फिल्म रिव्यू सैम बहादुरः करिष्माई व्यक्तित्व के स्वामी सैम मानेकशॉ के साथ न्याय नहीं हुआ

author-image
By Shanti Swaroop Tripathi
New Update
फिल्म रिव्यू सैम बहादुरः करिष्माई व्यक्तित्व के स्वामी सैम मानेकशॉ के साथ न्याय नहीं हुआ

रेटिंगः दो स्टार
निर्माताः रॉनी स्क्रूवाला
लेखकः भवानी अय्यर, शांतनु श्रीवास्तव, मेघना गुलजार
निर्देशकः मेघना गुलजार
कलाकारः विक्की कौशल, सान्या मल्होत्रा, फातिमा सना शेख, नीरज काबी, गोविंद नामदेव, जसकरा सिंह गांधी व अन्य
अवधिः दो घंटा तीस मिनट

बायोपिक फिल्म का अर्थ होता है कि जिस इंसान की बायोपिक फिल्म है,उस इंसान के जीवन से जुड़ी घटनाओं को इमानदारी संग परदे पर पेश किया जाए. बायोपिक फिल्में किसी अजेंडे के साथ नहीं बनायी जाती. मगर बॉलीवुड के फिल्मकार बायोपिक फिल्म में भी अपना एजेंडा समाहित करने से बाज नही आ रहे हैं. परिणामतः फिल्म खराब हो जाती है. ऐसा ही कुछ फिल्मकार मेघना गुलजार ने देश के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की बायेापिक फिल्म "सैम बहादुर" के संग भी किया है. इसमें खास मकसद से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल के घटनाक्रम समाहित किए हैं,मगर लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया गया. जबकि स्व.लाल बहादुर शास्त्री के कार्य काल में भी पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया था और उस वक्त भी सैम मानेकशॉ भारतीय सेना का हिस्सा थे.

कहानीः
फिल्म की कहानी 1914 में जन्में तथा 2008 में इस दुनिया को अलविदा कहने वाले सैम मानेकशॉ की है। सैम मॉनेकशॉ के ब्रिटिश शाशन के दौरान इंडियन मिलिट्री अकादमी में जाने से लेकर,उनकी प्रेम कहानी और उनके द्वितीय विष्व युद्ध के दौरान बर्ता में नौ गोलियां खाने पर ब्रिटिश डाक्टर सोचते हैं शिविर में उपस्थित ब्रिटिश डॉक्टरों को लगता है कि उसे बचाने का कोई भी प्रयास व्यर्थ होगा। वह उनसे पूछते हैं कि हम तुम्हें क्यों बचाएं? इस पर सैम चुटकुला सुना देते हैं। तब डाक्टर उनका इलाज करते हैं। इसके अलावा युद्ध में उनकी वीरता के लिए मिले मिलिट्री क्रॉस से लेकर पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान से आजाद कराकर बांगला देश बनवाने तक के युद्धों और रिटायरमेंट से 15 दिन पहले फील्ड मार्शल बनाए जाने की कहानी है। सैम मानेकशॉ व याह्या खान की दोस्ती,जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी और अन्य बड़े कांग्रेस के नेताओं के साथ सैम के रिश्तों का भी वर्णन है। तो वहीं सैम मानेकशॉ की पत्नी सिल्लू का प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से जलन की कहानी भी है। सैम ने कुल पांच युद्धों में बहादुरी का परिचय दिया था-द्वितीय विश्व युद्ध (1942), भारत-पाक विभाजन युद्ध(1947), भारत-चीन युद्ध (1962)। , भारत-पाक युद्ध (1965), और बांग्लादेश मुक्ति युद्ध (1971)। मगर 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध का कहीं कोई जिक्र नही है। उन्हें पद्म भूषण, पद्म विभूषण और वीरता के लिए मिलिट्री क्रॉस (द्वितीय विश्व युद्ध) सहित कुछ सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। वह भारतीय सेना में फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत होने वाले पहले सेना अधिकारी भी थे।

