शास्त्रीय गायक स्व कुमार गंधर्व के शिष्य रहे पंडित परमानंद यादव ने लगभग बीस वर्ष पहले अपने गुरु की स्मृति में ‘कुमार गंधर्व फाउंडेशन’की स्थापना कर प्रतिवर्ष प्रतिभाशाली संगीतकारों और गायकों को कुमार गंधर्व सम्मान और कबीर सम्मान देने का सिलसिला षुरू किया था। इस बार ‘कुमार गंधर्व फाउंडेषन’ की तरफ से ‘19 वंा कुमार गंधर्व राष्ट्ीय सम्मान’से 22 अक्टूबर को ‘रवींद्रनाट्य मंदिर,मंुबई में इस समारोह के मुख्य अतिथि और विश्व विख्यात बांसुरी वादक पद्मविभूषण पंडित हरिप्रसाद चैरसिया के हाथों जाने - माने तबला वादक तालयोगी पद्मश्री पंडित सुरेश तलवलकर (पुणे) को सम्मनित किया जाएगा। इस भव्य समारोह के आयोजन में ‘कुमार गंधर्व फाउंडेषन’ के साथ ही ‘संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार तथा ‘एस के म्यूजिक’ की सहभाागिता है।
षास्त्रीय संगीत के इस भव्य पुरस्कार समारोह के प्रमुख अतिथियों में संगीतकार सिद्धार्थ कश्यप,कैप्टन मोहन नाईक, चेयरमैन डायनाकाम टी एम लिमिटेड, कैप्टन नजीर अपाध्याय, ‘कुमार गंधर्व राष्ट्ीय सम्मान’ विजेता पंडित सुरेष तलवलकर, तबलावादक सावनी तलवलकर,हरमोनियम वादक अमेय नितिन बिचु व अन्य का समावेष है।
ृ इस अवसर पर पंडित सुरेष तलवलकर की बेटी व तबला वादक सुश्री सावनी तलवलकर का स्वतंत्र तबला वादन तथा कुमारी अरहाना रामामूर्ति एवं कुमारी असिथा क्रमधारी कृष्ण और शिव स्तुति प्रस्तुत करेंगी.कार्यक्रम का संचालन श्रीमती संध्या देशमुख और आनंद सिंह करेंगे.जबकि लोगों का स्वागत षास्त्रीय गायक तथा ‘कुमार गंधर्व फाउंडेषन’ के संस्थापक ,अध्यक्ष व मैनेजिंग ट्स्टी पंडित परमानंद यादव करेंगें।
पंडित परमानंद यादव किसी परिचय के मौहताज नही है। 1 जनवरी 1963 को देवरिया,उत्तर प्रदेश में जन्में पंडित परमानंद यादव 1983 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संगीत विभाग से जुड़े और दस साल बाद 1993 में डॉक्टर ऑफ म्यूजिक (वोकल) की उपाधि हासिल की। इसी बीच वह स्व. कुमार गंधर्व के षिष्य भी रहे। इसके बाद वह अपने तानपुरा के साथ सपनों के शहर मंुबई पहुॅच गए। वह नियमित रूप से देष विदेष में संपन होने वाले षास्त्रीय संगीत कार्यक्रमों में हिस्सा लेते रहते हैं। फिर चाहे वह बनारस में होने वाले पांच दिवसीय ‘संकट मोचन संगीत समारोह‘हो, ‘महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय‘ वर्धा, इलाहाबाद महाकुंभ, राजभवन कोलकाता, राजभवन भोपाल, मंगलधाम मंदिर कोलकाता, उपराष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली, श्री कृष्ण भवन गाजियाबाद , लखनऊ महोत्सव, लखनऊ सहित वाराणसी, पुणे, पटना, मिराज, गोवा, मुंबई आदि शहरों में वह प्रदर्शन कर चुके हैं। पंडित परमानंद यादव ने ‘कबीर के कबीर‘ के साथ-साथ रविदास, मीरा, सावित्रीबाई फुले आदि पर लगातार कार्यक्रम किए हैं। उनके गायन के कई एलबम भी बाजार में आ चुके हैं।
