Sulochana Latkar: उस छोटी सी उम्र में फिल्मी माताजी बन बैठी

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By Mayapuri Desk
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Sulochana Latkar: उस छोटी सी उम्र में फिल्मी माताजी बन बैठी

हिन्दी और मराठी फिल्मों की वयोवृद्ध अभिनेत्री सुलोचना को जब लाइफ टाइम एचीवमेन्ट के लिए व्ही. शांताराम अवार्ड से सम्मानित किया गया तो लगा कि सही मायने में वे इस अवार्ड की हकदार कब से थी जो अब जाकर उन्हें मिला. फिल्म इंडस्ट्री में लगभग पचास वर्ष से अभिनय करती यह पर्दे की प्यारी 'माताजी' 67 वर्ष की उम्र में अपने पुराने दिनों की याद में खुशी से झूम उठती है. मिलने पर जब मैंने उनसे पूछा कि आजकल वे पर्दे पर बिल्कुल नजर क्यों नहीं आती तो एक लंबी सांस खींचकर वे बोली,' उम्र की वजह से अब पहले जैसी भागदौड़ करना, शिफ्टों को संभालना अब संभव नहीं. लगभग दस वर्ष पहले मैंने फिल्म 'गुलामी' की थी उसके बाद फिल्म 'प्यार प्यार' में भी काम किया. संयास तो मैंने नहीं लिया लेकिन ज्यादा फिल्में करने का मन छोड़ दिया था. इतने वर्षो के बाद मैं सिर्फ 'टाडा' फिल्म में काम कर रही हूं.

'टाडा' फिल्म में ऐसी क्या खास बात है कि आप दस वर्ष बाद फिल्म इंडस्ट्री में दोबारा लौटी?

'मैं सिर्फ इसलिए राजी हुई क्योंकि इसमें एक बार फिर मुझे धर्मेन्द्र जैसे प्यारे इंसान के साथ काम करने का मौका मिल रहा था. मैंने कई फिल्मों में धर्मेन्द्र की मां की भूमिका निभाई थी पहले और मुझे जो आनन्द आया उनके साथ काम करके वह बता नहीं सकती.

यूं तो सैकड़ों फिल्मों में अभिनय किया परन्तु आपकी मुख्य सफल फिल्में कौन सी थी?

'बिमल राय कृत सुजाता, 'दुनिया' 'आये दिन बहार के' 'नई रोशनी' 'दिल दे के देखो' 'मैं सुन्दर हूं' 'जॉनी मेरा नाम' 'नई रोशनी' के लिए मुझे आंध्रप्रदेश से अवार्ड भी मिला था. इसके अलावा 'बहारों के सपने' 'मेरा घर मेरे बच्चे' तथा सुपरहिट धार्मिक फिल्म 'सति अनुसूइया'. मैंने फिल्म 'सजनी' और 'अब दिल्ली दूर नहीं' में नायिका की भूमिका भी निभाई है . मराठी में भी मैंने बहुत सुपरहिट फिल्में की है जैसे 'स्त्री जन्मा ही तुझी कहानी' 'सासुरवास' वहिनीच्या बंगडया' जिस पर बाद में 'भाभी की चूड़ियां' बनी थी, इसके अलावा 'मीठ भाकर' 'देव पावला' 'दूध भात' 'बाला जो जो रे' 'तारका' वगैरह. फिल्म 'तारका' के प्रथम शो के साथ ही मंुबई के मशहूर नाज सिनेमा का उद्घाटन हुआ था.' 

फिल्मों में आपका प्रवेश कैसे हुआ?

यह तो पचास साल पहले की कहानी है. 1943 साल हमारे परिवार की मुलाकात महान फिल्म मेकर भालजी पेन्ढारकर से हुई. हालांकि उन दिनों लड़कियों का फिल्मों में काम करना मना था पर चूंकि मुझे अभिनय करने का अच्छा खासा शौक था इसलिए उन्होंने मुझे अपने साथ काम करने का मौका दिया. मैंने स्कूल की पढ़ाई छोड़ दी और उनके फिल्म मेकिंग कंपनी से जुड़ गई. सुबह नौ बजे से शाम सात बजे तक उनकी फिल्मों में काम करती और हमें महीने के महीने तनख्वाह दी जाती है जैसे कोई नौकरी हो. उन दिनों हम लोग कोल्हापुर में रहते थे. जब कोल्हापुर में फिल्मों का अच्छा खासा अनुभव होने लगा तो पुणे फिल्म कंपनियों से भी ऑफर आने लगे और मैं पुणे की मराठी फिल्मों में भी काम करने लगी.

मराठी फिल्मों से हिन्दी फिल्मों में आपका आना कैसे हुआ?

