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मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

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By Sulena Majumdar Arora
मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन
New Update

-सुलेना मजुमदार अरोरा

पद्मश्री

डॉ

रामानंद

सागर

,

जिनकी

कलम

से

29

से

ज्यादा

सुपर

हिट

फिल्मों

की

कहानी

लिखी

गई

थी

और

जिनके

द्वारा

निर्मित

निर्देशित

सिल्वर

जुबली

फिल्में

,

जैसे

घुंघट

’, ‘

जिंदगी

’, ‘

आरजू

’, ‘

आँखें

’, ‘

गीत

’, ‘

ललकार

’, ‘

चरस

’, ‘

बगावत

बॉलीवुड

के

इतिहास

में

स्वर्ण

अक्षरों

में

अंकित

है

और

जिन्होंने

एक

देवदूत

की

तरह

रामायण

को

इलेक्ट्रॉनिक

मीडिया

में

उतार

कर

एक

बार

फिर

अपना

नाम

अमर

कर

दिया

,

उनका

अपना

जीवन

भी

किसी

अमर

कथा

से

कम

नहीं

है

,

जिसमें

अथाह

दर्द

,

भयंकर

तकलीफ

,

लंबा

मानसिक

और

शारीरिक

संघर्ष

तथा

मौत

से

आंखें

मिलाने

की

हिमाकत

के

साथ

-

साथ

,

जीने

की

जिजीविषा

और

इस

कलयुग

में

नीलकंठ

की

तरह

दुनिया

द्वारा

दिए

गए

हर

तरह

के

गरल

को

आनंद

के

साथ

आत्मसात

करके

,

मन

और

आत्मा

से

जीवन

नृत्य

करने

की

कला

समाहित

है।

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

यह

किसी

आम

इंसान

के

बूते

की

बात

नहीं

,

यह

तो

किसी

संत

के

लिए

ही

संभव

है

और

शायद

इस

वजह

से

डॉ

रामानंद

सागर

जी

को

आज

संत

का

दर्जा

दिया

जाता

है

,

जिनका

जन्म

ही

हुआ

था

टीवी

पर

पवित्र

रामायण

को

उतारने

जैसा

दिव्य

नियोग

के

लिए

,

लेकिन

क्या

आप

जानतें

हैं

कि

इस

डिवाइन

मिशन

को

पूरा

करने

के

लिए

रामानंद

सागर

जी

का

एक

तरह

से

पुनर्जन्म

हुआ

था।

जी

हां

इसे

पुनर्जन्म

ही

तो

कहेंगे

वरना

क्या

आज

से

लगभग

उन्यासी

,

अस्सी

वर्ष

पहले

,

टीबी

जैसी

भयंकर

,

जानलेवा

बीमारी

से

जूझते

हुए

,

मौत

के

निश्चित

जबड़ों

से

क्या

वे

निकल

कर

पाते

थे

?

ये

उन

दिनों

की

बात

है

जब

टीबी

एक

लाइलाज

रोग

था

और

जिसकी

कोई

दवा

नहीं

थी।

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

यह

सत्य

कथा

डॉ

रामानन्द

सागर

जी

के

सुपुत्र

श्री

प्रेम

सागर

,

जो

स्वयं

एक

अवॉर्ड

विनिंग

सिनेमैटोग्राफर

है

,

की

बहुचर्चित

पुस्तक

एन

एपिक

लाइफ

रामानंद

सागर

,

फ्रॉम

बरसात

टू

रामायण

में

वर्णित

है।

श्री

प्रेम

सागर

ने

अपना

पुत्र

धर्म

का

पालन

करते

हुए

अपने

पापाजी

के

आश्चर्य

जनक

जीवन

लीला

को

पापाजी

के

ही

श्रीमुख

से

सुन

कर

,

गुनकर

और

सहेज

कर

पुस्तक

का

रूप

दे

डाला

जिसकी

चर्चा

,

और

मांग

दिनों

दिन

बढ़

रही

है।

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

उन

दिनों

रामानंद

सागर

का

जीवन

संघर्षों

से

गुजर

रहा

था।

उन्नीस

से

चौबीस

वर्ष

की

उम्र

में

वे

बहुत

सारी

जिम्मेदारियां

उठाने

लगे

थे।

परिवार

पालने

की

जिम्मेदारी

उन

पर

थी

,

अपने

प्रथम

दुधमुंहे

पुत्र

सुभाष

के

लिए

दूध

का

जुगाड़

करना

था

और

अभावों

से

भरे

दिन

थे।

आज

की

तरह

उन

दिनों

भी

काम

पाना

बेहद

मुश्किल

था।

बेहतरीन

लेखक

और

साहित्यकार

होते

हुए

भी

रोजी

-

रोटी

के

जुगाड़

के

लिए

उन्होंने

फिल्म

राइडर्स

ऑफ

रेल

’ (1936)

