रेटिंगः दो स्टार
निर्माताः संदेष नागराज
लेखकः एम जी श्रीनिवास और प्रसन्ना वी एम
निर्देषकः एम जी श्रीनिवास
कलाकारः डॉ. शिव राजकुमार, जयराम, अनुपम खेर, प्रषांत नारायण, अर्चना जोईस, सत्य प्रकाष, एम जी श्री निवास
अवधिः दो घंटे सात मिनट
कन्नड़ फिल्म "केजीएफ' की सफलता ने कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री को जीवन दान दिया. उसके बाद 'केजीएफ चैप्टर 2' सहित कुछ फिल्मों ने सफलता के नए रिकार्ड बनाए. यह पूरी तरह से लाउड और एक्षन प्रधान फिल्में ही रहीं. अब लेखक व निर्देषक एम जी श्रीनिवास उसी ढर्रे पर एक एक्षन से भरपूर कन्नड़ फिल्म "घोस्ट'' लेकर आए हैं, जहां भूत प्रेत वगैरह का कोई अस्तित्व नही है. यष की फिल्मों 'केजीएफ' में जहां कोयला महत्वपूर्ण था, वहीं 'घोस्ट'' में सोना/गोल्ड महत्वपूर्ण है, जिसमें शिवा राजकुमार गैंगस्टर की भूमिका में हैं. यह फिल्म कन्नड़ के साथ ही हिंदी व अन्य भाषाओं में प्रदर्षित हुई है.
कहानीः
कहानी एक गैंगस्टर और उसकी टीम के इर्द-गिर्द घूमती है,जो न्याय की तलाष में एक जेल पर कब्जा करने के बाद जेल के अंदर छिपाए गए एक हजार किलो सोना को हथियाना चाहता है. उसका जेल पर कब्जा करने का साहस सीबीआई अधिकारी प्रसन्ना को ऐसा उलझाता है कि वह अंत तक उलझा ही रह जाता है. पूरा पुलिस प्रशासन व सीबीआई अधिकारी चरण राज ( जयराम ) इस बात का पता लगाने के लिए परेशान है कि आखिर किस मकसद से गैंगस्टर ने जेल पर कब्जा किया है. जांच अधिकारी और गैंगस्टर के बीच चूहे बिल्ली का खेल चलता रहता है. इससे पहले जांच अधिकारी को गैंगस्टर का मकसद समझ में आए उसे केस से हटाकर दूसरे जांच अधिकारी को ये मामला सौंप दिया जाता है. कहानी कई मोड़ांे से होकर गुजरती है और जो राज खुलता है,वह आष्चर्य चकित करता है.
समीक्षाः
कान फोड़ू साउंड से युक्त यह डकैटी की एक्षन प्रधान फिल्म होते हुए भी आम एक्षन फिल्मांे की से इतर तत्वों को प्रधानता दी गयी है, पर इसमें महिला प्रधान किरदार की कोई अहमियत नही है. फिल्मकार का सारा ध्यान रहस्य को बरकरार रखते हुए ज्यादा से ज्यादा एक्षन दिखाना ही मकसद रहा है. फिल्म मंे जिस तरह से गैंगस्टर को ग्लोरीफाय किया गया है, वह किसी भी समाज के लिए उपयुक्त नही है. क्या हमारे देष के हर मुख्यमंत्री से बड़ा व ताकतवर एक गैंगस्टर है? यदि ऐसा है,तो इसकी वजहें क्या हैं? आखिर राज्य का पुलिस प्रषासन राज्य के मुख्यमंत्री की बजाय गैंगस्टर की बात पर अमल क्यो करता है? इस पर विचार किया जाना चाहिए? फिल्मकार ने कहीं भी इस गैंगस्टर की पृष्ठभूमि नही बतायी. आखिर एक गैंगस्टर हर आम इंसान के बीच मसीहा क्यों है? क्या फिल्म के लेखक व निर्देषक एम जी श्रीनिवास अपनी फिल्म के गैंगस्टर को भी तमिलनाड़ु में मषहूर गैंगस्टर 'टाइगर नागेष्वर राव' की तरह महान व समाज का मसीहा बताना चाहते हैं, पर वह ऐसा क्यों है? इस पर यह फिल्म कोई बात नही करती. कुछ लोगों को यह फिल्म देखते हुए षाहरुख खान की फिल्म "जवान'' भी याद आ सकती है.
कुछ नया करने के लिए निर्देषक एम जी प्रसन्ना ने अपनी फिल्म में संदेष ले जाने के लिए कबूतर या कुत्ते की बजाय चूहे का उपयोग किया है. यह चूहा काफी प्रषिक्षित चूहा है. हम सभी जानते है कि चूहे की आदत होती है कागज को कुतरने की,मगर फिल्म में चूहा संदेष लिखे हुए कागज को दो व्यक्तियों के बीच पहुॅचाने का काम करता है. कथानक के स्तर पर कुछ नयापन जरुर है, मगर फिल्म की कमजोर पटकथा और कान फोड़ देने वाला साउंड फिल्म को कमजोर कर देता है. फिल्मकार ने अपनी फिल्म में इस बात पर भी रोषनी डाली है कि न्याय, मुक्ति और गलत को सही ठहराने के लिए लोग किस हद तक जा सकते हैं. अफसोस वह इसे सही ढंग से लोगों तक पहुॅचाने में असफल रहे हैं. माना कि इस संसार में एक ही षक्ल के सात लोग होते हैं,आप मृत इंसान की षक्ल वाला इंसान कहानी में खड़ा कर सकते हैं. मगर लेखक व निर्देषक भूल गए कि वह मृत इंसान की आवाज कहां से लाएंगे और यहीं पर फिल्म नकली हो जाती है.
एम. जी. श्रीनिवास का निर्देशकीय दृष्टि कुछ हद तक ठीक है. इस तरह की एक्षन फिल्म में गाने व महिला किरदारों की अहमियत होती भी नही है.मगर फिल्म में इमोषन और मनोरंजन का अभाव खटकता है. हिंदी डबिंग ने भी फिल्म का कचरा कर दिया. फिल्म के एक्षन दृष्य जरुर अच्छे बन पड़े हैं. मगर एक वक्त पर यह एक्षन दृष्य भी बोर करने लगते हैं. फिल्म में स्पेशल इफेक्ट्स और वीएफएक्स इस फिल्म के जान है. फिल्म के कैमरामैन महेंद्र सिम्हा ने एक्शन दृश्यों को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से फिल्माया है. फिल्म की एडीटिंग गड़बड़ है. कहानी वर्तमान व अतीत में जिस तरह से बार बार आती जाती है,वह भी कन्फ्यूजन ही पैदा करती है.
अभिनयः
गैंगस्टर की भूमिका में इकसठ वर्षीय अनुभवी व दिग्गज कलाकार डॉ. शिव राज कुमार ने षानदार अभिनय किया है. उन्होने अपने अभिनय से किरदार को गहराई प्रदान कर उसे चमत्कारी बनाया है. जयराम और प्रषांत नारायण अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं. सीबीआई ऑफिसर की भूमिका में प्रशांत नारायण और जेलर की भूमिका में सत्य प्रकाश ने अपनी भूमिका से पूरी तरह से न्याय करने की कोशिश की है. जबकि लेखक व निर्देषक ने प्रषांत नारायण के किरदार के साथ न्याय नही किया है. छोटे किरदार में अनुपम खेर नजर आते हैं,मगर प्रभाव नही छोड़ पाते.एक युवा पत्रकार के किरदार में अर्चना जोइस की प्रतिभा को बर्बाद किया गया है.