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Majrooh Sultanpuri: एक दिल की बातें लिखने वाले शायर ने कैसे मेरे दिल को ठेस पहुंचाई

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By Ali Peter John
Majrooh Sultanpuri: एक दिल की बातें लिखने वाले शायर ने कैसे मेरे दिल को ठेस पहुंचाई
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मेरा एक अजीब विश्वास है, जिससे कई लोग सहमत नहीं हो सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपने विश्वास को बदल दूंगा जो एक बहुत ही करीबी अवलोकन और कई मुठभेड़ों और अनुभवों से आता है. और ऐसे समय में जब झूठ बोलना जीवन का एक तरीका बन गया है और यहां तक कि सबसे शक्तिशाली पुरुष और महिलाएं भी झूठ बोलने के विशेषज्ञ बन रहे हैं, मैं कसम खाता हूं कि अब से जो मैं कहूंगा वह सच होगा और सच के अलावा कुछ भी नहीं होगा.

मैं के. ए. अब्बास के साथ उनके साहित्यिक सहायक के रूप में काम कर रहा था, एक पद उन्होंने मेरे लिए इसलिए बनाया क्योंकि मैं मुंबई विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम ए के साथ सबसे अधिक शिक्षित सहायक था. मेरा मासिक वेतन सौ रुपये महीना था, जो मुझे कभी हर महीने मिलता था और कभी दो या तीन महीने तक इंतजार करना पड़ता था और फिर उसी समय जमा की गई राशि मिल जाती थी और वह एक ‘चावल की थाली’ के साथ जश्न मनाने का अवसर था जो अब्बास साहब के ऑफिस के पास जुहू हिंदू होटल में एक रुपये में मिलती थी, या फिर बस बटाटा वड़ा और पाव और दिन में एक कप चाय. अब्बास साहब जानते थे कि एक आदमी के लिए उस वेतन पर जीना मुश्किल है जो वह मुझे दे रहे थे. उन्होंने अक्सर मुझसे अन्य नौकरियों की तलाश करने का अनुरोध किया, लेकिन मैंने उन्हें किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ने का दृढ़ संकल्प किया हुआ था.

अब्बास साहब एक ऐसे व्यक्ति थे जो हमेशा अपने साथ काम करने वाले लोगों की परवाह करते थे और उनके सचिव और प्रबंधक, अब्दुल रहमान जैसे लोग थे (उन्होंने ‘सात हिंदुस्तानी’ के लिए अब्बास साहब और अमिताभ बच्चन के बीच कॉन्ट्रैक्ट टाइप किया था) और अब्बास साहब की सभी प्रमुख पुस्तकों, लेखों और शोर्ट स्टोरीज को टाइप किया था, अब्दुल रहमान अब्बास साहब के साथ चालीस से अधिक वर्षों से काम कर रहे थे और जब मैंने उनसे पूछा था कि उन्होंने दूसरी नौकरी के लिए प्रयास क्यों नहीं किया, तो उन्होंने कहा था, “अब्बास साहब के लिए काम करना नमाज पढ़ने जैसा है. मैं नमाज भी छोड़ सकता हूं लेकिन अब्बास साहब को छोड़ने के बारे में नहीं सोच सकता.”

समय बीतने के साथ, अब्बास साहब, जो मेरे लेखन के प्रति प्रेम के बारे में जानते थे, ने मुझे ‘सिने एडवांस’, ‘फिल्म मिरर’ और ‘देबोइनेयर’ जैसे साप्ताहिकों में लेख लिखने का काम दिया, जिसके लिए मुझे 25 रुपये से 150 रुपये के बीच का भुगतान किया गया था. मुझे एक बार रमन खन्ना, उनकी नई खोज के बारे में लिखने के लिए कहा गया था, जिन्होंने उन्हें शबाना आजमी के साथ अपनी प्रमुख महिला के रूप में ‘फासला’ पेश किया था. जब मेरा लिखा लेख छपा तो खन्ना ने मुझे पच्चीस रुपये की एक रेडी मेड शर्ट भेंट की और यहां तक कि मुझे अपने सचिव के रूप में नौकरी की पेशकश की, जिसे अब्बास साहब ने मुझे न लेने की सलाह दी थी.

अब्बास साहब ने मुझे संपादक श्री एस. एस.पिलाई को परिचय पत्र देने के बाद ’स्क्रीन’ नामक साप्ताहिक के लिए लिखने के लिए कहा था, जिन्होंने मुझे प्रसिद्ध उर्दू कवि और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी का इंटरव्यू लेने के लिए कहा था. मैंने मजरूह सुल्तानपुरी को अब्बास साहब के बड़े पुस्तकालय में आयोजित मुशायरे में ही देखा था और उनके व्यक्तित्व और उनकी शायरी से मंत्रमुग्ध हो गया था, लेकिन मैं उनसे हाथ भी नहीं मिला सकता था.