में

क्लैपर

बॉय

का

काम

किया

,

फिर

कमला

मूवीस

की

फिल्म

कोयल

’ (1940)

में

रोशन

लाल

शोरी

के

निर्देशन

में

,

नायिका

नीलम

के

ऑपोजिट

उन्हें

नायक

बनने

का

भी

अवसर

मिला।

उन्होंने

पंचोली

स्टूडियो

कृत

फिल्म

कृष्णा

में

अभिमन्यु

की

भूमिका

भी

निभाई।

यानी

सतत

व्यस्त

रहते

थे।

लेकिन

उन्हीं

दिनों

चुपके

से

टीबी

जैसे

महारोग

ने

उनके

शरीर

पर

कब्जा

कर

लिया।

बताया

जाता

है

,

कि

नीलम

को

भी

टीबी

थी

,

इसलिए

उनके

साथ

काम

करते

हुए

यह

रोग

रामानंद

सागर

को

भी

लग

गया।मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

जिसका

उन्हें

एहसास

भी

नहीं

था।

तबीयत

खराब

होने

लगी

,

लेकिन

इसे

वे

मेहनत

की

थकान

समझकर

नज़रअंदाज

करते

रहे।

सुबह

से

रात

तक

तरह

-

तरह

के

काम

में

खटते

रहे

,

कभी

सुनार

के

यहां

अपरेंटिस

के

रूप

में

काम

किया

,

कभी पीउन

का

काम

किया।

यहां

तक

कि

जब

कुछ

काम

ना

मिला

तो

सड़क

पर

साबुन

भी

बेचा

,

ट्रक

धोने

का

काम

भी

किया।

दिनभर

वे

मेहनत

करते

और

रात

को

जाग

-

जाग

कर

पंजाब

यूनिवर्सिटी

लाहौर

की

पोस्ट

ग्रेजुएशन

की

पढ़ाई

करते

,

जिसमें

आगे

चलकर

उन्हें

गोल्ड

मेडल

तथा

मुंशी

फजल

की

उपाधि

मिली

थी।

लेकिन

दिन

-

रात

मेहनत

करने

से

वे

टीबी

के

जबड़े

में

फंसते

चले

गए।

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

एक

दिन

उन्हें

खून

की

उल्टी

हुई

,

डॉक्टर

के

कहने

पर

एक्सरे

किया

और

तब

उन्हें

और

पूरे

परिवार

को

पता

चला

कि

टीबी

है।

उन

दिनों

टीबी

का

कोई

इलाज

नहीं

था

,

सिर्फ

दूरदराज

के

खुली

हवा

वाले

सैनिटोरियम

में

भेज

दिया

जाता

था।

आगे

जीना

मरना

उसकी

किस्मत।

रामानंद

सागर

को

भी

घर

से

दूर

कश्मीर

के

तंगमार्ग

स्थित

सैनिटोरियम

में

भेज

दिया

गया।

यह

वह

जगह

थी

,

जहां

उनके

पूर्वज

कई

विशाल

गांव

के

गणमान्य

जमीदार

हुआ

करते

थे

और

श्रीनगर

में

सबसे

श्रीमंत

,

धनी

लोगों

में

उनकी

गिनती

होती

थी

,

लेकिन

पीढ़ियों

से

चलती

रही

यह

जमीदारी

, 1925

तक

आते

-

आते

खत्म

होती

गई

और

फिर

सब

कुछ

खत्म

हो

गया।

  मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

सैनिटोरियम

में

भर्ती

सारे

टीबी पेशेंट

जिंदगी

और

मौत

से

जूझ

रहे

थे।

यह

वो

दुनिया

थी

जहां

मृत्यु

ही

एकमात्र

स्थाई

साथी

था।

अपने

चारों

ओर

मृत्यु

का

नृत्य

देख

रामानंद

सागर

को

अपनी

परिणीति

का

भी

भान

हो

गया।

यहाँ

उनका

अपना

कोई

नहीं

था

,

मौत

की

इस

दुनिया

में

जीवन

तलाशते

हुए

उन्होंने

अपनी

कलम

का

सहारा

लिया

और

लिखने

लगे।

वे

वहां

भर्ती

रोगियों

के

मन

में

बसी

मृत्यु

की

धारणाओं

को

लिपिबद्ध

करने

लगे।

उन्होंने

देखा

,

किस

तरह

वहां

रोगी

मृत्यु

के

आगे

समर्पित

हो

जाते

थे

,

कई

रोगी

मृत्यु

से

लड़ने

का

प्रयास

भी

करते

,

लेकिन

आखिर

जीत

मृत्यु

की

ही

होती

थी।

वहां

रहते

हुए

सभी

रोगियों

से

उनकी

दोस्ती

भी

हो

गई

और

फिर

हर

दिन

किसी

ना

किसी

दोस्त

की

अर्थी

उठते

भी

देखी।

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

उन्हीं

दिनों

उन्हें

अपने

परिवार

से

एक

पोस्टकार्ड

वाली

चिट्ठी

मिली

जिसमें

एक

खुशखबरी

बड़े

हल्के

फुल्के

अंदाज

में

कुछ

इस

तरह

से

लिखा

हुआ

था

, ‘3

सितंबर

1941

के

बुधवार

वाले

दिन

तुम्हारे

घर

पर

एक

बुद्धू

पैदा

हुआ

’!

दिन

रात

मौत

के

दर्द

,

निराशा

और

खौफ

से

भरे

सैनिटोरियम

में

रामानंद

जी

को

तीसरी

बार

बाप

बनने

की

खुशी

छा

गई।

सभी

रोगियों

ने

इस

खुशखबरी

का

जश्न

मनाने

का

फैसला

किया।

लेकिन

सैनीटोरियम

से

बाहर

निकलने

की

किसी

को

इजाजत

नहीं

थी

,

फिर

भी

रात

के

अंधेरे

में

,

सर

पर

चादर

ओढ़े

सारे

लोग

पास

के

गन्ने

और

मक्के

के

खेत

में

छुप

गए

और

वहां

सूखी

लकड़ियां

जलाकर

उसमें

खूब

भुट्टे

तोड़

-

तोड़

कर

भूनकर

खाए

और

गन्ने

का

मीठा

जीवन

से

भरपूर

रस

चूसा

और

इस

तरह

मृत्यु

के

इंतजार

में

खड़े

लोगों

ने

एक

नई

जिंदगी

के

स्वागत

का

जश्न

मनाया।

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

रामानंद

सागर

यहां

रहते

हुए

जो

भी

अनुभव

लिखते

थे

,

उन्हें

वे

उस

जमाने

(1940

के

दशक

की

)

