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राजनीति कुचक्र में फंसा देवदास बना 'दासदेव'

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By Shyam Sharma
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राजनीति कुचक्र में फंसा देवदास बना 'दासदेव'

सुधीर मिश्रा अपनी अलग फिल्मों के लिये जाने जाते रहे हैं। इस सप्ताह उनकी रिलीज फिल्म का नाम है ‘दासदेव’ यानि उन्होंने फिल्म के लिये शरतचन्द चटोपाध्याय के अमर उपन्यास ‘देवदास’ का सहारा लिया। लेकिन ऐसा नहीं है। इस फिल्म के तीन प्रमुख पात्रों के नाम जरूर इस उपन्यास से लिये गये हैं बाकी देवदास से फिल्म का कोई लेना देना नहीं। क्योंकि देवदास जैसी प्रेम कहानी के विपरीत इस फिल्म में किरदारों के राजनीति में लिप्त दिखाया गया है।

फिल्म की कहानी

कहानी उत्तर प्रदेश के एक राजनैतिक घराने की है। जिसका देव यानि राहुल भट्ट उत्तराधिकारी है लेकिन वो ड्रग्स और शराब में पूरी तरह से डूबा हुआ है। पारो यानि रिचा चड्डा उस परिवार के लिये काम करने वाले अनिल जार्ज की बेटी है जो बचपन से देव से प्यार करती है। देव के पिता और प्रदेश के सीएम अनुराग कश्यप के अचानक हुये एक्सिडेंट के बाद उनकी जगह देव के चाचा अवधेश यानि सौरभ शुक्ला काबिज हो जाते हैं लेकिन वे अपने बेटे से कहीं जयादा प्यार देव को करते हैं और उसे भविष्य में अपनी खानदानी राजनीति के वारिस के तौर पर देखते हैं। उसे राजनीति के दांवपेच में माहिर करने के लिये नंदिनी उर्फ चंन्दमुखी यानि अदिति राव हैदरी को लाया जाता है, जो इस परिवार के अलावा बड़े राजनेताओं की दिलजोही के सामान के तरह अपने आपको इस्तेमाल कर राजनीति के दांवपेंच खेलने में माहिर है। एक दिन देव नशे की गर्त से बाहर निकलता है तो नंदिनी एक व्यूह रचते हुये देव को सत्ता के करीब लाती है। लेकिन उसी दौरान अपने पिता को फंसाये जाने और फिर उनकी मौत को लेकर पारो और देव के बीच इतना गंभीर टकराव हो जाता है कि इसके बाद पारो विपक्षी नेता विपिन शर्मा जैसे नपुंसक उम्रदराज शख्स से शादी कर लेती है। इसके बाद पारो ,देव और चन्द्रमुखी राजनीति के तहत ऐसी ऐसी घटनाओं का सामना करते हैं जिन्हें देख बार बार यही एहसास होता है कि राजनीति में कोई भाई बंधू नहीं होता। publive-image

डार्क और इंटेस सिनेमा के माहिर सुधीर मिश्रा हमेशा धरातल से जुड़ी फिल्मों के लिये जाने जाते रहे हैं। इस बार भी उन्होंने कहानी के तौर पर राजनीति से जुड़ा एक जटिल विषय चुना। उन्होंने इस बार देवदास के तीन पात्रों को कहानी में शामिल कर उसमें शेक्सपीयर की ट्रेजडी तथा कुछ ग्रे शेड्स घोलकर जिस राजनीति के दर्शन करवाये, उससे पता चलता हैं कि वहां सब बावन गज के होते हैं यानि वहां कोई भी पॉजिटिव नहीं है। कहानी में ऐसे किरदारों के विस्तार के चक्कर में एक जगह वे स्वंय ही किरदारों के बीच घिर जाते हैं जंहा से बाहर निकलना उनके लिये मुश्किल हो जाता है यानि पात्रों की लगाम उनके हाथ से खिसकती महसूस होने लगती है। कितने ही पात्र ऐसे हैं जिन्हें घढ़कर वे स्वंय ही उन्हें भूल गये।  फिल्म में कई संगीतकार हैं जिनके कुछ गीत जैसे धड़कन, रंगदारी और सहमी है आदि फिल्म के लिये अच्छा योगदान साबित हुये हैं। बावजूद इसके इस बार सुधीर जी ने देवदास के किरदारों को राजनीति का जो लिबास पहनाया है उसमें वे सहज नहीं दिखाई देते।

शानदार अभिनय

अभिनय की बात की जाये तो राहुल भट्ट अपनी दूसरी पारी की फिल्म दर फिल्म निखरते दिखाई दिये। इस बार उसने देव के किरदार की विषमताओं को बहुत प्रभावी ढंग से निभाया है। उन्हें निर्देशक की तरफ से अभिनय के लिये पूरा मौका दिये गये, जिसका उसने भरपूर फायदा उठाया। रिचा चड्डा ने अपने अनुभवों का इस्तेमाल करते हुये भूमिका को ईमानदार अभिव्यक्ति दी। यही सब अदिति राव हैदरी के लिये भी कहा जा सकता है। सह कलाकारों में सौरभ शुक्ला दिलीप ताहिल, दीपराज राणा, विनीत कुमार तथा राजबीर आदि कलाकार फिल्म के मजबूत पिलर्स साबित हुये।

फिल्म का निचौड़ ये है कि देवदास राजनीति के मंच पर अपनी अलग पहचान नहीं बना पाता। हां सुधीर मिश्रा की फिल्मों के प्रशंसकों को फिल्म एक हद तक पंसद आ सकती है।

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