Film Review Mujib- The Making of a Nation: दिल दहला देने वाला क्लाईमैक्स सोचने पर करता है मजबूर

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By Shanti Swaroop Tripathi
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Film Review Mujib- The Making of a Nation: दिल दहला देने वाला क्लाईमैक्स सोचने पर करता है मजबूर

रेटिंग -  3 स्टार
निर्माता: बांग्लादेश फिल्म विकास निगम (बीएफडीसी) और राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी)
पटकथा लेखन: अतुल तिवारी और शमा जैदी
निर्देशन: श्याम बेनेगल
कलाकार: अरिफिन शुवू , नुसरत इमरोज तिशा , फजलुर्रहमान बाबू , चंचल चैधरी , नुसरत फारिया , रियाज , दीपक अंतानी और रजित कपूर
अवधि: लगभग तीन घंटे
भाषा: हिंदी और बंगला

1947 में जब देश का बंटवारा हुआ था, तब धर्म के नाम दो देश पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान बने थे,पर इनका संचालन पाकिस्तान से ही हुआ करता था. पूर्वी पाकिस्तान के पास प्राकृतिक संशाधन हैं, इसलिए पाकिस्तान उन पर अत्याचार कर दबा कर रखता था. धर्म के नाम पर बने इन दो देशों में भाषा को लेकर सबसे बड़ा विरोध था. पाकिस्तान में उर्दू राष्ट्रीय भाषा थी,जो कि पूर्वी पाकिस्तान पर भी थोपी गयी थी. जबकि पूर्वी पाकिस्तान के निवासी बंगला भाषा बोलते हैं. पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की मांग थी कि उर्दू के साथ ही बंगला भी राष्ट्रीय भाषा हो. इसी मुद्दे पर वहां के नेता मुजीबुररहमान ने 'मुक्तिवाहिनी'सेना बनाकर आंदोलन चलाया,जिसके परिणाम स्वरुप पाकिस्तान का दमन चक्र तेज हुआ. फिर 1971 में बड़ा युद्ध हुआ, तब मुक्ति वाहिनी की मदद के लिए भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारतीय सेना को भेजा था. युद्ध में पाकिस्तान बुरी तरह से पराजित हुआ था.और एक नए देश 'बंगला देश'' का उदय हुआ था, जिनके जनक  मुजीबुररहमान ही थे. उन्हे 'बंगबंधू' और बंगला देश के राष्ट्रपिता का दर्जा भी मिला. मगर 1975 में उनके राजनीतिक विरोधियो और सेना ने मिलकर उनका तख्तापलट करते हुए मुजीर्बुरहमान के साथ ही उनके पूरे परिवार ही नहीं बहन के परिवार का खात्मा कर दिया गया था. मुजीर्बुरहमान की बड़ी व शादीशुदा बेटी शेख हसीना व छोटी बेटी रेहाना उस वक्त जर्मनी में थी, इसलिए वह बच गयी थी. जब शेख हसीना देश की पधानमंत्री बनी तो उन्होंने अपने पिता व बंग  बधु मुजीर्बुरहमान की बायोपिक फिल्म बनाने की सोची. 2016 से पहले कई देशी व विदेशी फिल्मकारों ने फिल्म बनाने की सोची.पर सफल नहीं हुए. अंततः बंगला देश की प्रधानमंत्री शेख हसीना व  भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच हुई बातचीत के बाद 8 अप्रैल 2017 को, नई दिल्ली के हैदराबाद हाउस में शेख हसीना की उपस्थिति में, नरेंद्र मोदी ने आधिकारिक तौर पर फिल्म के भारत व बंगला देश द्वारा संयुक्त निर्माण की घोषणा की. फिर इसके निर्देशन की जिम्मेदारी श्याम बेनेगल को दी गयी. अब यह हिंदी और बंगला दो भाषाओं में बनी फिल्म 27 अक्टूबर को सिनेमाघरों में पहुॅची है.पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के भीतर अपनी अलग सांस्कृतिक विरासत को लेकर जो छटपटाहट शुरू से रही, वह इस फिल्म की अंतर्धारा है. भारत और बंगलादेश के सहयोग से बनी यह दूसरी फिल्म है. इससे पहले दोनों देशों के सहयोग से ऋत्विक घटक साल 1973 में बंगला फिल्म 'तिताश एकती नादिर नाम' का निर्माण कर चुके हैं.  

