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Mehul Kumar: मैंने अपने कैरियर की पहली ही गुजराती फिल्म ‘जन्म जन्म ना साथ’ में कई नए प्रयोग किए थे

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By Shanti Swaroop Tripathi
Mehul Kumar
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‘‘मरते दम तक’’,‘लहू के दो रंग’,‘मृत्यूदाता’,‘तिरंगा’ ‘‘क्रंातिवीर’’ जैसी फिल्मों के सर्जक  मेहुल कुमार की गिनती देषभक्ति वाली फिल्मों निर्देषक के तौर पर होती है. लोग यह भी भूल चुके हंै कि मेहुल कुमार ने बतौर निर्देषक अपने कैरियर की षुरूआत प्रेम कहानी वाली फिल्मों और वह भी गुजराती भाषा की फिल्मों से की थी. बतौर निर्देषक उनकी पहली गुजराती फिल्म ‘‘जनम जनम ना साथ’’ थी, जो कि हिंदी में भी ‘फिर जनम लेंगे हम’ के नाम से भी बनी थी. इस गुजराती फिल्म में मेहुल कुमार के साथ ही पहली बार रमेष देव,जगदीप,लता मंगेषकर,बप्पी लाहरी और मो.रफी भी जुड़े थे. आखिर मेहुल कुमार को थिएटर करते करते इस फिल्म के निर्देषन की जिम्मेदारी कैसे मिली थी. इसी पर हमने मेहुल कुमार से बात की. तब मेहुल कुमार से कई अनसुनी कहानियां सुनने को मिली.
प्रस्तुत है मेहुल कुमार से हुई बातचीत के अंष...

 जामनगर से मुंबई और फिर बाॅलीवुड में कैरियर की षुरूआत किस तरह से हुई थी?