के

मशहूर

साहित्यिक

उर्दू

पत्रिका

अदब

मशरीक

में

, ‘

मौत

के

बिस्तर

से

नामक

कॉलम

के

तहत

भेजने

लगे

जिसे

पढ़कर

पत्रिका

के

संपादक

आश्चर्यचकित

और

द्रवित

हो

उठे

,

उन्हें

मृत्यु

शैया

पर

पड़े

इस

लेखक

द्वारा

दूसरों

को

जीवन

जीने

की

हिम्मत

देने

के

जज्बे

ने

दिल

छू

लिया।

देखते

-

देखते

रामानंद

जी

का

यह

कॉलम

प्रसिद्धि

की

पराकाष्ठा

छूने

लगा

,

लेकिन

सैनिटोरियम

की

चार

दीवारी

में

,

मौत

से

जूझते

रामानंद

जी

को

इसकी

जरा

भी

खबर

नहीं

लगी

कि

बाहर

की

दुनिया

में

वे

कितने

मशहूर

हो

गए।

उन्ही

दिनों

,

रामानंद

जी

को

सैनिटोरियम

के

अंदर

,

भयावह

मृत्यु

नाद

के

बीच

,

उत्साह

और

जीवन

की

एक

झलक

,

प्रस्फुटित

होते

हुए

तब

दिखी

जब

वहां

टीबी

रोग

से

जूझते

एक

युवा

प्रेमी

युगल

,

एक

दूसरे

के

लिए

अगाध

प्रेम

और

भविष्य

के

लिए

आशावादी

योजना

की

रूपरेखा

बुनते

हुए

,

अपने

जीवन

जीने

की

जिजीविषा

के

चलते

,

स्वस्थ

हो

गए

और

हंसते

मुस्कुराते

वहां

से

चले

गए।

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

इस

जीवनदायिनी

अनुभव

ने

रामानंद

सागर

को

नई

उमंग

से

भर

दिया

और

वे

धीरे

-

धीरे

टीबी

महारोग

को

मात

देते

हुए

,

एक

जादुई

प्रभाव

से

स्वस्थ

होकर

लौटे।

इस

तरह

मौत

की

राख

से

उभर

कर

एक

अपूर्व

व्यक्ति

का

अचंभित

करने

वाले

जीवन

ने

नई

करवट

बदली।

वर्षों

-

वर्षों

बाद

2004

के

आसपास

रामानंद

सागर

ने

अपने

स्वास्थ्य

लाभ

को

लेकर

कुछ

आश्चर्यजनक

तथ्य

उजागर

किए

जिसका

संबंध

,

उनके

रोग

मुक्त

होने

से

जुड़

सकता

है।

जिन

दिनों

तंगमार्ग

के

सैनिटोरियम

में

वे

भर्ती

थे

,

वहां

एक

रोगी

,

जो

टीबी

के

अंतिम

अवस्था

में

थे

,

वह

अक्सर

पास

के

गन्ने

के

खेत

में

बैठकर

,

गन्ना

चबाते

हुए

करुण

स्वर

में

गाता

रहता

था

, ‘

दुख

के

दिन

अब

बीतत

नाही

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

क्योंकि

डॉक्टरों

ने

उसे

जवाब

दे

दिया

था

अतः

वह

व्यक्ति

एक

हकीम

से

मिलकर

,

उनसे

अपनी

रोग

की

दवा

पूछते

रहते

थे

,

लेकिन

हकीम

के

पास

