अब तब शायद ही फिल्म देखते वक्त दर्शकों ने कभी यह सोचा होगा कि पर्दे पर शानदार रंग बिरंगे वस्त्र धारण करने वाली हीरोईन के यह खूबसूरत कपड़े किसने डिजाईन किये होंगे ?...... जिन पोशाक के बल बूते पर यह पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण दिखने वाली हीरोईन अपने चरित्र से पूरा न्याय कर पा रही है उनके यह कपड़े? की सज्जा किसने की
दर्शक 'बाबी' फिल्म रिलीज होते ही बॉबी स्कर्ट पहनने के शौकीन हो गये 'नूरी' के देखते ही कश्मीरी कपड़ों के शौकीन हो गये. 'हरे रामा हरे कृष्णा' के साथ ही जीनत की जीन्स गली गली में चर्चा की विषय बन गयी. एक जमाना था अब 'आम्रपाली' वस्त्र इतना प्रसिद्ध हुआ था कि उस पोशाक को आम्रपाली ड्रेस ही कहा जाने लगा जो अब तक चर्चित है. अभी हाल ही के 'उमराव जान' में रेखा के अभिनय कुशलता के साथ साथ उसकी लखनवी गायिकाओं की पोशाक की सटीक दर्शन ने चार चाँद लगा दिए थे और रेखा को पुरस्कार प्राप्त हो गया. अगर उनके अभिनय या पोशाक में से किसी एक में कोई कमी रह जाती तो यह राष्ट्रीय पुरस्कार रेखा को शायद ही प्राप्त होता........ अर्थात पोशाक की सजावट डिजाईनिंग कितना महत्वपूर्ण है यह हम आज तक महसूस नहीं कर सके परन्तु पिछले दिनों फिल्म 'गाँधी' के पोशाक सज्जा के लिए जब अति व्यस्त महिला ड्रेस डिजाइनर Bhanu Athaiya राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं बल्कि वल्र्ड अवॅार्ड यानि ऑस्कर अॅवार्ड (आज तक भारत में जिसे कोई प्राप्त न कर सका) जीत कर लौटी तो सिर्फ भारत ही नहीं सारे संसार के फिल्म इडंस्ट्री की आँखें खुल गयीं और तब जाकर ड्रेस डिजाइनर का महत्व मालूम पड़ा.
Bhanu Athaiya भारतीय हैं अतः हमें उन पर गर्व है उनसे बातचीत करने की इच्छा थी अतः उन्हें उनके व्यस्तता के बावजूद मैंने जा पकड़ा.
बहुत खुश मिजाज और चंचल चित्त भानु जी से मैंने मिलते ही पूछा--'ऑस्कर अॅवार्ड प्राप्त करने के बाद आपको कैसा अनुभव हो रहा है?'
'मुझे तो ऑस्कर अॅवार्ड की कब से उम्मीद थी, मैंने न जाने कितनी फिल्मों में बेहतरीन से एकदम सही पोशाक बनवाये हैं परन्तु आज तक शायद सभी ने ड्रेस डिजाईनिंग को खेल तमाशा समझ रखा था और गंभीरता से इस विषय को नहीं देखा. मुझे बहुत खुशी है कि आखिर मैं ऑस्कर जैसा अॅवार्ड जीत कर प्रथम बार उसे भारत लायी हूँ जब मेरे बारे में अखबार में यह छपा 'प्रथम भारतीय महिला जिन्हें ऑस्कर अॅवार्ड प्राप्त हुआ' तो मुझे ऐसा लगा कि अब हम भी किसी से कम नहीं है. बात ठीक भी तो है अगर हम न होते तो यह हीरो हीरोइन कैसे खूबसूरत नजर आते कैसे रियल दिखते?'
'भानु जी वैसे तो आपने बहुत सारी फिल्मों में पोशाक सज्जा कला के दर्शन करवाये है क्या कुछ ऐसी फिल्मों के नाम बतायेंगी जो आपके कैरियर में स्वर्ण अक्षर से लिखे रहेंगे ?'
