बॉलीवुड में रोमांटिक फिल्में बनाना ठीक वैसा ही है जैसे घर में दाल-चावल बनाना। दाल का रंग भले ही बदल जाये लेकिन कॉम्बिनेशन नहीं बदलता और अक्सर टेस्ट भी नहीं बदलता। लेकिन कुनाल देशमुख एक ऐसे रोमांटिक फिल्ममेकर हैं जो हर बार, मिलती जुलती कहानी में भी नया तड़का, नए मसाले से बनाकर नया फ्लेवर ले आते हैं। कुनाल इससे पहले जन्नत, जन्नत 2, तुम मिले और राजा नटवरलाल नामक फिल्में बना चुके हैं। एक रोमांटिक ड्रामा फिल्म में भी थ्रिल कैसे रखा जाता है, ये कुनाल बखूबी जानते हैं। साथ ही फिल्म के प्रोड्यूसर दिनेश विजान और भूषण कुमार भी इन दिनों अच्छी फिल्मों में ही हाथ डालते नज़र आ रहे हैं
कहानी एक शादी के जलसे से शुरु होती है। गौतम कपूर (मोहित रैना) अपने प्यार की कहानी बता रहे हैं कि कैसे वह फ्रेंच सीखते-सीखते उसी क्लास में ‘इरा’ (डायना पेंटी) को अपना दिल दे बैठते हैं। इस शादी में कुछ गेट क्रेशर जग्गी उर्फ़ जोगिन्दर (सनी कौशल) और उसके दोस्त भी शामिल हैं जो बस मुफ्त की दारू पीने, खाना खाने आए हैं। लेकिन गौतम जब अपने दादाजी की अंगूठी को देख एक स्पीच देता है, तब जग्गी भूल जाता है कि वो गेट क्रेशर है और स्पीच की तारीफ करने पहुँच जाता है, फिर पकड़ा जाता है और शादी से बाहर कर दिया जाता है।
यहाँ कहानी तीन साल का गैप लेती है और फ्रांस की वादियों में फंसे कुछ पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और श्रीलंकन रिफ्यूजीज़ के बीच हमारा जग्गी भी होता है। अब जग्गी लंदन जाने से पहले ही पकड़ा जाता है और इसे डिटेंशन सेंटर में डाल दिया जाता है। यहीं फ्रांस में, गौतम कपूर इंडियन फोरेन सर्विस की तरफ से डिप्लोमेट की हैसियत से मौजूद होता है और उसका जग्गी से आमना सामना हो जाता है।
यहाँ जग्गी उसे बताता है कि वो इतनी दूर सिर्फ अपनी मुहब्बत कार्तिका (राधिका मदान) से मिलने आया है
स्टोरी फिर 3 महीने फ्लैशबैक में जाती है और दिखाया जाता है कि कैसे जग्गी कार्तिका से मिला और दोनों को प्यार हुआ।
कहानी भले ही एक डेस्परेट लव स्टोरी के इर्द-गिर्द घूमती हो पर फिल्म का ट्रीटमेंट बिल्कुल नया है और इसके लिए राइटर्स ‘श्रीधर राघवन और धीरज रतन तारीफ के हक़दार हैं। फिल्म के डायलॉग्स भी अच्छे हैं।
“तुम मुझे फ्रांस में नहीं मिलती तो लन्दन में मिलती, जर्मनी में मिलतीं, किसी गाँव, किसी गली किसी कूचे में ज़रूर मिलतीं, क्योंकि तुम्हें मुझसे मिलना ही था, क्योंकि तुम किस्मत हो मेरी”
इस डायलॉग पर ही पूरी फिल्म का सार रचा-बसा है। इसके अलावा ह्यूमरस डायलॉग भी बहुत मारक हैं।
डायरेक्टर कुनाल देशमुख ने फिल्म को सुस्त नहीं होने दिया, एक के बाद एक ट्विस्ट टर्न्स आते रहे और एक रोमांटिक ड्रामा फिल्म होने बावजूद स्क्रीन से निगाह हटाने के मौके नहीं मिले। लेकिन ओवर ट्विस्टी करने के चक्कर में अंत बहुत बेतुका हो गया और ख़ास आख़िर के 7 मिनट्स ने फिल्म को पहाड़ की चोटी से खाई में धक्का देने का काम किया।
