/mayapuri/media/post_banners/a446b491ade10e1311fa91613c527bccf1c9f5a22469481d474218696b68ef0d.jpg)
-जे.एन.कुमार
ठीक
याद
नहीं
आता
, 13-14
वर्ष
पहले
की
घटना
होगी
.
पहाड़गंज
में
नटराज
होटल
के
रेस्टोरेंट
में
संध्या
को
कुछ
शायर
और
लेखक
इकट्ठे
हो
जाते
थे
.
दो
नौजवान
सिक्ख
लेखक
इन
गोष्ठियों
में
प्रायः
रोज
आते
थे
-
स्वर्ण
सिह
और
गुलजार
सिंह
दोनों
ने
अपने
बाल
कटा
डाले
और
नाम
में
भी
परिवर्तन
कर
लिया
,
उन्होंने
अपने
नाम
रख
लिए
एस
.
स्वर्ण
और
एस
.
गुलजार
उनका
ख्याल
था
(
और
काफी
नेक
ख्याल
था
)
कि
सिक्ख
बने
रहना
उनकी
साहित्यिक
उन्नति
में
बाधक
हैं
.
केश
कटा
कर
दोनों
ने
अपना
-
अपना
साहित्यिक
प्रगति
के
लिए
पूरी
तरह
streamline
कर
लिया।
तब
पंजाबी
की
एक
प्रसिद्ध
पत्रिका
निकलती
थी
,
चेतन
,
सुविख्यात
कहानीकार
राजेन्द्र
सिंह
बेदी
उस
पत्रिका
के
संरक्षक
थे
और
एस०स्वर्ण
26
संपादक
!
स्वर्ण
और
गुलजार
दोनों
पत्रिका
की
चिन्ता
में
दुबले
हुए
जाते
थे
.
उन्हीं
दिनों
में
गुलजार
ने
एक
गोष्ठी
में
साहित्यिक
उन्नति
के
लिए
एक
नया
फार्मूला
निकाला
था
,
अगर
कोई
लेखक
बंगला
सीख
ले
तो
वह
बंगला
साहित्य
में
से
कितनी
ही
रचनाएं
नकल
कर
(
अनुवाद
कर
)
पंजाबी
और
हिन्दी
साहित्य
में
छपवा
सकता
है
.
बंगला
का
साहित्य
कितना
विशाल
है
!
वहां
हरेक
तीसरे
घर
में
एक
राइटर
होता
है
और
हरेक
दसवें
घर
से
एक
पत्रिका
निकलती
है
! (
गुलजार
आंकड़े
देने
में
सदा
से
तेज
रहे
हैं
.
आप
उनसे
बात
कीजिए
,
वे
आपको
बता
देंगे
,
भारत
में
सौ
फिल्मों
के
पीछे
नब्बे
फार्मूला
फिल्में
बनती
हैं
,
दस
आर्ट
फिल्में
.
नब्बे
में
से
आठ
फार्मूला
फिल्में
फ्लाप
होती
हैं
और
दस
में
से
पांच
आर्ट
फिल्में
पिटती
हैं
.
इसका
मतलब
है
केवल
33%
फार्मूला
फिल्में
सफल
होती
हैं
जबकि
50%
आर्ट
फिल्में
हिट
जाती
है
.
खैर
चेतना
ऐसी
सफल
पत्रिका
-
सिद्ध
नहीं
हो
पा
रही
थी
,
एस०
स्वर्ण
तो
मोटर
पार्ट्स
के
बिजनेस
में चले
गये
और
एस०
गुलजार
अपना
भाग्य
आजमाने
बम्बई
आ
गया
,
जब
गुलजार
बम्बई
आए
तो
शीघ्र
ही
भांप
लिया
कि
फिल्म
-
जगत
में
पंजाबियों
का
आधिपत्य
जरूर
है
मगर
पंजाबी
-
पंजाबी
को
बढ़ावा
नहीं
देते
.
इसके
विपरीत
बंगालियों
का
अपना
एक
संगठित
ग्रुप
है
.
बंगाली
यथासम्भव
बंगालियों
की
सहायता
करते
हैं
,
गुलजार
ने
तय
कर
लिया
कि
वह
भी
पंख
कटा
कर
बंगालियों
की पात
में
शामिल
हो
जाएगा
.
गुुलजार
बंगला
भाषा
की
जोरदार
प्रेक्टिस
करने
लगा
.
शीघ्र
ही
उसका
बंगला
पर
अधिकार
हो
गया
.