उस शाम मिस्टर पिलाई से मिलने के बाद मैं अब्बास साहब के पास गया और उन्हें अपने काम के बारे में बताया. वह बहुत खुश हुए और उसने मुझे न केवल मजरूह का एक पत्र दिया, बल्कि उनसे इंटरव्यू की मेरी आवश्यकता के बारे में बात करने का भी वादा किया था. मुझे जाने-माने लेखकों और कवियों से मिलना अच्छा लगता था और सचमुच उस रात मुझे नींद नहीं आई. और अगली शाम मैं मजरूह के बंगले पर उतरा क्योंकि अब्बास साहब ने मुझसे कहा था कि मजरूह बहुत अच्छा आदमी है और उनके साथ अपॉइंटमेंट लेने की कोई जरूरत नहीं है.

शुरूआत अपने आप में अशुभ थी क्योंकि दो लोगों ने मुझे घेर लिया और मुझसे हर तरह के सवाल पूछने लगे जो मुझे डराते थे, लेकिन अब्बास साहब की चिट्ठी ने मेरे लिए सब कुछ आसान कर दिया और पत्र मजरूह तक पहुँच गया और कुछ ही मिनटों में मुझे एक बड़बड़ाहट और यह कहते हुए आवाज सुनाई दी, “ये अब्बास साहब को कोई काम ही नहीं लगता है. जब चाहे किसी को भी पत्र लिखवाके भेज देते हैं. उस लॉन्डे से कहो की मेरे पास और भी काम है और मैं उसे इंटरव्यू नहीं दे सकता.” मैं उन दिनों भी बहुत संवेदनशील था जब मैं संघर्ष कर रहा था और ज्यादातर समय भूखा रहता था. मजरूह का आदमी मेरे पास जो जवाब सुन चुका था, उसे सुनाने आया था उसके आने से पहले ही मैं बंगले से बाहर निकल गया था. मैं उस बंगले में कभी वापस नहीं गया. मुझे जाने की भी कोई जरूरत नहीं थी.

अगले दिन अब्बास साहब की ओर से मजरूह को ‘गोलीबारी’ दी गई और मजरूह ने मुझे अब्बास साहब के माध्यम से एक संदेश भेजा कि मैं उनसे मिलूं. लेकिन मैंने पहले ही उनसे दोबारा न मिलने का मन बना लिया था. वह उर्दू शायरी के पोप हो सकते थे, लेकिन वे दिल से एक क्रूर इंसान थे. एक आदमी जिसने दिलष्और प्यार करने और प्यार करने की आवश्यकता के बारे में महान कविता लिखी, वह वास्तविक जीवन में इतना अलग कैसे हो सकता है? मैं कितने ही कवियों और लेखकों से मिला हूँ, और मैंने देखा है कि कैसे उनमें से कुछ में जुड़वाँ व्यक्तित्व हैं, डॉ. जेकिल और मिस्टर हाइड जैसे कुछ. जितेंद्र ने एक बार मुझे एक ऐसे कवि और लेखक के बारे में बताया, जिन्होंने बेहतरीन कविताएं लिखीं और अच्छी फिल्में बनाईं, लेकिन उसने पत्नी को पीटने वाली और पत्नी को गाली देने वाली सबसे बुरी हरकते भी की थी और मैं उस कवि को भगवान का अवतार मानता था.

उस शाम मजरूह के घर में उस अनुभव के बाद, मैंने सौ रुपये बनाने का अवसर खो दिया लेकिन मैंने जीवन भर के लिए सबक सीख लिया था. साहिर साहब ने लिखा था “एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते है लोग” पहले तो मैंने सिर्फ ये बात सुनी थी, लेकिन जैसे-जैसे वक्त बूढ़ा होता गया, मैंने ये सच जान भी लिया और मान भी लिया, क्योंकि की ये बात सच और सच के सिवा कुछ नहीं है.

जब भी जी चाहे, नई दुनिया बसा लेते हैं लोग

जब भी जी चाहे, नई दुनिया बसा लेते हैं लोग
एक चेहरे पे कई चेहरे, लगा लेते हैं लोग
जब भी जी चाहे...

याद रहता है किसे गुजरे जमाने का चलन
सर्द पड़ जाती है चाहत, हार जाती है लगन
अब मुहब्बत भी है क्या, इक तिजारत के सिवा
हम ही नादाँ थे जो ओढ़ा बीती यादों का कफन
वर्ना जीने के लिए सब कुछ भुला लेते हैं लोग
एक चेहरे पे कई...

जाने वो क्या लोग थे, जिनको वफा का पास था
दूसरे के दिल पे क्या गुजरेगी ये एहसास था
अब हैं पत्थर के सनम, जिनको एहसास ना गम
वो जमाना अब कहाँ, जो अहल-ए-दिल को रास था
अब तो मतलब के लिए नाम-ए-वफा लेते हैं लोग
जब भी जी चाहे...

फिल्म- दाग
कलाकार- शर्मिला टैगोर और राजेश खन्ना 
गायक- लता मंगेशकर
संगीतकार- लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल
गीतकार- साहिर लुधियानवीs  

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