स्व.कुमार गंधर्व से तो पूरा विष्व परिचित रहा है। 8 अप्रैल, 1924 को कर्नाटक के धारवाड़ में जन्में सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक कुमार गंधर्व का 68 वर्ष की उम्र में 12 जनवरी 1992 को देवास में निधन हो गया था। उनका असली नाम शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकाली था। .उन्होने पुणे में प्रोफेसर देवधर और अंजनी बाई मालपेकर से संगीत की शिक्षा ग्रहण की थी। शिवपुत्र जन्म जात गायक थे। दस वर्ष की आयु से ही संगीत समारोहों में गाने लगे थे और ऐसा चमत्कारी गायन करते थे कि उनका नाम कुमार गंधर्व पड़ गया।
कुमार गंधर्व ने अप्रैल 1947 में गायिका भानुमती से विवाह करने के बाद देवास, मध्य प्रदेश में रहना षुरू कर दिया था। बाद में वह इंदौर चले गए। पर इंदौर वह गाना गाने नहीं बल्कि मालवा की समशीतोष्ण जलवायु में स्वास्थ लाभ करने गए थे। क्योंकि उन्हें टी .बी थी,जिसका उन दिनों कोई पक्का इलाज नहीं था। पर वह जल्द ही देवास लौट आए थे। कुमार गंधर्व की पत्नी भानुमती देवास के एक स्कूल में पढ़ा कर गायक पति का इलाज और घर चलाती थी। .वह जितनी सुंदर गायिका थीं,उतनी ही कुशल गृहिणी नर्स थी। .कुमार गंधर्व स्वस्थ होकर पुनः नए तरह का गायन कर सके,इसका श्रेय भानुताई को ही दिया जाता है। अफसोस की बात यह रही कि अपने पति को स्वस्थ करने के बाद भानुमति का 1961 में दूसरे पुत्र को जन्म देते हुए निधन हो गया था।
ृ जिस घर में कुमार गंधर्व स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे, तब वह देवास के लगभग बाहर था,और वहां हाट लगा करता थां। कुमार गंधर्व ने वहीं बिस्तर पर पड़े पड़े मालवी के खांटी स्वर महिलाओं से सुने। वहीं पग- पग पर गीतों से चलने वाले मालवी लोक जीवन से उनका साक्षात्कार हुआ। स्वस्थ होते हुए और नया जीवन पाते हुए उनमें एक गायक का भी जन्म हुआ। टी बी की बीमारी से 1952 में स्वस्थ होकर जब कुमार गंधर्व ने गायन षुरू किया था,तब वह पुराने कुमार गंधर्व नहीं रह गए थे। तभी तो कुमार गंधर्व को कालीदास के बाद मालवा का सर्वाधिक दिव्य सांस्कृतिक विभूति माना गया.लोक संगीत को शास्त्रीय से भी ऊपर ले जाने वाले कुमार गंधर्व ने कबीर को जैसा गाया, वैसा कोई नहीं गा सका। तालयोगी पंडित सुरेष तलवलकरः एक परिचयः
तालयोगी पंडित सुरेश तलवलकर, वर्तमान समय के सबसे महान तबला वादकों में से एक हैं। एक कुशल कलाकार और एक गुरु के रूप में, उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत की गौरवशाली परंपरा में बहुत योगदान दिया है। उनका जन्म 1948 में चेंबूर, मुंबई में एक महाराष्ट्यिन परिवार में हुआ था। शुरुआत में उन्होंने अपने पिता दत्तात्रेय तलवलकर से तबला बजाना सीखा।
पंडित सुरेश तलवलकर श्री धोलेबुवा के प्रतिष्ठित ‘‘कीर्तनकार‘‘ परिवार से हैं।‘‘कीर्तन‘‘ भक्ति और संगीत प्रवचन का एक शास्त्रीय रूप होने के कारण, बचपन में ही शास्त्रीय संगीत के प्रति रुचि पैदा कर दी गई थी। इसके अलावा बहुत कम उम्र में, उनके पिता श्री दत्तात्रेय तलवलकर ने उन्हें ‘‘तबला‘‘ की कला में दीक्षित किया। फिर उन्होंने अनुभवी गुरुओं, पं. पंढरीनाथ नागेशकर और पं. विनायकराव घांग्रेकर,व प्रसिद्ध मृदंगम वादक पं. रामनाद ईश्वरन से भी षिक्षा ग्रहण की। इस विविध प्रशिक्षण ने सुरेश तलवलकर को उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत दोनों की सूक्ष्मताओं को आत्मसात करने में सक्षम बनाया, जिससे उन्हें एक संगीत में बदल दिया गया।