पुणे में जब चन्दुलाल शाह जी ने मराठी और हिन्दी में फिल्म 'स्त्री जन्मा ही तुझी कहानी' बनाने का फैसला किया और बतौर नायिका दोनों ही फिल्मों में मुझे साइन किया गया तो पहली बार मैं हिन्दी फिल्मों में आई. उसके बाद मुझे हिन्दी फिल्में मिलने लगी.

बहुत कम उम्र में मां की भूमिका निभाते हुए मन में तकलीफ नहीं हुई?

जी नहीं . हालांकि सिर्फ अट्ठाइस वर्ष की उम्र में मैं फिल्म 'सुजाता' में नूतन और शशिकला की मां बनी. मुझे कोई दुख या परेशानी नहीं हुई क्योंकि मराठी फिल्मों में तो मैं बतौर हीरोईन काम कर ही रही थी, एक से बढ़कर एक नायिका प्रधान भूमिकायें मुझे ही मिल रही थी. हिन्दी फिल्मों में उन दिनों मां भाभी की भूमिका करने वाली अभिनेत्रियां बहुत कम भी थी इसलिए हिन्दी फिल्मों में भी काफी अच्छे रोल्स मुझे ही मिलते थे.

उस जमाने की 'मां भाभी' की भूमिकाओं में और आज की फिल्मों में मां-भाभी की भूमिकाओं में क्या फर्क है?'

एक तो यही कि उस जमाने में मां भाभी का रोल काफी इमोशनल और सैक्रीफाइसिंग होती थी मां भाभी को ईश्वर का दर्जा मिलता था और उन्हें काफी आंसू बहाने पड़ते थे जबकि आज की फिल्मी मां भाभियां अपने बेटे या बेटी से दोस्त जैसा रिश्ता रखते दिखाये जाते है, आज मम्मी भाभी भी फिल्मों में चुलबुली, अंग्रेजी बोलने वाली, रूठने वाली और फैशनेबल ग्लैमरस दिखाने वाली नजर आती है. पहले ऐसा नहीं था.

कलाकारों के साथ आपका अनुभव कैसा रहा? 

मैंने लगभग चार सौ फिल्मों में काम किया है और फिल्म इंडस्ट्री के प्रायः सभी हीरो हीरोईन की मां की भूमिका निभा चुकी हूं. सभी कलाकारों ने मुझे बहुत इज्जत और प्यार दिया है परन्तु मैं खासतौर पर धर्मेन्द्र, अमिताभ, सुनील दत्त , दिलीप कुमार, गीता बाली, की बात करूंगी कि उन्होंने मुझे इतना प्यार और इज्जत ही है कि मैं आज भी गद्गद् हूं. मिलने पर धर्मेन्द्र अमिताभ तो आज भी मुझसे मराठी में बातें करते हैं.

खाली वक्त में बीते दिनों को याद करती है?

बीते सुनहरे दिनों की यादें तो हर बुजुर्ग इंसान की धरोहर होती है वैसे खाली वक्त मैं वीडियो पर फिल्में, धारावाहिक तथा मराठी थियेटर देखकर बिताती हूं, थियेटर का शौक मुझे बचपन से ही थी. मेरी दिल तमन्ना है कि मराठी से ज्यादा फिल्में और श्रंृखलायें निर्मित हो. हिन्दी तो इन दिनों काफी अच्छी फिल्में बनने लगी है. आपका असली नाम क्या सुलोचना ही है, नहीं. मेरा असली नाम रंगू दिवान था.

पहले के कलाकारों में और आज के कलाकारों में क्या फर्क था?

पहले के कलाकार अभिनय करते हुए अभिनय की बारीकियां सीखते रहते थे. हमें रिहर्सल करने को कहा जाता है. जैसे मां बाप बच्चों में संस्कार चरित्र डालते थे वैसे ही निर्माता निर्देशक कलाकारों में संस्कार पिरोने का काम करते थे. हमें लाइब्रेरी से तरह तरह के देशी विदेशी अभिनय पर पुस्तके पढ़ने को कहा जाता था. स्टूडियो हमारे लिए मंदिर होती थी, हम सुबह आते ही वहां प्रार्थना भी करते थे.

क्या आपके बच्चों में से कोई फिल्मों में आया है?

मैंने अपने बच्चों को ऊंची शिक्षा दिलवाई है. सारे बच्चे अपने अपने क्षेत्र में व्यवस्थित हैं. आश्चर्य की बात यह है कि किसी को भी फिल्मों में रूचि नहीं.

क्या आप अच्छे ऑफर मिलने पर फिल्मों में काम करती रहेंगी?

फिलहाल तो मैं एक फिल्म 'टाडा' में काम कर ही रही हूं. अगर रोल अच्छा मिले तो जरूर करूंगी परन्तु फालतू रोल नहीं करना चाहती. 

आपको व्ही शांताराम' अवार्ड पाकर कैसा लगा?

मुझे बड़ी खुशी हुई, इतनी खुशी कि मैं शब्दों से बता नहीं सकती.

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