तब्बू के साथ काम करने के लिए लेखन के दौरान ही पुरूष किरदार को महिला में बदल दिया By Mayapuri 11 Sep 2022 | एडिट 11 Sep 2022 09:30 IST in ताजा खबर New Update Follow Us शेयर ‘मकड़ी’, ‘मकबूल’, ‘ओमकारा’, ‘सात खून माफ’, ‘हैदर’, ‘रगून’ व ‘पटाखा’ जैसी फिल्मों के सर्जक विशाल भारद्वाज इस बार एक महिला जासूस की कहानी को फिल्म ‘‘खुफिया’’ में लेकर आ रहे हैं, जो कि सितंबर माह में ही ओटीटी प्लेटफाॅर्म पर स्ट्रीम होने वाली है. इस फिल्म का टीजर हाल ही में ‘नेटफ्लिक्स’ ने एक समारोह में जारी किया. इस अवसर पर अभिनेत्री तब्बू के साथ खुद लेखक, निर्माता, निर्देशक व संगीतकार विशाल भारद्वाज मौजूद थे. प्रेस काॅन्फ्रेंस में पत्रकारों के सवालों को एंकर मनीष पाॅल ने विशाल भारद्वाज से पूछा और विशाल भारद्वाज ने खुलकर उनके जवाब दिए. जिसे हम यहां ज्यों का त्यों पेश कर रहे हैं. जब आप फिल्म ‘खुफिया’ लिख रहे थे तब आपके दिमाग में कृष्णा के किरदार के लिए तब्बू ही थी? - देखिए, यह फिल्म ‘राॅ’ में काउंटर एस्पियनेज युनिट की मुखिया रहे अमर भूषण की किताब ‘‘एस्केप नो व्हेअर’’ पर आधारित है. इस किताब में जो किरदार है, वह पुरूष है, मगर हमने उसका लिंग बदलकर उसे महिला जासूस बना दिया. क्योंकि मेरे लिए पुरूष किरदार ज्यादा उत्साहित करने वाला नहीं था. पर जैसे ही मैंने उसे महिला बनाया, एक अलग तरह का उत्साह आ गया. फिर महिला किरदार के लिए तब्बू से बेहतर कोई अदाकारा नहीं हो सकती थी. वैसे भी तब्ब्ूा के साथ काम करने के लिए मुझे कारण चाहिए था. मेरे लिए किसी भी फिल्म को बनाने का मतलब होता है कि उस फिल्म में किस तरह तब्बू को जोड़ा जाए. इस फिल्म को करने के लिए किस बात ने प्रेरित किया? - हम जब भी इस तरह की फिल्में बनाते हैं, तो उसमेें स्पाय थ्रिलर और एस्पियनेज एक साथ मिल जाते हैं. मगर फिल्म में एस्पियनेज ऊपर आ जाता है. ब्राँड वाली फिल्में उसी तरह की है. तो मुझे लगा कि एक इंटेलीजेंस इंसान की जो जिंदगी होती है, उसे बयां करना रोचक होगा. क्योंकि उसे बिल्कुल भी बाहर नहीं आना होता है. वह हमेशा परछाईं के रूप में या यॅूं कहें कि साए में रहता है. यह काफी रोचक होता है. हमारी जो ‘राॅ’ एजेंसी है, वह खुलकर लोगों के सामने नहीं आना चाहती. राॅ हमेशा रहस्य के अंदर ही रहना चाहती है. जबकि विदेशों में सीआईए या एफबीआई की कहानियां आए दिन बाहर आती रहती हैं. उनकी कहानियों पर ढेर सारी फिल्में बनी हैं. पर हमारे यहां सब कुछ सेक्रेटिव है. जब मैंने अमर भूषण का यह उपन्यास पढ़ा, तो बहुत ही रोचक व अनूठा लगा. पूरा उपन्यास ‘राॅ’ कंे अंदर ही रखा गया है. पूरे घटनाक्रम वगैरह बहुत विस्तार से लिखे गए हैं. इस उपन्यास में 2004 में घटित एस्पियनेज को लिखा गया है. और उस वक्त ऑफिस में क्या