12 मार्च की शाम भारत के लिए एक असाधारण और उमंग की रात थी क्योंकि दो खालिस भारतीय फिल्मों की कृतियों को उनकी मौलिकता के आधार पर ऑस्कर से सम्मानित किया गया, एक तो विश्वविख्यात दक्षिण भारतीय फ़िल्म 'आरआरआर का गाना' नाटू नाटू' और गुनीत मोंगा निर्मित, कार्तिकी गोंजाल्विस निर्देशित ' द एलीफेंट व्हिस्परर्स'। इन दोनों फिल्मों ने अपनी विविध सांस्कृतिक जड़ों को उजागर करते हुए भारत की संस्कृति और सुंदरता को अपने-अपने तरीके से पूरी दुनिया में प्रदर्शित किया।
यह कितनी अजीब बात है कि भारतीय सिनेमा 1913 से फिल्मों का निर्माण कर रहा है, लगभग एक सौ दस वर्ष बीत गए और अब जाकर विश्व स्तर पर भारतीय मनोरंजन जगत की कृतियों को उसकी मौलिकता के बल पर ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है। यानी इतने वर्षों से भारतीय कला जगत की धरती प्यासी चातक की तरह इस पुरस्कार का इंतज़ार कर रही थी लेकिन ऑस्कर, पुरस्कार का बहुप्रतीक्षित सम्मान किसी भी फ़िल्म को, गीत को या संगीत को उसकी मूल भारतीयता के प्रदर्शन पर प्राप्त नहीं हुआ और ना ही विश्व स्तर पर भारतीय दर्शकों के लिए यह सम्मान अपना रास्ता बना पाई। इस तरह, ऑस्कर द्वारा मान्यता की कमी से भारतीय सिनेमा जगत एक तरह से निराश रही । हालांकि, इसका मतलब यह कतई नहीं था कि सभी फ़िल्म मेकर्स के मन से सारी उम्मीदें खत्म हो गई थी। सपने देखना किसी भी फ़िल्म निर्माता, निर्देशक, गीतकार संगीतकार, गायक, गायिका , नायक, नायिका या चरित्र एक्टर्स ने बंद नहीं किया था। सिनेमा जगत के पितामह कहलाए जाने वाले फ़िल्म मेकर दादासाहब फाल्के, विश्व विख्यात भारतीय बंगाली फ़िल्म मेकर सत्यजित राय, (जिन्हे लाइफ टाइम अचीवमेंट के लिए ऑस्कर अवार्ड प्रदान किया गया था, लेकिन फ़िल्म के लिए नहीं), मराठी तथा हिन्दी फ़िल्ममेकर व्ही शांताराम, बॉलीवुड के शो मैन राजकपूर, देवानंद, डॉक्टर रामानंद सागर, विजय आनंद, सीरियस फिल्मों के मेकर मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, इन सारे दिग्गज, दृढ़ निश्चयी, भावुक तथा फ्लेक्सिबल फिल्म मेकर्स द्वारा बनाई फिल्मों के साथ, यह भारतीय सिनेमा, सदियों से ऑस्कर सम्मान प्राप्त करने की संभावना का अपना हक पाने के लिए बेचैन रही। वक्त बीतता रहा और भारतीय सिनेमा अपनी विश्वव्यापी लोकप्रियता के बावजूद, ऑस्कर का गौरव प्राप्त नहीं कर सका। प्रतिभाशाली अभिनेताओं, निर्देशकों और तकनीशियनों की एक श्रृंखला के दावे के साथ इस उधोग ने एक से बढ़कर एक फिल्मों का मंथन करना जारी रखा जिन्हें सालाना 3.6 बिलियन दर्शकों द्वारा देखा जाता रहा, फिर भी ऑस्कर के मामले में भारतीय फिल्म उद्योग वो सीमारेखा पार करने में असमर्थ रहा जो उनके और प्रतिष्ठित अकादमी पुरस्कार के बीच खिंचा रहा और साल दर साल भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री, चंद अच्छी पेशकश लिए हुए, बहुत उम्मीद के साथ, अपने बेहतरीन पहलू उजागर करके ऑस्कर की मान्यता प्राप्त करने के लिए खुद को प्रस्तुत करता रहा ।
हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि 1913 में मूक क्लासिक फ़िल्म "राजा हरिश्चंद्र" से लेकर 2022 की मुख्यधारा वाली नवीनतम हिट फिल्मों तक, भारतीय सिनेमा ने अकादमी के मतदाताओं के दिलों पर कब्जा करने का प्रयास जरूर किया है लेकिन फ़िल्म उधोग के शीर्ष सम्मान ऑस्कर हासिल नहीं कर पाने के बावजूद, भारतीय फिल्मों को पिछले कुछ दशकों में विभिन्न श्रेणियों के लिए नामांकित किया जाता रहा है, 1957 में 'मदर इंडिया' से लेकर 2002 में 'लगान' और 2019 में 'गली बॉय'। मशहूर ड्रेस डिज़ाइनर स्व. भानु अथैया को अद्भुत ड्रेस डिजाइनिंग के लिए ऑस्कर भले ही मिला हो लेकिन वो अंग्रेजों द्वारा बनाई गई फ़िल्म 'गांधी' के लिए थी, किसी मौलिक भारतीय फ़िल्म के लिए नहीं। लेखक गीतकार गुलजार, साउंड डिजाइनर रेसुल पूकूट्टी, संगीतकार ए आर रहमान, इन तीनों को भी ऑस्कर अवार्ड तो हासिल हुए लेकिन किसी भारतीय फ़िल्म के लिए नहीं बल्कि ब्रिटिश ड्रामा फ़िल्म 'स्लमडॉग मिलिनेअर' के लिए।