'मुझे सचमुच खुद याद नहीं कि मैं कितनी फिल्मों में कितनी अभिनेत्रियों अभिनेताओं की ड्रेस डिजाइनर रही हूँ लेकिन जैसा कि तुम चन्द फिल्मों के नाम जानना चाहती हो तो मैं बता सकती हूँ कि मैंने 'साहब बीवी और गुलाम', 'श्री 420 में', 'आन', 'चाह' (मैंने राज कपूर की लगभग सभी फिल्मों में काॅस्टयूम डिजाइन की है) 'चाँदनी चैक', 'आम्रपाली', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्', 'निकाह', 'रेशमा और शेरा' और 'द गोल्डन लेटर्ड गाँधी'........ इन फिल्मों को मैं कभी भूल नहीं सकती.'
'आप ड्रेस डिजाइनिंग में कब से आई और किस आकर्षण से रह गई आप यहाँ जब कि आप अच्छी तरह जानती हैं कि फिल्म इंडस्ट्री में ड्रेस डिजाइनर की कद्र नहीं होती है?'
मेरे इस लम्बे प्रश्न को ध्यान से सुनकर वे बोलीं--'मैं 'साहब बीवी और गुलाम' बनने से पहले फिल्म इंडस्ट्री में आयी थी उससे पहले मैं एक अंग्रेजी सुप्रसिद्ध पत्रिका (ईव्स वीकली) में महिलाओं के लिए नये नये तरह का फैशनेबल वस्त्र सज्जा के बारे में जानकारी देती थी और किसी स्पेशल तीज त्योहार में पूरी महिला विशेषांक निकालती थी परन्तु फिल्म का आकर्षण जबर्दस्त होता है . यहाँ तो वह भी आ जाते हैं जिन्हें यह पता नहीं कि उन्हें करना क्या है, कम से कम मुझे यह तो पता था. यह सही बात है कि उस समय मुझे इतना आइडिया नहीं था कि यहाँ वस्त्र सज्जा करने वालों की विशेष कद्र नहीं होती लेकिन मुझे अपनी कार्य कुशलता पर विश्वास था. वैसे मैं खुद आग्रह करके तो नहीं आई थी मुझे स्व. गुरूदत्त जी ने इस क्षेत्र में आने को उत्साहित किया था मेरी कला के विस्तार के लिए वे चाहते थे मैं फिल्म लाइन में आऊँ. 'साहब बीवी और गुलाम' मेरी प्रथम फिल्म थी. वैसे पहले जमाने में भी मुझे बहुत प्रशंसा मिला करती थी जिस समय नर्गिस जी, मीना जी, मधुबाला जी जीवित थी उस वक्त वे सभी सिर्फ मुझे ही अपने लिए वस्त्र सज्जा के लिए चुनती थीं उनकी अलमारियाँ मेरे बनाये वस्त्रों से भरी रहती थीं लेकिन उनके जाने के बाद वाकई लोगों ने ड्रेस डिजाइनर की कद्र करना छोड़ दिया. लेकिन अब 'गाँधी' के बाद फिर से लोग हमें देखने लगे.'
'आपको किन फिल्मों में काम करते हुए मजा आया?'
'फिल्म 'निकाह' में मुझे मुस्लिम बैकग्राउंड के ड्रेस बनाने में बहुत मजा आया. आम तौर पर यह सोचा जाता है कि मुस्लिम पहनावा मतलब उसमें उत्तेजक रंग बहुत चमक दमक और भारी कामदार होना चाहिए यह गलत है समय और परिवेश के अनुसार ही हल्की और भारी सज्जा होती है. जैसे 'निकाह' में सलमा जब बहुत दुःखी नजर आती हैं तो मैंने उनके वस्त्रों को सादा और पीला रखा मैंने 'निकाह' में दर्शकों की रूचि जरूर बदली है.'