वह
बंगला
भाषा
ही
गुलजार
की
सफलता
की
सीढ़ी
बनी
.
कैसे
बनी
यह
आगे
बतायेंगे
,
पहले
हम
आपको
यह
बता
दें
,
कि
जब
एक
पंजाबी
बंगाली
से
बंगला
में
बात
करता
है
तो
बंगाली
बाबू
कैसे
बरसात
में
गुड़
की
भेली
की
तरह
पिघल
जाता
है
.
हमारे
एक
पंजाबी
दोस्त
की
दुकान
है
-
पंजाब
शाल
भंडार
!
दोस्त
बंगला
अच्छी
तरह
जानते
हैं
,
जब
भी
उनको
दुकान
पर
कोई
बंगाली
महिला शॉल
खरीदने
आती
है
,
दोस्त
उससे
बंगला
में
बातें
करने
लगते
हैं
.
महिला शॉल
देखना
भूलकर
पूछने
लगती
है
,
आपने
बंगला
कहां
से
सीखी
,
कैसे
सीखी
?
आज
तक
उनकी
दुकान
से
बंगाली
महिला
खाली
हाथ
नहीं
लौटी
!
हम
बच्चे
होते
थे
,
तो
बंगाली
लड़कियों
को
‘
केमोन
आच्छे
कह
कर
पुकारते
थे
’
और
लड़कियां
बजाय
लाल
-
पीली
होने
के
मुस्करा
देती
थी
.
कहने
का
मतलब
यह
है
कि
बंगाली
से
कोई
काम
निकालना
हो
तो
बंगला
भाषा
का
ज्ञान
इसके
लिए
रामबाण
नुस्खा
है
,
जब
एक
बंगाली
‘
हमारा
देश
’
कहता
है
तो
उसका
मतलब
‘
बंगाल
’
होता
है
,
बंगला
भाषा
पर
अधिकार
होने
के
साथ
ही
गुलजार
के
पास
एक
ऐसा
हथियार
आ
गया
जिससे
वह
किसी
भी
बंगाली
को
वश
में
कर
सकता
था
,
भले
ही
वह
ऋषि
केश
मुखर्जी
हो
,
बिमल
राय
हो
या
राखी
,
गुलजार
बम्बई
में
मारा
-
मारा
फिर
रहा
था
,
उसने
एक
-
दो
बार
बिमल
राय
पर
बंगला
का
जादू
चलाने
की
कोशिश
की
मगर
विशेष
सफल
न
हो
सका
!
उन्हीं
दिनों
महान
अभिनेत्री
मीना
कुमारी
बहुत
दुखद
दिनों
में
से
गुजर
रही
थी
.
कमाल अमरोही
से
अनबन
हो
जाने
के
कारण
वे
एक
होटल
में
रह
रहीं
थी
,
अपना
दुख
भुलाने
के
लिए
मीना
कुमारी
ने
मदिरा
का
सहारा
लिया
था
,
वह
बहुत
अधिक
मात्रा
में
पीने
लगी
थी
,
उन्हें
अपना
दुख
बांटने
के
लिए
‘
इंटेलीजेंट
कम्पनी
की
जरूरत
थी
.
मीना
कुमारी
की
यह
जरूरत
पूरी
की
गुलजार
ने
,
गुलजार
ने
मीना
का
दुख
-
दर्द
बांटा
और
उसकी
नजरों
में
अपना
एक
स्थान
बना
लिया
,
तब
मीना
कुमारी
की
सिफारिश
पर
बिमल
राय
ने
गुलजार
से
‘
बन्दिनी
’
के
लिए
एक
गीत
लिखने
को
कहा।
यह
गुलजार
को
पहली
सफलता
थी
.
मैं
आपको
ठीक
-
ठीक
बता
नहीं
सकता
,
इस
सफलता
पर
गुलजार
को
कितनी
प्रसन्नता
हुई
थी
.