अद्वितीय प्रतिभा से संपन्न होने के कारण, सुरेश तलवलकर अनेक संगीत समारोहों में कई महान कलाकारों के साथ तबला वादक रहे हैं। पं. गजाननबुवा जोशी और पं. निवृतिबुवा सरनाइक उन लोगों में शामिल हैं, जिनके साथ वह सबसे ज्यादा कार्यक्रम किए। वह कृतज्ञतापूर्वक उन्हें गुरु मानते हैं और उन्हें उस गहरी अंतर्दृष्टि का श्रेय देते हैं, जो वह आज शास्त्रीय संगीत के लिए रखते हैं।
सुरेश तलवलकर ने पहली बार मुखर संगत लेने की उपन्यास अवधारणा की शुरुआत की और तबला वादन में एक नया आयाम और दिशा जोड़ी।उनकी प्रतिभा को ‘‘ताल माला‘‘ और ‘‘जोड़ ताल‘‘ के उत्कृष्ट प्रस्तुतीकरण द्वारा उजागर किया गया है, एक योगदान जिसे पारखी और जनता द्वारा समान रूप से सराहा गया है।
रचनात्मकता और नवीनता के लिए उनकी अंतहीन खोज उन्हें एक विशिष्ट संगीतकार बनाती है। उनकी सीडी जैसे ‘‘ताल यात्रा‘‘ या ‘‘लय कल्पना‘‘ और समूह संगीत कार्यक्रम जैसे ‘‘ताल माला‘‘ और
‘‘ताल यात्रा‘‘ को उसी के लिए सबसे अच्छा उद्धृत किया जा सकता है। उनकी रचनाओं ने न केवल भारत के बल्कि पश्चिमी देशों के संगीतकारों को भी प्रभावित किया है और आज, कई जैज संगीतकार अपनी संगीत यात्रा में उनका मार्गदर्शन चाहते हैं।
तलवलकर ने 1960 के दशक के उत्तरार्ध से अक्सर सारंगी वादक राम नारायण के साथ प्रदर्शन किया। तो वहीं शास्त्रीय गायक उल्हास कशालकर के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका,अफ्रीका व यूरोप का दौरा किया। उन्होंने तबला वादकों को पढ़ाया, जिनमें रामदास पलसुले विजय घाटे और पश्चिमी ढोल वादक शामिल हैं।
तलवलकर की शादी शास्त्रीय गायिका पद्मा तलवलकर से हुई है और उनकी एक बेटी, तबला वादक सावनी और एक बेटा, मुंबई का व्यवसायी और तबला वादक सत्यजीत है।‘‘गुरु शिष्य परम्परा‘‘ को भारतीय शास्त्रीय संगीत की आत्मा मानने वाले सुरेष तलवलकर भी गुरू षिष्य परंपरा के प्रबल अनुयायी हैं। एक गुरु के रूप में उनकी शिक्षण क्षमता और विशेषज्ञता बेजोड़ है। आज, नई पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ तबला वादकों में से अधिकांश उनके शिष्य हैं। उनके मार्गदर्शन में, उन्होंने एकल वादन में या गायन, वाद्य संगीत और कथक नृत्य की संगत में, समान रूप से उच्च दक्षता प्राप्त की है।
वह कोल्हापुर,महाराष्ट्,भारत में एक सेंचुरियन संगठन द्वारा शुरू की गई गुरु शिष्य परंपरा पर आधारित एक परियोजना के लिए एक प्रमुख गुरु भी हैं।
सुरेष तलवलकर को अब तक अनेक पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं।इन्ही में से कुछ प्रमुख पुरस्कारों में से 1966 में अखिल भारतीय रेडियो पुरस्कार, 2004 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 2013 में पद्म श्री से सम्मानित किया जा चुका है।