'आप किसी फिल्म में हीरो-हीरोइन के लिए ड्रेस डिजाईनिंग कैसे करती हैं?'
'लोग समझते हैं कि ड्रेस डिजाईनिंग का मतलब है दर्जी का काम बस वस्त्र नाप कर काटा पीटा सुई धागा लिया और लगे सिलने जी नहीं ड्रेस डिजाइनर भी एक तकनीकी कला है जैसे इंजीनियर लोग भवन या कोई भी नई चीज के निर्माण के लिए पूरी तरह उस पर मानसिक और शारीरिक रूप से जुड़ जाते हैं वैसे हम भी हैं, लेकिन डायरेक्टर प्रोड्यूसर ऐसा समझते ही नहीं. मैं सीन समझना चाहती हूँ. स्क्रिप्ट देखना चाहती हूँ, डायलाॅग जानना चाहती हूँ लेकिन यह सब हमें नहीं दिखाया जाता. वे बस कह देते है हीरोइन के लिए साड़ी या चूड़ीदार या कोई मार्डन ड्रेस....... अब हमें क्या पता कि सिचुएशन की मांग क्या है? इस पर वे लोग हमसे अच्छा से अच्छा काम चाहते हैं. खैर, मैं तो एक काॅस्टयूम बनवाने के लिए बहुत रिसर्च करती हूँ.'
'फिल्म 'गाँधी' के कपड़ों में ऐसी क्या बात थी शायद धोती कुर्ता बनाने में तो ज्यादा मेहनत लगती ही नहीं ?'
इस प्रश्न पर वे अचानक हँस पड़ी-बोलीं--'मेहनत? अरे इस फिल्म के सिर्फ धोती कुर्ता बनवाने के लिए ही तो मुझे पूरे नौ दस महीने लगे. गाँधी के जमाने के कपड़े तथा प्रत्येक अलग अलग व्यक्तित्व के लिए अलग अलग कपड़े बनवाने में तो कम मेहनत नहीं लगी अपने मन से कोई नया डिजाइन बनाना या नया स्टाइल का आविष्कार करना आसान हो सकता है लेकिन हू बहू किसी जमाने के किसी व्यक्तित्व के कपड़़ों का नकल करना बहुत कठिन है. मैंने सिर्फ गाँधी फिल्म के मुख्य कलाकारों का ही नहीं बल्कि हजारों जनता.......भीड़ के लिए भी ड्रेस डिजाईनिंग की मैंने. इसमें मेरे कार्य की खूबी यह रही कि मैंने गाँधी के लिए जो कपड़े बनवाये वे बहुत स्वभाविक लगे मैंने तो गाँधी जी की टोपी और लाठी का भी सही नाप दिया है.
'इस वक्त आप क्या कर रही हैं ?'
'इस वक्त भी मैं कई बड़े बैनर की फिल्म (एल. वी. प्रसाद, बी. आर. चोपड़ा वगैरा) के साथ काम कर रही हूँ और जीनत के निजी कपड़े भी देखती हूँ .'
'आप बहुत कमर्शियल दिमाग की हैं या आर्ट फिल्म के लिए भी कुछ करने की तमन्ना रखती हैं ?'
'मैं पैसों की तरफ ध्यान तो देती ही हूँ देना ही पड़ेगा क्योंकि यह मेरा व्यवसाय है लेकिन साथ ही मैं आर्ट फिल्मों में भी काम करके कला की संतुष्टि चाहती हूँ लेकिन आर्ट फिल्म का मतलब ऐसा नहीं कि सिर्फ कला की संतुष्टि ही करती रहूँ........फिर मेरा व्यवसाय कैसे चलेगा ?'
भानु जी, हमारे मायापुरी के पाठकों को कुछ कहना है ?'
'मुझे क्या कहना है ? कहना तो उन्हें है. बस उन्हें मेरा प्यार देना .'
इतना कहकर Bhanu Athaiya जी खुलकर मुस्कुराई......विजय की मीठी मुस्कान उनकी आँखों में उतर गयी.
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