यानी अपनी असाधारण उपलब्धियों के बावजूद, प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कार खालिस भारतीय फिल्मों की पहुंच से दूर रही। 1913 में रिलीज हुई अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के साथ भारत एक सदी से भी अधिक समय से सिनेमाई उत्कृष्टता का पावरहाउस बना रहा। लेकिन एक वो समय भी आया जब बॉलीवुड फिल्मों का मतलब एक एक्शन हीरो, एक नाचती हीरोइन और एक बुरा नियत वाला विलन के अलावा कुछ नहीं होता था। तब ग्लोबल तौर पर यह माना जाने लगा कि मुख्यधारा की हॉलीवुड फिल्मों के साथ प्रतिस्पर्धा करना भारतीय फिल्मों के लिए मुश्किल है। इनके अलावा, यह भी समझा जाता था कि भारतीय फिल्म उद्योग अभी भी बहुत युवा है और तकनीकी उत्कृष्टता और उत्पादन मूल्यों के संबंध में पीछे है। साथ ही भारतीय फिल्मों, गीतों या वृत चित्रों को ऑस्कर से सम्मानित ना करने का ये भी कारण माना जाता रहा है कि भारतीय फिल्में अक्सर मनोरंजन और प्रदर्शन पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित करती हैं और ज्यादातर फिल्में तथा गीत/संगीत, मौलिक ना होकर रीमेक, रिमिक्स या उधार ली हुई होने से संभव है कि यह ऑस्कर की सफलता प्राप्त करने में बाधा बनती है। अकादमी के मतदाता उन फिल्मों को पसंद करते हैं जो यथार्थवाद और सामाजिक विषयों पर जोर देने के साथ अधिक जटिल और सूक्ष्म कला रूपों को भी प्रस्तुत करती हैं।
लेकिन फिर वक्त बदलने लगा। खासकर पिछले दशक से, भारतीय फिल्में, महज मनोरंजन प्रदान करने वाली मशीन ना बनकर भावनात्मक, बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से दर्शकों के साथ जुड़ने का प्रयास करने लगी, इसके बावजूद, दुर्भाग्य से, इन जीवंत सिनेमाइ अनुभवों को ऑस्कर की नजर से नहीं देखा गया जो इस अकादमी के प्राइड एंड प्रेजुडइस तथा रूढ़ियों का एक वसीयतनामा जैसा था, जो आज भी विश्व स्तर पर मौजूद है। फिर भी, भारतीय सिनेमा उन कहानियों को गढ़ने का प्रयास करता रहता है जो प्रत्यक्ष रूप से इसकी विविध संस्कृति और परंपराओं का प्रतिनिधित्व करती है।
ऑस्कर में पिछले एक सौ दस सालों से भारतीय सिनेमा को मान्यता न मिलने के कई और कारण हो सकते हैं। सच पूछा जाए तो ऑस्कर शुरू से ही अमेरिकी फिल्मों को सम्मानित करने के लिए ही आयोजित होते थे, और तब से यह, अंग्रेजी भाषा में बनी फिल्मों का ही प्रतिनिधित्व करने में लगे हुए हैं । भारतीय सिनेमा, अपनी ओर से, अंग्रेजी में प्रभावशाली ढंग से संवाद प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं रहा है, इस कारण भी इसके पहचाने जाने की संभावना सीमित हो गई। इसके अतिरिक्त, यह लंबे समय से माना जाता रहा है कि भारतीय सिनेमा किसी भी अर्थ पूर्ण और ज्वलंत विषय से अधिक व्यावसायिक सफलता की ओर मुखातिब है, जो कि ऑस्कर द्वारा पालन किए जाने वाले मानदंडों के विपरीत है।