 लगभग पैंतालिस वर्ष पहले मैं जामनगर से मंुबई फिल्म निर्देषक बनने के लिए आया था. उससे पहले मैं जामनगर में नाटक किया करता था. नाटकों का निर्देषन किया करता था. मंुबई पहुॅंचकर मैंने थिएटर के साथ साथ फिल्म पत्रकारिता करनी षुरू की. मैं फिल्म समीक्षाएं लिखा करता था. मैं कुछ उपन्यास भी लिखे हुए थे. मंुबई में मेरे गुजराती भाषा का एक प्रेम कहानी वाला नाटक ‘जिगर ना’ काफी लोकप्रिय था. एक दिन मेरे इस नाटक को देखने के लिए उस वक्त के मषहूर निर्माता निर्देषक और आमीर खान के पिता ताहिर हुसेन आए हुए थे. नाटक खत्म हुआ, उसके बाद ताहिर हुसेन मुझे अपना विजिंटग कार्ड देते हुए दूसरे दिन ग्यारह बजे अपने आॅफिस में मिलने के लिए बुलाया. मुझसे जुड़े सभी लोगों ने कहा कि यह तो बहुत बड़ी बात है. उन दिनों मैं पाली हिल,बांदरा,मंुबई में रहता था. रात भर मैं भी सोचता रहा कि कल सुबह क्या हो सकता है? महबूब स्टूडियो के सामने वाली बिल्डिंग में ग्राउंड फ्लोर पर उनका आॅफिस था. मैं सुबह ठीक ग्यारह बजे उनके आफिस पहुॅच गया थो उन दिनों वह हिंदी फिल्म ‘खून की पुकार’ बना रहे थें ताहिर हुसेन ने मुझसे कहा कि,‘ इन दिनों गुजराती फिल्में काफी देखी जाती हैं. मैं भी एक गुजराती भाषा की फिल्म बनाना चाहता हॅूं. इसीलिए तुम्हारा गुजराती नाटक देखने आया था. क्या तुम्हारे पास कोई अच्छी कहानी है?’ मैने उनसे कहा कि मेरे पास कहानी भी है, स्क्रिप्ट भी तैयार है. फिर मैने उन्हे एक कहानी ‘जनम जनम ना साथी’ सुनायी. यह प्रेम कहानी वाली कहानी थी. उन्हें कहानी पसंद आ गयी. ताहिर हुसेन ने मुझसे पूछा कि,‘कहानी अच्छी है, पर इसे निर्देषित कौन करेगा?’ मैने पूरे आत्मविष्वास के साथ कहा कि ,‘सर इसका निर्देषन मैं ही करुंगा.  यह कहानी मैने लिखी है. इसकी पटकथा विस्तार में मैंने लिखी है. संवाद भी मेरे लिए हुए हैं. तो पूरी फिल्म मेरे दिमाग में अंिकत हैंै. इसलिए इसके साथ जितना मैं न्याय कर पाउंगा, उतना षायद दूसरा निर्देषक न कर पाए.’ तब उन्होने सवाल किया कि क्या मैने सहायक निर्देषक के रूप में काम किया है?’ मैने इंकार कर दिया. पर मैने उन्हे बताया कि मैंने फिल्म निर्देषन पर काफी किताबें पढ़ी हैं. मैं फिल्म समीक्षाएं लिखते समय इसी बात पर गौर करता हॅंू कि निर्देषक या तकनीक में कहां ज्यादा गड़बड़ी हुई है. मैने तो एडीटिंग, फोटोग्राफी आदि पर भी काफी किताबें पढी हैं. क्योंकि मुझे तो इसी लाइन मंे काम करना था. इसके बाद ताहिर हुसेन मुझसे दूसरे दिन फोन करने के लिए कहा. मैं उनके आफिस से वापस चला आया और सब कुछ भूल गया. मुझे लगा कि कोई बात नहीं बनने वाली. फिर भी उनकी आज्ञा के अनुसार दूसरे मैने ताहिर हुसेन को फोन कर लिया कि षायद कोई राह बन जाए. दूसरे दिन जब मैने फोन किया, तो ताहिर हुसेन ने मुझसे कहा कि, ‘आॅफिस आ जाओ. यहां पर नासिर हुसेन व आषा जी को फिर से कहानी सुना दो.’ मैं हैरान हो गया. नासिर साहब तो बहुत बड़े फिल्मकार थे. पर मैं हिम्मत जुटाकर चला गया.
 नासिर साहब का आॅफिस ,ताहिर हुसेन के आफिस के उपर, उसी बिल्डिंग में पहली मंजिल पर था. नासिर साहब को कहानी पसंद आयी. आषा जी ने कुछ ज्यादा ही कहानी की तारीफ कर दी. कहानी पसंद आने के बाद नासिर हुसेन ने मुझसे पूछा कि ,‘तुम यह कैसे कह सकते हो कि इसे तुम अच्छी तरह से निर्देषित कर सकते हो.’ मैने उनसे कहा कि,‘मैं आपके सामने कुछ नही हॅंू. मैने तो आपकी फिल्मे देखकर ही सीखा है. आप जिस तरह से नए कलाकार की परीक्षा लेते हैं, उसी तरह मेरी परीक्षा लेकर देख लीजिए. 

नासिर साहब को मेरी यह बात अच्छी लग गयी.
 तो क्या आपको परीक्षा देनी पड़ी?

 जी हाॅ! मुझे बताया गया कि फिल्मिस्तान स्टूडियो में सुबह से षाम छह बजे तक नासिर साहब अपनी फिल्म की षूटिंग कर रहे हैं. उसी सेट पर षाम को सात बजे से रात दो बजे तक मैं षूटिंग कर अपनी परीक्षा देने पहुॅच जाउं. कलाकार तय करके वह देने वाले थे. मुझे अपनी  स्क्रिप्ट के दो चार  अच्छे सीन चुनकर फिल्माने थे. उस एक दिन की षूटिंग के रिजल्ट देखने के बाद मेरे भविष्य का फैसला होना था. यह मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी. क्यांेकि यहीं से मेरे कैरियर में बड़ा टर्निंग प्वाइंट आने वाला था. मैने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए अपनी स्क्रिप्ट से एक दो इमोषनल, एक दो हलके फुलके व एक दो रोमांटिक सीन चुने. जब सेट पर पहुॅचा तो मुझे भावना भट्ट, गायत्री,आदिल अमान,देवेंद्र खंडेलवाल व अन्य दो तीन एकदम नए कलाकार दिए गए. इसके अलावा कैमरामैन रविकांत रेड्डी के सहायक को कैमरामैन के रूप में मुझे दिया गया. मुझे बताया गया कि यदि सब कुछ ठीक रहा तो वही मेरे साथ कैमरामैन के रूप में काम करेगा. मैं समझ गया कि यह कठिन परीक्षा ली जा रही है. मुझे ऐसा कैमरामैन दिया गया, जिससे मुझे कोई मदद न मिल सके. मैं भी हार नही मानने वाला था. मैने ट्ाली,क्रैन व राउंड ट्ाली लगाकर दृष्य फिल्माए. जिन्हे एडिट करके ताहिर हुसेन व नासिर हुसेन ने देखा. फिर मुझसे कहा कि मैं इस फिल्म का निर्देषन कर सकता हूंू और इस फिल्म को गुजराती के साथ ही हिंदी मंे भी बनाउं. इस तरह मुझे बतौर निर्देषक पहली फिल्म निर्देषित करने का मौका मिला. गुजराती मंे इसका नाम ‘जनम जनम ना साथी’ और हिंदी में ‘फिर जनम लेंगे हम’ था. तो मेरे कैरियर की षुरूआत द्विभाषी फिल्म के निर्देषन के साथ षुरू हुआ था.

