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अभी तक हम समलैंगितता को बाहरी बीमारी के तौर पर देखते आये हैं । इसीलिये समाज में इस बीमारी से ग्रस्त लोगों को दूसरी नजर से देखा जाता रहा है । हालांकि समलैंगिगता को कानूनी मान्यता मिल चुकी है बावजूद इसके समाज में इसे आज भी हेय् दृष्टी से ही देखा जाता है। बेशक इससे पहले इस सब्जेक्ट पर या ऐसे सब्जेक्ट्स छूती हुई फिल्में बन चुकी है लेकिन वे सभी एक खार्स वर्ग द्धारा ही देखी जाती रहीं। अब एक बार फिर समलैंगिगता को आधार बनाते हुये निर्देशक शैली चौपड़ा धर की फिल्म ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ रिलीज हुई है जिसमें इस बीमारी से ग्रस्त किरदार को बीमारी से नहीं बल्कि प्राकृतिक तौर ऐसे शख्स के रूप में दिखाते हुये उसके साथ हमदर्दी दर्शाने की हिमायत की है।
कहानी
पंजाब के छोटे से कस्बे मोगा के बिजनिसमैन बलबीर चौधरी (अनिल कपूर) को वहां का मुकेश अंबानी कहा जाता है। जो हैं तो बड़ा बिजनिसमैन लेकिन आज भी उसका शौक रसोईघर में खाना बनाना ही है। दरअसल बलबीर चौधरी का सपना एक बड़ा शैफ बनने का था लेकिन घर की बंदिशों के चलते उन्हें बिजनिसमैन बनना पड़ा। उनकी बेटी स्वीटी (सोनम कपूर) और एक बेटा (अभिशेक दुहान) है। वो अपनी मां यानि बीजी (मधुमालती कपूर) तथा नोकर ब्रिजेश काला तथा सीमा पाहवा के साथ मस्त जिन्दगी बिता रहा है। दूसरी तरफ साहिल मिर्जा (राजकुमार राव) नाटकों का लेखक और निर्देश है। एक दिन उसकी मुलाकात अचानक स्वीटी से होती है तो वो पहली नजर में ही उससे प्यार कर बैठता है। लिहाजा उसके पीछे पीछे उसके शहर मोगा आ जाता है। यहां उसके साथ छतरो (जूही चावला) जो डायवर्सी होने के बावजूद बेहद खुशमिजाज और जिन्दादिल लेडी है जो साहिल की टीम को खाना सप्लाई करती है। उसे लगता है कि वो बहुत उम्दा अदाकारा है लिहाजा हमेशा एक्टिंग को लेकर साहिल के पीछे पड़ी रहती है। यहां साहिल लगातार अनग अनग बहानों के साथ स्वीटी से मिलता रहता है। लेकिन एक दिन उसे पता चलता है स्वीटी उससे प्यार नहीं करती बल्कि वो तो दिल्ली में एक शादी में मिली लड़की कुहू (रेजीना कैसेंड्रा) को प्यार करती है जो जल्द ही लंदन शिफ्ट हो जाने वाली है। दिल्ली भी वो उसी से मिलने जाती रहती है। इसके बाद साहिल उसकी मदद करने का फैसला करता है। क्या अंत में साहिल स्वीटी और कुहू को मिलवा पाता है ? क्या ये रिश्ता स्वीटी को मां बाप और भाई स्वीकार कर पाते हैं ? ये सभी सवाल फिल्म देखते हुये मिलते हैं।
डायरेक्टर
निर्देशक शैली चोपड़ा बरसों अपने भाई विदु विनोद चोपड़ा की असिस्टेंट बनी रही। जब उसने इस फिल्म की कहानी विदू को सुनाई तो वे फौरन उसके निर्देषन में फिल्म बनाने के लिये राजी हो गये। शैली जो फिल्म के द्धारा कहना चाहती थी वो पूरी तरह से नहीं कह पाती। फिल्म पहले भाग में बेहद धीमी है, उसी गति से फिल्म के किरदारों के मूवमेंट हैं। दूसरे भाग में मुख्य पात्र अपनी बात कह पाता है लेकिन असरदार ढंग से नहीं। उसका जिम्मेदार सुस्त स्क्रीनप्ले है और उतना ही जिम्मेदार फिल्म का संगीत भी है। लिहाजा कहानी के जरिये फिल्म जो कहना चाहती है नहीं कह पाती।
अभिनय
अनिल कपूर ने खुशदिल पंजाबी के किरदार को पूरी जिन्दादिली से जीया है, उसी प्रकार एक अरसे बाद दिखाई दी जूही चावला पर्फेक्ट टाइमिंग के तहत बेहतरीन कॉमेडी से दर्शक को गुदगुदाती रहती है और उसी खुबसूरती से उसका साथ ब्रिजेश काला और सीमा पाहुवा देते दिखाई देते हैं। भाई के किरदार में अभिषेक दुहान और बीजी बनी मधुमालती कपूर भी अच्छी अदाकारी का परिचय देती हैं। वहीं कुहू के किरदार में रेलीना कैसेंड्रा खूबसूरत तो लगती है लेकिन अपने किरदार को जस्टीफाई नहीं कर पाती। उसी प्रकार सोनम कपूर मासूम तो लगती है लेकिन वो जो है वो अंत तक नहीं लगती। पहली बार राजकुमार राव को लेकर कहना पड़ रहा है कि उनका किरदार इतना दमदार नहीं दिखाई दिया जिसमें उन जैसा परिपक्व अदाकार दिखाई दे। फिर भी उन्होंने अपनी सौम्यता और सहजता से उसे निभा भर दिया है।
फिल्म उस खास वर्ग को पंसद आयेगी जो समलैंगिगता की पैरवी करने में आगे रहता है ।