हालाँकि यह सब जानते हैं कि अकैडमी पुरस्कार के लिए गुणवत्तापूर्ण सिनेमा बनाना आवश्यक है, लेकिन माना यह भी जाता है कि ऑस्कर में मान्यता प्राप्त करने के लिए पक्ष पात की भी आवश्यकता होती है। दुर्भाग्य से, भारतीय सिनेमा में इस पहलू की कमी है, जिसने पुरस्कार सर्किट में उनकी सफलता की संभावनाओं को सीमित कर दिया है। इसके अलावा संयुक्त राज्य अमेरिका से आने वाले अधिकांश अकादमी के सदस्य ज्यादातर अमेरिकी फिल्मों से ज्यादा परिचित होते हैं, जिससे भारतीय सिनेमा को सम्मानित किए जाने की संभावना और कम हो जाती है। दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक फिल्मों का निर्माण करने के बावजूद, (लगभग 1000 फिल्में प्रति वर्ष) भारतीय फिल्म उद्योग को ऑस्कर जीतने में अनूठी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। माना जाता रहा है कि इसके अलावा , भारतीय फिल्मों का बजट, हॉलीवुड समकक्षों की तुलना में बहुत कम होता है नतीजतन, भारतीय फिल्मों के लिए समान अवसर पर प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो जाता है।
ये सच है कि बॉलीवुड, भारत में सबसे प्रमुख और प्रिय फिल्म उद्योग बना हुआ है, लेकिन यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारतीय सिनेमा सिर्फ इस एक क्षेत्र से कहीं अधिक है। टॉलीवुड, कॉलीवुड, सैंडलवुड और मोलीवुड जैसे अन्य क्षेत्रीय फ़िल्म इंडस्ट्रीज ने वर्षों से भारतीय सिनेमाई परिदृश्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जो बेहद योग्य क्वालिटी वाली और सफल फिल्में प्रदान करते हैं। इस लिहाज से पिछले काफी समय से भारतीय सिनेमा अपनी रचनात्मकता और क्वालिटी प्रोडक्ट के लिए प्रसिद्ध रहा है। फिल्मों की लगातार हिट होने के बावजूद, ग्लोबल प्लैटफॉर्म उनकी उपलब्धियों को पहचानने में धीमा रहा है। जब पुरस्कारों की बात आती है, तो इस सीमाबद्धता ने कला के कई उत्कृष्ट कार्यों को अनदेखा कर दिया है, विशेष रूप से अकादमी पुरस्कार। अब समय आ गया है कि ऑस्कर भारतीय सिनेमा की उपलब्धियों को पहचानें और ऐसा माहौल तैयार करें जो भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों की फिल्मों का स्वागत करे। ऐसा करने से ग्लोबल फिल्म उद्योग पर अत्यधिक प्रभाव पड़ सकता है, जिससे इसकी पेशकश और अधिक बढ़ सकती है और सिनेमा के बदलते परिदृश्य को प्रतिबिंबित किया जा सकता है। अकादमी पुरस्कार भारतीय फिल्मों की विशाल क्षमता को उजागर करने का एक आदर्श अवसर प्रस्तुत करते हैं, और यह आवश्यक है कि वे इसे समझें।
अपनी मौलिकता और खालिस मेड इन इंडिया के दम पर फ़िल्म 'आर आर आर' के धमाकेदार गीत संगीत ' नाटू नाटू' और गुनीत मोंगा कृत शार्ट डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म 'द एलिफेंट व्हिस्परर्स' की सफलता और ऑस्कर अवार्ड्स जीतने से भारतीय सिनेमा के लिए नए रास्ते खुलने की उम्मीद है। यह कामयाबी अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारतीय कहानियों और कॉनटेंट की विविधता को और अधिक पहचान दिलाएगी। जिस भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री को कभी सिर्फ 'बॉलीवुड' के रूप में देखा जाता था, वह भारत के विभिन्न भाषाई और क्षेत्रीय फिल्म उद्योगों के लिए ग्लोबल पहचान हासिल करने का मार्ग दुरुस्त करेगा।
इस जीत ने इस बात को और स्थापित कर दिया है कि न केवल बड़े बजट की प्रस्तुतियों, बल्कि स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं और वृत्तचित्रों को भी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सराहा जाता है।
'द एलिफेंट व्हिस्परर्स और' नाटू नाटू' गीत, भारत की विशाल प्रतिभा के उज्ज्वल उदाहरण हैं और दुनिया ने खुले हाथों से इसका स्वागत किया है। इन दो फिल्मों की सफलता निश्चित रूप से भारतीय सिनेमा और फिल्म निर्माताओं के लिए अद्भुत अवसर लाएगी।