 फिल्म के कलाकारों का चयन ताहिर हुसेन ने किया था?

 कुछ हद तक. जब मैने एक दिन की षूटिंग भावना भट्ट,गायत्री,आदिल अमान और देवेंद्र खंडेलवाल के साथ की थी, तो मेरी समझ मे आ गया था कि यह कलाकार अपने अपने किरदार में फिट हैं. इतना ही नही उस वक्त तक गायत्री,‘राजश्री प्रोडक्षन’ की फिल्म में अभिनय कर चुकी थी. भावना भट्ट की भी दो तीन हिंदी फिल्में रिलीज हो चुकी थीं. आदिल अमान ने इससे पहले कोई फिल्म नही की थी, तो उनका टेस्ट लिया गया था. इसके अलावा फिल्म में मामा का किरदार है, जो कि फिल्म का विलेन है. इस किरदार के लिए अमजद खान को लिया गया. क्योंकि उस वक्त तक वह फिल्म ‘षोले’ के गब्बर सिंह के किरदार में अति लोकप्रिय हो चुके थे. इसके अलावा पहली बार जगदीप ने गुजराती फिल्म में अभिनय किया था. जगदीप ने बहुत अच्छी गुजराती बोली थी. डबिंग भी ख्ुाद ही की थी.

 लेकिन गुजराती फिल्म में अमजद खान की बजाय रमेष देव थे, जबकि हिंदी में अमजद खान थे?
 जी हाॅ! सच यह है कि अमजद खान को गुजराती और हिंदी दोनों भाषाओं के लिए लिया गया था. मगर षूटिंग षुरू होने से पहले अमजद खान का एक्सीडेंट हो गया था, तो वह कुछ सप्ताह षूटिंग नहीं कर सकते थे. पर हमें अपनी गुजराती फिल्म की षूटिंग पूरी करनी थी. इसलिए गुजराती में अजमद खान की जगह पर हमने रमेष देव को षामिल किया था. रमेष देव के कैरियर की पहली गुजराती फिल्म थी. हमने दो षेड्यूल मंे फिल्म पूरी की थी. फिल्म में मो.रफी,लता मंगेषकर ने गाने गाए थे. फिल्म के संगीतकार बप्पी लाहरी थे. यह उनके कैरियर की पहली गुजराती फिल्म थी.

 गुजराती भाषा की फिल्म को जबरदस्त सफलता मिली थी, पर हिंदी वाली फिल्म सफल नहीं हो पायी थी?
 आपने एकदम सही कहा.वास्तव में यह फिल्म गुजराती का सिक्वअल ही थी, जिसमें गुजराती टच ज्यादा था, जो हिंदी भाषी लोगों को कम पसंद आयी थी.

 कहीं गुजराती मंे रमेष देव व हिंदी में अमजद खान के होने का असर तो नहीं था?
 मेरी राय में इसका असर तो गुजराती फिल्म पर पड़ना चाहिए था. क्यांेकि उस वक्त ‘षोले’ की सफलता के बाद अमजद खान स्टार बन चुके थे. वैसे रमेष देव बेहतरीन कलाकार थे. मराठी फिल्मों में उनकी अच्छी पहचान थी. मुझे लगता है कि अगर गुजराती में भी अमजद खान होेते, तो षायद उनकी षोहरत के असर के चलते गुजराती फिल्म कुछ ज्यादा सफल हो सकती थी.

