाय में सर्वश्रेष्ठ में से एक) के साथ उनकी लंबी दोस्ती काम आई और बाद में उन्होंने एक शानदार स्क्रिप्ट तैयार की. लेखजी खुद इस फिल्म का निर्माण करना चाहते थे, लेकिन हर कोई इस प्रोजेक्ट से किनारा कर रहा था. ईगल फिल्म्स के निर्माता एफ. सी. मेहरा ने इस ड्रीम प्रोजेक्ट को निर्देशित करने के लिए लेख टंडन को साइन किया, जो सुपर डुपर गोल्डन जुबली हिट बन गया और इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई.
यह एक ऐसे व्यक्ति की गाथा थी जिसे किसी भी प्रकार की बाधाओं से नहीं रोका जा सकता था. वह एक के बाद एक बड़ी फिल्में बनाते रहे और प्रिंस, आम्रपाली, झूक गया आसमान, आगर तुम ना होते, एक बार कहो, दुल्हन वोही जो पिया मन भाए, दूसरी दुल्हन और कुछ अन्य सार्थक फिल्मों के साथ अपने लिए जगह बनाई और संगीत के साथ अच्छे और स्वस्थ मनोरंजन का मिश्रण किया. उनकी एकमात्र ऐसी फिल्म जो फ्लॉप हुई, ‘झूक गया अस्समान’ थी जिसमें राजेंद्र कुमार और सायरा बानो के बीच गहन प्रेम दृश्य थे, जिसके कारण दोनों के विवाहित होने के बावजूद उनके अफेयर की अफवाहें सामने आई थीं.
लेखजी ने तब टीवी सीरियल बनाने के लिए अपने इंटरेस्ट को शिफ्ट कर दिया और 15 से अधिक मेगा सीरियल बनाए और उन्हें ‘दिल दरिया’ और ‘दूसरा केवल’ से एक नए अभिनेता को खोजने का अवसर मिला. वह नया अभिनेता शाहरुख खान था.
यह एक तरह का चमत्कार था, जब डॉ.त्रिनेत्र बाजपाई नामक एक प्रसिद्ध केमिकल इंजीनियर 18 साल बाद मुंबई आए और लेखजी से मिले जिनके उस समय वह एक बड़े प्रशंसक थे. उन्होंने बताया कि वह तब केवल 11 साल के थे जब उन्होंने लखनऊ के एक थिएटर में अपनी मां (शांति कुमारी बाजपेयी जो की एक प्रसिद्ध हिंदी लेखक थीं) के साथ लेखजी की सुपर हिट फिल्म ‘प्रोफेसर’ देखी थी. उन्होंने उस वक्त अपनी मां से कहा था कि वह एक दिन एक फिल्म बनाएंगे, जिसे लेख टंडन निर्देशित करेगे. डॉ. बाजपाई का वह सपना जल्द सच होने वाला था. डॉ. बाजपाई के पास अपनी माँ द्वारा लिखी गई एक कहानी ष्व्यवधानष् थी, जिस पर 70 के दशक में बी.आर चोपड़ा और विजय आनंद जैसे निर्देशक फिल्म बनाने के लिए उत्सुक थे, लेकिन बात नहीं बनी. लेखजी ने डॉ.बाजपाई से कहा कि इस कहानी को एक मेगा सीरियल के रूप में दिखाया जा सकता है. और इसे फिर एक सीरियल ‘बखरी आस निखरी प्रीत’ के रूप में दिखाया गया, जो सबसे लंबे समय तक चला था. सीरियल की सफलता से लेखजी ने ओर भी कई सीरियल किए. उन्होंने डॉ. बाजपाई के लिए ट्रिपल तालक के मुद्दे पर एक फीचर फिल्म बनाई और उस दौरान वह अपने 80 के दशक में थे जब वह एक दिन में 18 घंटे काम किया करते थे और उनके स्वास्थ्य ने उनका साथ देने से इंकार कर दिया था लेकिन वह तब तक काम करते रहे जब तक वह हार नहीं गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और फिर वह वहा से जीवित नहीं लौटे थे. एक बड़ा अध्याय समाप्त हो गया था.
लेखजी एक ऐसे अभिनेता भी थे जिनकी प्रतिभा को अंत तक ही पहचाना गया था और उन्होंने ‘मंगल पांडे’, ‘पहेली’ और यहां तक कि ‘फिर उसी मोड़ पर’ जैसी फिल्मों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो एक निर्देशक के रूप में उनकी फेयरवेल फिल्म थी और वह तब 88 वर्ष के थे.
मैं उन्हें एक महान फिल्म निर्माता के रूप में तो याद करूंगा ही, लेकिन मैं उन्हें एक अच्छे इंसान के रूप में ज्यादा याद करूंगा, जो फिल्म इंडस्ट्री नामक बाजार में एक ‘मिसफिट’ थे, जहां अच्छा होना लगभग एक पाप तो है ही बल्कि एक तरह का अपराध भी है.