उसकी
प्रसन्नता
ठीक
-
ठीक
आंकी
नहीं
जा
सकती
,
प्रसन्नता
के
मारे
वह
कई
रात
सो
नहीं
सका
,
एस०
डी०
बर्मन
(
बंगाली
)
ने
गीत
लिखने
के
लिए
जो
धुन
दी
थी
, गुलजार
बार
-
बार
उस
पर
गीत
लिखते
थे
,
और
स्वयं
तसल्ली
न
होने
पर
फाड़
कर
फेंक
देते
थे
,
गीत
का मुखड़ा
लिखते
ही
उन्हें
लगता
,
ऐसा
गीत
तो
शैलेन्द्र
ने
पहले
ही
लिख
डाला
और
कभी
लगता
शकील
साहब
उनके
लिखे
गीत
को
वर्षों
पहले
नकल
कर
चुके
हैं
, खैर
साहब
किसो
तरह
गीत
लिखा
गया
और
खासा
ओरिजिनल
गीत
लिखा
गया
‘
मोरा
गोरा
रंग
लई
ले
,
मोहे
श्याम
रंग
दई
दें
’
इस
ओरिजिनल
गीत
लिखने
में
गुलजार
को
इतनी
मेहनत
करनी
पड़ी
कि
उसने
भविष्य
में
कोई
भी
चीज
ओरिजिनल
न
लिखने
की
कसम
खा
ली
.
मीना
कुमारी
तो
चली
गई
मगर
वह
इस
संसार
में
दो
व्यक्तियों
का
भला
करती
गई
,
कमाल
अमरोही
और
गुलजार
,
मीना
जी
के
कारण
गुलजार
फिल्म
जगत
में
पहचाना
जाने
लगा
था।
इसी
बीच
गुलजार
ने
दो
बंगालियों
के
दिलों
में
स्थान
बना
लिया
था
,
राखी
और
ऋषिकेश
मुखर्जी
!
राखी
बंगाल
में
अपने
पति
को
तलाक
देकर
बम्बई
आई
थी
,
और
फिल्मों
मैं
काम
पाने
की
इच्छुक
थी
.
गुलजार
ऐसी
दुखी
स्त्रियों
की
सहानुभूति दिखाने
में
एक्सपर्ट
है
ही
,
बस
उसने
बंगला
का
जादू
राखी
पर
चला
दिया
,
राखी
इस
जादू
से
कैसा बंध
गई
,
यह
पाठकों
को
बताने
की
जरूरत
नहीं।
ऋषिकेश
मुखर्जी
ने
गुलजार
को
धीरे
-
धीरे
आजमाया
,
सबसे
पहले
हृषि
दा
ने
गुलजार
के
कंधों
पर
‘
आर्शीवाद
’
के
संवाद
लिखने
का
भार
सौंपा
‘
आर्शीवाद
’
का
वास्तविक
नायक
अशोक
कुमार
(
फिल्म
में
संजीव
कुमार
नाम
मात्र
के
लिए
नायक
बना
है
)
शायर
है
!
गुलजार
भी
शायर
है
.
वह
बला
का
मेहनती
है
,
इसमें
दो
मत
नहीं
हो
सकते
, ‘
आर्शीवाद
’
में
कविता
-
नुमा
डायलाॅग
लिखकर
हृषि
दा
का
मन
जीत
लिया
.
हृषि
दा
को
फिल्म
‘
गुड्डी
’
में
कहानी
,
पटकथा
,
संवाद
सब
गुलजार
के
जिम्मे
था
,
अपना
यह
रोल
भी
गुलजार
बखूबी
निभा
ले
गया
.
इसके
पश्चात
तो
कहना
ही
क्या
था
! ‘
मेरे
अपने
में
हृषि
दा
ने
गुलजार
को
निर्देशक
बना
दिया
.
गुलजार
और
हृषिकेश
ने
विदेशी
फिल्मों
को
आधार
बना
कर
एक
के
बाद
एक
आर्ट
फिल्में
देनी
शुरू
कर
दी
,
गुलज़ार
की
फिल्म
का
आधार
किसी
विदेशी
फिल्में
खोजा
जा
सकता
है
. ‘
परिचय
’ (
साऊंड
आफ
म्यूजिक
)
का
रूपांतर
है
तो
“
नमक
हराम
” (
बेकेट
)
का
‘
कोशिश
’
फिल्म
(
हेप्पीनेस
फार
अस
एलोन
)
बम
भारतीयकरण
है
.
इसपर
शर्म
की
बात
यह
है
कि
जब
फिल्म
की
कहानी
को
पुरस्कृत
किया
गया
तो
गुलजार
ने
उस
पुरस्कार
के
स्वीकार
कर
लिया
.
कायदे
से
उन्हें
यह
पुरस्कार
फिल्म
के
जापानी
लेखक
को
देना
चाहिए
था
.
जो
हो
,
गुलजार
एक
सफल
व्यक्ति
है
.
पिछले
दिनों
मैं मुंबई
गया
.