 फिल्म ‘‘जनम जनम ना साथ’’ को कहां फिल्माया गया था?
 हमने पूरी फिल्म गुजरात में ही फिल्मायी थी. क्योंकि टैक्स फ्री तभी हो सकती थी. हमने इसे राजपीपला पैलेस के अलावा नर्मदा नदी के किनारे फिल्माया था. उस वक्त नर्मदा बांध बना नहीं था. उस वक्त हमने पूरी नर्मदा नदी दिखायी थी. जिस जगह पर बांध बना हुआ है, वहीं पर षूटिंग की थी. हमारी फिल्म में एक बड़ा महादेव का मंदिर नजर आता है, जो कि बांध बनने के बाद अंदर हो गया. जिसे बाद मंें बाहर दूसरा मंदिर बनाया गया. पूरी फिल्म रीयल लोकेषन पर फिल्मायी थी.
 आपकी यह फिल्में 1978 में प्रदर्षित हुई थीं. उन दिनों गुजराती फिल्मों में पगड़ी कल्चर हुआ करता था. लेकिन आपने तो फिल्म के किरदारों को आधुनिक दिखाते हुए पैंट षर्त पहनाया था. यह रिस्क नही लगा था?
 आपने एकदम सही कहा. जब हम इसकी षूटिंग कर रहे थे, तब लोगांे ने मुझसे कहा था कि आप एकदम माॅडर्न फिल्म बना रहे हो, आपने लोगों को पैंट षर्ट पहना दिया है. ऐसे में आपकी फिल्म को कौन देखेगा? पर मुझे अपनी कहानी पर पूरा यकीन था. दूसरी बात मैं एक नया प्रयोग कर रहा था. मुझे लग रहा था कि लोग कुछ नया और नए प्रयोग वाली फिल्में देखना पसंद करेंगें. इसका संगीत अच्छा था. इमोषन व काॅमेडी से भरपूर रोमांटिक फिल्म थी. इसलिए लोगो ने इसे पसंद किया था. इसके बाद जब मैने दूसरी फिल्म ‘चंदू हवलदार’ बनायी, जो कि काॅमेडी थी.तब किसी ने नहीं सोचा था कि इसे सफलता मिलेगी. पर इस फिल्म को भी जबरदस्त सफलता मिली थी. 

 आपने अपने कैरियर की पहली फिल्म में पगड़ी की बजाय पैंट षर्ट पहनाने का प्रयोग करने की बात किस विष्वास के साथ सोची थी?
 मेेरे दिमाग मंे सिर्फ एक ही बात थी कि गुजराती सिनेमा मंे जो एक ट्ेंड चला आ रहा है, उससे हटकर कुछ नया काम किया जाए. इससे लोग मेरी फिल्म की तुलना दूसरे फिल्मकार की फिल्म के साथ नहीं करेंगें. यही वजह है कि हमने अपनी पहली फिल्म में गुजराती सिनेमा के चर्चित कलाकारांे को भी षामिल नहीं किया था. बल्कि हर कलाकार की यह पहली गुजराती फिल्म थी. इससे लोगों को कहानी से लेकर संगीत तक सब कुछ नया नजर आए. इसी वजह से हमारी फिल्म युवा पीढ़ी से बुजुर्गों तक सभी को पसंद आयी थी. जबकि उन दिनों तक युवा पीढ़ी गुजराती फिल्में कम देखती थी. लेकिन मेरी फिल्म ‘‘जनम जनम ना साथी’’ के बाद युवा पीढ़ी ने गुजराती फिल्में देखनी षुरू की.