तारीफ के खाते में सनी कौशल का करैक्टर ‘जग्गी सहगल’ लिखने वाले की झोलियाँ भी भरी जानी चाहिए क्योंकि ये करैक्टर ही ऐसा है कि इससे दिल मिल जाता है, ये शुरुआत में अझेल, बदतमीज़, चीप, अनोयिंग, ओवर कॉंफिडेंट लगता है पर धीरे-धीरे इस करैक्टर से मुहब्बत हो जाती है।
एक्टिंग के खाते में सनी कौशल की तुलना उनके बड़े भाई ‘विकी कौशल’ से करने की कोई ज़रूरत नहीं है। उनकी एक्टिंग स्टाइल, बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग डिलीवरी सब बिल्कुल अलग और यकीनन फ्रेश है। हाँ, कुछ एक जगह पर वो रणवीर सिंह के फैन ज़रूर नज़र आते हैं, पर ओवर आल सनी कौशल के कन्धों पर ये फिल्म थी और उन्होंने अपने करैक्टर निभाया भी वैसे ही है।
मोहित रैना अपने करैक्टर के साथ इन्साफ करते नज़र आए हैं। उनकी एक्टिंग तो अच्छी होती ही है, उनके एक्सप्रेशन्स भी लाजवाब हैं।
डायना पेंटी और राधिका मदान जम के रोई हैं, दोनों में शायद कोई प्रतिस्पर्धा थी जो लीड एक्ट्रेस होने की वजह से राधिका ने जीत ली है। डायना छोटे रोल में भी अच्छी लगी हैं, राधिका एक्ट्रेस अच्छी हैं पर उनके एक्सप्रेशंस बहुत लिमिटेड हैं, आप अंग्रेज़ी मीडियम और पटाखा देख चुके हैं तो ये बात बेहतर समझ सकते हैं।
बाकी सपोर्टिंग कास्ट ने बहुत अच्छी एक्टिंग की है, सनी कौशल के दोनों दोस्तों की कॉमिक टाइमिंग बहुत अच्छी है।
फिल्म का म्यूजिक लस्सी की तरह कई म्यूजिक डायरेक्टर्स की मेहनत से बना है, लेकिन मुख्यत इसमें मनन भारद्वाज के 3 गाने हैं, जिनमें ओरिजिनल सिर्फ शिद्दत का टाइटल ट्रैक है जिसमें मेल वोइस मनन भारद्वाज ने ख़ुद दी है और फीमेल वर्शन में रीसेंट श्रीलंकन सेंसेशन सिंगर योहानी हैं। मनन के म्यूजिक में मास्टर सलीम की आवाज़ लिए नुसरत साहब की ट्रेडिशनल कवाली ‘अंखियाँ उडीक दियां’ भी थी, जो भला हो कि फिल्म में नहीं है। हाँ, पंजाबी शादियों का ट्रेडिशनल गीत ‘चिट्टा कुक्कड़ बनेरे ते’ मनन ने बहुत अच्छा गाया है। मनन के साथ साथ सचिन-जिगर और गौरव दास-गुप्ता का भी एक एक गाना है।
ओवरआल म्यूजिक अच्छा है।
एडिटिंग श्रीकर प्रसाद ने की है, उन्होंने पूरी फिल्म टाइट रखी है, कोई फ़ालतू सीन नहीं खिंचने दिया है, जाने क्यों आख़िर के 7 मिनट उन्होंने एडिट नहीं किए। ख़ास इस एक्स्ट्रा टाइम के चलते फिल्म की आत्मा ख़त्म की गयी है।
कुलमिलाकर ये फिल्म वन टाइम वाच है, ओवर ट्विस्ट करने के चक्कर में कुनाल देशमुख क्लाइमेक्स का बुरा हाल न करते, तो ये फिल्म मस्ट वाच मूवी की केटेगरी में आ सकती थी। और हाँ, शिद्दत लफ्ज़ का सही मतलब जानना बहुत ज़रूरी है, इसका मतलब डेस्परेशन से मिलता-जुलता है जो टाइटल ट्रैक में बिल्कुल सूट नहीं कर रहा है। साथ ही, फिल्म में बहुत से फेक्चुअल एरर्स हैं, मसलन एक आईएफएस ऑफिसर को एक हवलदार तक मुहैया नहीं किया गया, डिप्लोमेट तक अब पूरी दाढ़ी बढ़ाकर ऑफिस जाते हैं आदि, आधा दर्जन हैं. मगर फिर भी, कीड़े निकालने की आदत न हो तो फिल्म वन टाइम वाच अवश्य है.
रेटिंग – 7/10*
सिद्धार्थ अरोड़ा ‘सहर’