चल रहा था, उसका किताब में विस्तार से वर्णन है. यह विस्तारित कथा मेरे लिए काफी रोचक थी. उसे फिल्म में ढालना, उसके अंदर ड्रामा क्रिएट करना मेरे लिए आसान था. पर उसमें कितना सच है और कितना फिक्शन है, इसका अहसास फिल्म देखने पर ही पता चलेगा. किसी कहानी को पर्दे पर लाने का निर्णय लेते वक्त आप उसमें क्या देखते हैं? फिल्म मेकिंग का प्रोसेस काफी कठिन है. इसके लिए कठिन कमिटमेंट करना होता है. एक बार कहानी चुन ली, तो फिर दो वर्ष तक हमारी जिंदगी में उसके सिवा कुछ नहीं होता है. तो उस कमिटमेंट में जाने के लिए उतनी ही सशक्त कहानी होनी चाहिए. मगर कहानी को पढ़ते हुए हमें अहसास हो जाता है कि इस पर फिल्म बनानी चाहिए या नहीं. मैं ऐसी कहानी का हमेशा इंतजार करता हूं. जब हमें अंदर से लगता है कि इस कहानी के लिए हम दो वर्ष की पीड़ा सहन कर सकते हैं, तब उस पर काम करता हँू. फिर उस कहानी में वक्त के साथ साथ हमारा खून पसीना सब कुछ लग जाता है. हकीकत में ऐसी कहानियां अपने आप आपको खींच लेती हैं. ऐसा मेरे साथ ‘मकबूल’ में हुआ. ‘हैदर’ में हुआ. आप हर फिल्म में लेखक, निर्देशक, निर्माता, संगीतकार सब कुछ होते हैं. एक साथ इतनी जिम्मेदारियंा संभालना आसान होता है? आपने ‘खुफिया’ के लिए कुछ खास तैयारी की? तैयारी तो हर फिल्म के समय करनी पड़ती है. जब आप ढेर सारा काम कर लेते हैं, तो स्पांटेनियस आ ही जाता है. तब्बू या नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकार जब अपने ढंग से तैयारी करके सेट पर पहुँचते हैं और कैमरे के सामने दृश्य करने लगते हैं, तब हमारी अपनी तैयारी धरी की धरी रह जाती है. सेट पर अक्सर मैजिक मोमेंट आते हैं. हम हमेशा बदलाव के लिए तैयार रहते हैं. पर होमवर्क करना आवश्यक है. सेट पर हम अक्सर बदलाव करते हैं. फिल्म मेंकिंग के दौरान कोई भी चीज परफैक्ट नहीं होती है. आप पूरी तैयारी करके सेट पर जाते हैं कि आज यह सब सफल हो जाएगा, पर वैसा कभी नही होता. कभी भी कोई भी समस्या आ सकती है. एक गाड़ी हम रोज चलाते हैं, पर जिस दिन कलाकार को शूटिंग के वक्त उसे चलाना होता है, तो पता चलता है कि वह चल ही नहीं रही है. तो कुछ भी हो सकता है. ‘खुफिया’ की शूटिंग के दौरान हमें कई किरदार बदलने पड़े. मेरी राय में स्पांटेनिटी आ ही सकती है, जब आप जिस प्लेटफाॅर्म पर हैं, उसको लेकर आपकी अपनी पूरी तैयारी है. अन्यथा स्पांटेनियस होने के प्रयास में आप गलत निर्णय ले सकते हैं. आपने कभी किसी फिल्म में अभिनय नहीं किया? -मैं बहुत खराब अभिनेता हॅूं. मैं कैमरे के पीछे ही खुद को सहज महसूस करता हॅूं. अपने बारे में पता होना आवश्क है कि आप कितने बड़े बेवकूफ हैं,तब आप बेवकूफ नहीं रह जाते. #Tabu हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article