 फिल्म की षूटिंग के दौरान का कोई रोचक घटनाक्रम?
 यह किस्सा राजपीपला पैलेस में अमजद खान के साथ हुआ था. मेरे कैरियर की यह पहली फिल्म थी. जबकि अमजद खान सफलतम हिंदी फिल्म ‘‘षोले’’ में गब्बर सिंह का किरदार निभाकर पूरे देष में छा चुके थे. वहां पर हाल में महाराजा का बहुत बड़ा डायनिंग टेबल था, जिस पर कम से कम पच्चीस लोग बैठकर खाना खा सकते थे. उसके उपर मैने ट्ाली लगायी थी. दृष्य के अनुसार अमजद खान चलते हुए आते हैं और टेबल पर पड़ी चाकू से सेब उठाकर बातचीत करते हुए आगे बढ़ते हैं. जब सेट पर अमजद खान आए, इधर उधर नजर दौड़ाने के बाद कहा- ‘‘अरे, मेहुल! डायनिंग टेबल पर ट्ाली लगाया?’ तो मंैने कहा- ‘हाॅ! क्योंकि मैं इस फिल्म का निर्देषक हॅंू. ’सेट पर एकदम सन्नाटा छा गया. फिर अमजद भाई मेरे पास आकर मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे कोने मंे ले गए और कहा कि,‘आपने इतना जोर से क्यों जवाब दिया. ’मैंने उनसे कहा कि, ‘यदि आप धीरे से बात करते तो मैं भी आपको धीरे से समझाता. ’फिर मैने उन्हे दिखाया कि पहले कुछ नजर नही आता. फिर फल नजर आते हैं. फिर बाकी की चीजंे नजर आती हैं और आप टेबल के बगल में चलते हुए आ रहे हैं. यह सुनकर अमजद खान ने कहा,‘आज के बाद मैं तुझसे कोई सवाल नही करुंगा.’ उसके बाद हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे.

 रमेष देव मराठी भाषी कलाकार थे. जगदीप को भी गुजराती नही आती थी. तो क्या इन्हे गुजराती सिखायी गयी थी?
 रमेष देव मराठी भाषी होेते हुए भी थोड़ी बहुत गुजराती जानते थे. इसलिए उन्हें गुजराती में संवाद बोलने में कोई समस्या नही थी. सिर्फ एक बार वह मेरे मंुॅह से संवाद को सुनते थे. जगदीप को गुजराती नही आती थी. पर जगदीप जी संवाद रटते थे और मुझसे संवाद बुलवाकर उस लहजे को पकड़कर षूटिंग की. फिर डंिबंग उन्होने ख्ुाद की. बाद में जगदीप जी ने मेरे साथ कई फिल्में की.
 ‘‘जनम जनम ना साथी’’ को मिली सफलता के बाद फिल्म इंडस्ट्ी के लोगांे से किस तरह केे रिस्पांस मिले?
 फिल्म की काफी तारीफ हुई थी. गुजराती के लगभग सभी फिल्म निर्माताओं ने मुझे फोन किया था.  उसके बाद मुझे गुजराती फिल्में निर्देषित करने का एक रास्ता मिल गया था. मंैने करीबन 14 गुजराती फिल्में निर्देषित की थीं, कुछ का निर्माण भी किया था.
 इस फिल्म का संगीत काफी लोकप्रिय हुआ था. पर आपने क्यो सोचकर बप्पी लहरी को संगीतकार के रूप में चुना था?
 जी हाॅ! गुजराती फिल्म ‘‘जनम जनम ना साथी’’ बप्पी लाहरी के ेकैरियर की पहली गुजराती फिल्म थी. उन दिनों वह बंगला के अलावा हिंदी फिल्मों में संगीत दे रहे थे. तो ताहिर हुसेन ने ही बप्पी लाहरी को ंसंगीतकार के रूप में लेेने की सलाह दी थी. मैने बप्पी दा के साथ बैठक की. तो उन्होने कहा कि वह गुजराती गाने भी ऐसे बनाएंगे, जो कि हर किसी को पसंद आएंगे. यह उनकी पहली गुजराती फिल्म थी, उनके निर्देषन में लता मंगेषकर और मो.रफी ने भी गाने गाए थे. सभी गाने सुपर डुपर हिट हुए. उनका एक गाना ऐसा था, जिसे मैने उनकी मौत पर उनकी पत्नी को याद दिलाया था-‘हम न कभी होंगें जुदा मौत भी आए तो क्या..फिर जनम लेंगंें हम..’यह सुपर हिट गाना था. जिसे लोग हमेषा याद रखेंगें.  

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