कहानी:

फिल्म की शुरूआत  पाकिस्तान में जेल में नौ माह तक तकलीफें सहने के बाद शेख मुजीबुर्रहमान (अरिफिन शुवू) के स्वदेश यानी कि बांगला देश लौटने से होती है. वह अपने देशवासियों को बताते हैं कि जेल में ही उनकी कब्र खोद दी गई थी. उन्हें फांसी देने की तैयारी थी. वहां से कहानी उनके बचपन में आती है. बचपन में ही उनकी शादी रेणु से तय हो गई थी. स्कूल दिनों में ही वह राजनीति में आ गए थे. कोलकाता में वकालत की पढ़ाई के दौरान व राजनीति से ज्यादा जुड़े. 1940 के दशक में, मुजीब की नजर प्रमुख राजनेता हुसैन शहीद सुहरावर्दी (तौकीर अहमद) पर पड़ी. 1943 में मुजीब बंगाल मुस्लिम लीग के सदस्य बने. पूर्वी पाकिस्तान बंगला को राष्ट्र भाषा बनाने की मांग कर रहा था, जिसे कायदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना ने सिरे से नकार दिया था. तब उन्होंने इसका विरोध किया और मुस्लिम लीग को छोड़ दिया. बाद में पूर्वी पाकिस्तान की स्वायतत्ता के लिए मुजीबुर्रहमान ने छह सूत्री मांग की. पाकिस्तान ने उनकी मांगे मानने से इंकार करते हुए उन्हे जेल में डाल दिया.पाकिस्तान के खिलाफ अपनी रैलियों के लिए अक्सर जेल जाने वाले मुजीब की पत्नी रेनू (नुसरत इमरोज तिशा) एक मूल्यवान सहयोगी है, जो परिवार को एकजुट रखने के साथ-साथ राजनीतिक सलाह भी देती है. मुजीब का उग्र बांग्लादेशी राष्ट्रवाद एक भावुक मुक्ति आंदोलन में परिणत होता है. कई घटनाक्रम तेजी से घटित हुए.अंततः 1971 में बंगलादेश स्वतंत्र राष्ट्र बना. बंगला देश के निवासियो ने उन्हें बांगलादेश का राष्ट्रपिता व बंगबंधू का दर्जा दिया. बंगलादेश की मुक्ति के तीन साल बाद ही 15 अगस्त 1975 को सेना ने तख्ता पलटकर मुजीबुर्रहमान की बेरहमी से हत्या कर दी. सैन्य अफसर वहीं नहीं रुके. उन्होंने मौत का ऐसा तांडव किया कि शेख मुजीबुर्रहमान के परिवार के सदस्यों को चुन-चुनकर मारा, उनकी पत्नी, उनके बेटे, दोनों बहुएं और दस साल के बेटे तक को नहीं बख्शा. उनकी दो बेटियां शेख हसीना और रेहाना इसलिए बच गईं, क्योंकि वह उस वक्त जर्मनी में थीं. यही शेख हसीना बाद में बंगलादेश में चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज हुईं.

समीक्षा:

फिल्मकार श्याम बेनेगल की  खूबी रही है कि वह ऐतिहासिक घटनाक्रमों को भी मानवीय नजरिए से पेश करते हैं, उनकी यह खूबी इस फिल्म में भी झलकती है. यही वजह है कि फिल्म में कहीं भी नकलीपन नही है. फिल्म में मेलोड्ामा नही है. फिल्म में पूर्वी पाकिस्तान से स्वतंत्र बांग्लादेश बनने के सभी ऐतिहासिक घटनाक्रमों को समेटने के साथ मुजीबुर रहमान की निजी व पारिवारिक जिंदगी को भी समेटा गया है. लेकिन फिल्म की पटकथा बहुत दमदार नहीं बन पायी है. 178 मिनट की यह फिल्म उनके पूरे जीवन सफर को समेटती जरूर है, लेकिन दर्शक को पूरी तरह बांध नहीं पाती है. फिल्म में देश विभाजन के बाद पाकिस्तान के अंदरुनी हालात का कोई जिक्र नहीं है. इतना ही नही पाकिस्तान में बैठे पूर्वी पाकिस्तान के आका किस तरह पूर्वी पाकिस्तान पर अत्याचार करते थे, तेरह दिन के युद्ध के दौरान पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान की जनता के साथ बर्बरता की थी,उसे भी ठीक से चित्रित नही किया गया. कहीं न कहीं पूरी फिल्म पाकिस्तान के शासकों व सेना को दुश्मन की तरह पेश करने से बचती नजर आती है. पूर्वी पाकिस्तान पर पाकिस्तानी सेना की बर्बरता के चलते मजबूरन तीन दिसंबर, 1971 को भारतीय सेना ने पाकिस्तानी फौज पर हमला बोल दिया था. उस प्रसंग को बेहतर तरीके से दर्शाने की आवश्यकता थी. बंगला देश के निर्माण में भारत के कूदने से जो तनाव पैदा हुआ था,उस पर भी फिल्म मौन रह जाती है. पर यहां श्याम बेनेगल चूक गए. फिल्म इस बात पर जोर देती है कि बंगलादेश के लिए अभियान धर्म के बजाय सांस्कृतिक और भाषाई चिंताओं पर आधारित है. मुस्लिम- बहुल क्षेत्र में राजनीति का चित्रण जो आस्था पर आधारित नहीं है, मुजीब के मजबूत विचारों में से एक है. लेकिन इतने सारे मील के पत्थर चिह्नित करने के बावजूद कहीं न कहीं श्याम बेनगल व उनकी लेखकीय टीम मात खा गयी. फिल्म का क्लाइमैक्स दिल दहला देने वाला होने के साथ ही सोचने पर मजबूर करता है. फिल्म के क्लाइमैक्स और प्रीक्लाईमैक्स से हर देश के हर राजनीतिज्ञ को कुछ सीख जरुर लेनी चाहिए. फिल्मकार श्याम बेनेगल जाने अनजाने फिल्म 'मुजीब' में पदासीन होते ही नेता के स्वभाव व कार्यशैली पर बहुत हलके से बात की है. फिल्म 'मुजीब' पूरी तरह से दो देशों की सरकार के धन से बनी है, जिसकी वजह से फिल्मकार ने मुजीबुर रहमान के शानदार जीवन को निष्क्रिय बना दिया है. जिसके चलते फिल्म कई जगह बोरिंग भी है.

अभिनय:

मुजीबुर रहमान उर्फ बंगबंधू के किरदार में अरिफिन शुवू अपने अभिनय की चमक जरुर दिखायी है, मगर दृढ़ इच्छाशक्ति, अटल विश्वास के साथ साथ एक जटिल राजनीतिक की भूमिका में वह पूरी तरह से खरे नहीं उतरे हैं. लेकिन मुजीबुररहमान जैसा दिखने में  मेकअप और वेशभूषा ने उनकी काफी मदद की. शुवू को उस चुंबकत्व, जीवन शक्ति और बुद्धि का उपयोग करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है जिसने उनके विषय को "बंगबंधु" (बंगालियों का मित्र) और "राष्ट्रपिता" की उपाधि दी. शेख मुजीबुर रहमान की पत्नी रेणु की भूमिका में नुसरत इमरोज तिशा भी बंगलादेशी फिल्मों की अभिनेत्री और निर्माता है. इस फिल्म में उन्होंने अपने अभिनय से अच्छा प्रभाव छोड़ा है. महात्मा गांधी की छोटी भूमिका में दीपक अंतानी अपना प्रभाव छोड़ जाते है. खोंडेकर मुश्ताक अहमद की भूमिका में फजलुर्रहमान  बाबू, शेख हसीना के किरदार में नुसरत फारिया, जुल्फिकार अली भुट्टो के किरदार में रजित कपूर, शेख लुटफर रहमान की भूमिका में चंचल चैधरी, जनरल अयूब खान की भूमिका में मिशा सावदागोर आदि का अभिनय सराहनीय रहा.  

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