टीबी

का

कोई

दवा

नहीं

थी।

बावजूद

इसके

,

वह

रोगी

धीरे

-

धीरे

ठीक

होने

लगा।

तब

हकीम

का

माथा

ठनका

,

उसने

उस

रोगी

से

उसकी

दिनचर्या

के

बारे

में

पूछा

तो

उन्हें

पता

चला

कि

वो

इंसान

रोज

गन्ने

की

खेत

से

गन्ना

उखाड़कर

खाता

था।

आश्चर्य

और

कौतूहल

के

साथ

उस

हकीम

ने

उस

जगह

को

खोदा

जहां

से

रोगी

गन्ना

तोड़ता

था

और

ये

देखकर

आश्चर्यचकित

रह

गया

कि

वहां

एक

विशाल

सर्प

दफन

था।

इसके

बाद

उस

हकीम

ने

वहाँ

,

और

भी

ढेर

सारे

मरे

हुए

सांप

गाड़

दिए

और

उस

मिट्टी

में

उगने

वाले

गन्नों

से

टीबी

के

लिए

यूनानी

दवा

बनाई।

शायद

रामानंद

सागर

ने

वो

यूनानी

दवा

खाई

होगी

और

इसलिए

ठीक

हो

गए

होंगे।

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

रामानंद

सागर

जी

ने

उर्दू

अखबार

हमदर्द

में

11

अक्टूबर

1942

को

कश्मीर

में

तपेदिक

नाम

से

एक

विस्तृत

लेख

लिखा

जिसमें

उन्होंने

लिखा

था

, ‘

अगर

स्टेट

गवर्नमेंट

सोचती

है

कि

एक

सैनिटोरियम

और

एक

आध

हॉस्पिटल

बना

देने

से

उनका

कर्तव्य

पूरा

हो

जाता

है

तो

यह

एक

पहाड़

के

बराबर

गलती

है।

वहां

से

बतौर

पत्रकार

जीवन

शुरू

करते

हुए

रामानंद

सागर

डेली

मिलाप

और

डेली

प्रताप

नामक

लाहौर

की

मशहूर

उर्दू

दैनिक

में

लिखते

रहे।

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

कालांतर

में

उन्होंने

29

लघु

कथाएं

,

तीन

उपन्यास

,

पृथ्वी

थिएटर्स

के

लिए

दो

नाटक

-‘

गौरा

और

कलाकार

’ (1948)

भी

लिखे

और

1949

से

1985

तक

29

फिल्मों

में

बतौर

निर्माता

,

निर्देशक

या

लेखक

जुड़े

रहें

तथा

भारतीय

फिल्म

इंडस्ट्री

के

लीडिंग

फिगर

के

रूप

में

प्रसिद्ध

हुए।

1985

के

पश्चात

रामानंद

सागर

जी

ने

लीजेंडरी

सीरीज

रामायण

’ (1987) ‘

श्री

कृष्णा

’ (1992)

बनाकर

टीवी

की

दुनिया

में

एक

इतिहास

रच

डाला।

रामायण

ने

53

देशों

में

650

मिलियन

दर्शकों

के

व्यूअर

शिप

के

साथ

दुनिया

में

हंगामा

मचा

दिया

मौत की राख से उभरे एक अपूर्व व्यक्ति डॉ रामानंद सागर का अचंभित करने वाला जीवन

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