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"एक अलग ही चाव था, दिन थे, और उत्साह हुआ करता था! सोचती हूं तो लगता है कहाँ गए वो दिन! क्या वैसी दीवाली फिर कभी होगी? लौटेंगे वो दिन?" वरिष्ठ अभिनेत्री पुष्पा वर्मा एक निःस्वास लेती हैं." अब वो उमंगें कहाँ से लाऊं जो अपनी मां से दादी और नानी से दीवाली मनाते देखकर सीखा था! आज तो मेरी नतिनी भी होलोजेन की लाइट जलाना पसंद करती है.अपनी सात साल की गुड़िया को मैं वो तस्वीर कैसे दिखाऊँ जो वर्षों वर्षों से मेरे जहन में शामिल है? मुझे लगता है कि यह सिर्फ मेरी सोच नहीं, बल्कि हर उस किसी की सोच है जो मेरी तरह ज़िंदगी की पिछली यादें अपने साथ सिमेट कर जीना चाहता है.
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"आज की दीपावली भी मेकेनिकल हो गई है. पिछले साल लखनऊ में थी.वहां की लाइटिंग, सरकारी आडम्बर और लक्ष्मी पूजा का बदला हुआ नज़ारा देखकर हैरान थी. कोविड की छाया सब पर थी. सोचने लगी कि युवावस्था की कुछ साथिनीएँ मिल जाएंगी और भरपूर चखल्स के साथ दीवाली की मस्ती होगी… मगर कहाँ, सबकुछ बदला बदला सा! कहीं, कोई कुछ नहीं! यादों का गुब्बार मन मे लिए मैं भी दूसरों की तरह टीवी पर चल रही अयोध्या में 'रामलला' की झलकियाँ देखने बैठ गई थी, जहां भरपूर लाइटिंग की हुई थी. सवाल मन मे बहुत थे मगर पूछती और कहती किससे? वहां भी तो सब आज की हवा में बहने वाले हो गए थे."
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वह आगे कहती हैं- "मेरा आशय यह नहीं कि बदलाव गलत है.मैं तो उस कल की बात कर रही हूं जो कभी हमलोगों ने जीया है. आज जब 'मायापुरी-अंक के लिए दीवाली की बात सुना तो जज्बात सामने आगए हैं. याद आगई है बचपन की दीवाली! बिहार के गांव में में हम सब छोटी छोटी बच्चियों का झुंड हुआ करता था. दीवाली की छुट्टियों के दिन ऐसे कटते थे जैसे हमसब हवा में उड़ रहे हों… धनतेरस से जो त्योहार शुरू होता था वो दीपावली के छः दिन बाद छठ पूजा तक चलता था. दीपावली का दिया जो रात में जलाकर घर को सजाया जाता था, उसमें तो हमसब लड़कियां मास्टर होती थी. भाई उतनी रुचि नहीं लेते थे जितनी बेटियां व्यस्त रहती थी.फिर, अगली सुबह उन दीयों को हमलोग एक एक उठाकर इकठ्ठा करती थी.होड़ होता था कि किसके पास ज्यादे दियलियाँ हैं. मिट्टी के इन दियों का हमलोग तराजू बनाती थी, जांत बनाती थी, खेलते थे उससे और कई दिन व्यस्त रहते थे उसी के साथ. आज तो छोटे बच्चों को यह संस्मरण भी नहीं सुना सकते क्योंकि उनको बताना पड़ेगा कि जांत और तराजू क्या है!
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"सचमुच बदल गया है सब कुछ! बदल गयी है दीवाली की रोशनी, फुलझड़ी, पटाखे और सोच! वो पूरी-कचौरी, जुआ खेलना और घंटों बैठकर मां, चाची लोगों को पूजा करते देखना...अबतो बस, हैपी दीपावली बोलने की परंपरा का निर्वाह करना भर रह गया है. जो मैं आज भी अपने प्रशंसकों को दिल से बोलना चाहूंगी- "हैप्पी दीपावली- टू आल मायापुरी रीडर्स!"
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