फेमस
सिने
लेबोरेट्री
में
लता
और
मदन
मोहन
से
भेंट
हुई
.
गुलजार
साहब
भी
वहाँ
मौजूद
थे
.
बहुत
प्रेमभाव
से
मिले
. ‘
मायापुरी
’
के
ताजा
अंक
की
प्रशंसा
साथ
फोटो
खिचवाया
.
मैंने
इंटरव्यू
लेने
की
बात
कही
तो
अगले
दिन
4
बजे
का
समय
दिया
,
मैं
क्लब
बैक
रोड
पर
वाई
.
एम
.
सी
.
ए
.
होटल
में
ठहरा
हुआ
था
.
अगले
दिन
बहुत
तेज
वर्षा
हो
रही
थी
.
मैंने
12
बजे
गुलजार
को
फोन
कर
कनफर्म
कर
लिया
,
कि
वह
4
बजे ऑफिस
पर
ही
मिलेंगे
.
टैक्सी
पर
पूरे
50
रुपये
खर्च
कर
मैं
4
बजे
गुलजार
के ऑफिस
पहुंचा
,
गुलजार
उस
समय
अपने
सहायक
भूषण
वन
-
माली
(
गुलजार
का
पुराना
कवि
दोस्त
जो
कभी
“
नई
सदी
”
में
सहायक
संपादक
रह
चुका
था
)
के
साथ
बैठे
बातें
कर
रहे
थे
.
गुलजार
ने
मुझे
देखते
ही
कहा
-“
सौरी
,
आज
तो
मैं बिजी
हूं
,
आप
फिर
कभी
आइएगा
!
”
गुलजार
के
इस
व्यवहार
से
मैं
भौंचक्का
रह
गया
.
विश्वास
नही
हो
रहा
,
कि
वह
वही
गुलजार
है
,
जो
पहाड़गंज
में
हमारे
साथ
बैठकर
चाय
पीता
था
और
‘
चेतना
’
का
वार्षिक
ग्राहक
फांस
लाने
पर
इतना
खुश
होता
था
मानों
उसे
स्वर्ग
का
राज्य
मिल
गया
हो
.
मैंने
एक
कोशिश
और
की
-“
आपने
स्वयं ही
मुझे
4
बजे
का
समय
दिया
था
,
और
इस
समय
पूरे
4
बजे
है
”-
गुलजार
ने
अपनी
असमर्थता
जाहिर
करते
हुए
कहा
-“
समय
तो
दिया
था
मगर
मैं
बहुत
व्यस्त
हूं
,
आप
कल
9
बजे
सुबह
आ
जाइये
.
मगर
मैं
9
बजे
सुबह
नहीं
आ
सकता
था
,
क्योंकि
मुझे
रात
की
फ्लाइट
से
वापस
लौटना
था
.
बाहर
उसी
तरह
तेज
पानी
बरस
रहा
था
और
मैं
गुलजार
के ऑफिस
के
बाहर
अपने
प्यास
से
सूखे
होठों
पर
जीभ
फिराते
हुए
सोच
रहा
था
“
सफलता
पा
लेना
जितना
आसान
है
,
सफलता
पचा
लेना
उतना
ही
कठिन
है
.
और
हां
,
उस
दिन
गुलजार
ने
मुझे
अपना
इंटरव्यू
दे
दिया
होता
तो
बजाय
इस
लेख
के
आप
वह
इंटरव्यू ही
पढ़
रहे
होते
.
Films
‘
बन्दिनी
’,‘
गृह
प्रवेश
’, ‘
आनन्द
’,
आँधी
, ‘
मौसम
’, ‘
कोशिश
’,‘
परिचय
’,‘
बावर्ची
’, ‘
मेरे
अपने
’, ‘
नमकीन
’, ‘
लेकिन
’, ‘
खुशबू
’,
बसेरा
,
किताब
, ,
अचानक
, ‘
किनारा
’, ‘
मीरा
’, ‘
अंगूर
’, ‘
सदमा
’,‘
पलको
की
छाँव
,
मीरा
‘
खामोशी
’,‘
आनंद
’,‘
माचिस
’, ‘
हू
तू
तू
’, ‘
जस्ट
मैरिड
’,‘
दस
काहनियां
’, ‘
किनारा
’,‘
मीरा
’, ‘
नमकीन
’,
इजाजत
, ‘
लिबास
’, ‘
माचिस
’, ‘
ओमकारा
’, ‘
रेनकोट
’, ‘
पिंजर
’, ‘
दिल
से
’