समीक्षाः
सैम मानेकशॉ उर्फ सैम बहादुर आर्मी मैन होने के बावजूद भावुक और मनोरंजन पसंद इंसान थे। पर इस फिल्म में इंसानी भावनाओं व मनोरंजन का घोर अभाव है। निर्देशक और दो लेखक महिलाएं है, जो कि महिलाओं की दूसरी महिला के प्रति जलन को बेहतर समझती हैं, इसलिए उन्होने इंदिरा गांधी के प्रति सैम की पत्नी सिल्लू की जलन को जरुर पेश किया है। मगर सैम बहादुर की युद्ध तकनीक,उनकी बुद्धिमत्ता और असली जंग शुरु होने से पहले उसे कागज पर लड़ लेने की शक्ति जैसी खूबियों से लेकर सैम के रिटायरमेंट के बाद उन पर लगे आरोपों, देश के पहले फील्ड मार्शल की मौत पर हुई बेकद्री तक पर फिल्म खामोश रह जाती है। यह फिल्म के तीनों लेखकों की कमजारी को उजागर करता है। मतलब जिन दृश्यों से सैम बहादुर का असली व्यक्तित्व उभरता या उनका दर्द उभरता,उस पर लेखकों व निर्देशक ने खामोशी को अपना हथियार बना लिया। सैम ने कुल पांच युद्ध लड़े थे,मगर 1965 के भारत पाक युद्ध के साथ ही देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को भी इस फिल्म में कोई जगह नही मिली। इतना ही नही जनरल अरोड़ा भी महज सैम के एक प्रतिनिधि बनकर रह गए हैं। क्या निर्देशक के इस कृत्य को क्षमा किया जा सकता है।

सैम की जिंदगी व इतिहास में  1971 का भारत-पाक युद्ध सबसे प्रतिष्ठित व मायने रखता है,मगर इसे एक खराब गाने में ही खत्म कर दिया गया। आखिर ऐसी जल्दबाजी क्यों थी? फिल्म के एडीटर व साउंड इंजीनियर ने भी चलताउ काम किया है। कई दृश्य बाद में आते हैं,पर उनसे जुड़े सवांद पहले शुरू हो जाते हैं।  

इतना ही नही सैम बहादुर के 40 साल के सैन्य करियर में चार युद्ध के दृश्य अच्छे से दिखाए जाने  चाहिए थे। पर फिल्म में हर लड़ाई से पहले वॉर रूम और मिलिट्री हेडक्वॉर्टर ही नजर आता है। युद्ध के दृश्य महज डाक्यूमेंट्री फिल्म की ही तरह हैं। तो क्या मेघना गुलजार ने सैम पर कोई डाक्यूमेंट्री बनायी है।  फिल्म में युद्ध के मौलिक ब्लैक एंड व्हाईट डॉक्यूमेंट्री फुटेज बैकग्राउंड स्कोर के साथ दिखाई गई हैं। सैम व उनकी पत्नी सिल्लू के बीच रोमांस को भी ठीक से नही गढ़ा गया। मेघना गुलजार के सैम बहादुर (विक्की कौषल) ,बड़े पैमाने पर हिंदी बोलते हैं, अंग्रेजी के साथ-साथ, थोड़ी पंजाबी और यहां तक कि नेपाली भी बोलते हैं। माना कि पंजाब में जन्में पारसी सैम पर अंग्रेजों का प्रभुत्व था। पर उनके व्यक्तित्व को ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए अंग्रेजी संवाद भी हिंदी हो सकते थे। फिल्म में उन्हे पद्म भूषण व पद्म विभूषण मिले थे,मगर फिल्म में सिर्फ एक का जिक्र नही है। कम से लेखक व निर्देशक ने याह्या खान पर नरम रुख अपनाते हुए इस बात को लेकर सचेत हैं कि पाकिस्तानी जनरल बाद में राष्ट्रपति बनने के प्रति कोई सहानुभूति न पैदा हो। शायद निर्देशक को निर्माता की सोच का अहसास रहा। क्योंकि फिल्म के निर्माता रॉनी स्क्रूवाला प्रचलित सामाजिक, राष्ट्रवादी भावनाओं को ठेस न पहुँचाने में बुद्धिमान हैं। फिल्म में जमकर राष्ट्वाद व देश भक्ति परोसी गयी है,यह स्वागत योग्य है, मगर इतिहास के साथ छेड़छाड़ ठीक नहीं।  किरदारों के अनुरूप उपयुक्त कलाकारों का चयन करने में भी मेघना गुलजार मात खा गयीं।

अभिनयः
सैम बहादुर के किरदार में विक्की कौशल कई दृश्यों में खा गए है। उन्होने सैम की गैंगली वॉक को पकड़ने का जरुर प्रयास किया है। पाकिस्तानी जनरल याह्या खांन के किरदार में मोहम्मद जीशान अय्यूब कृत्रिम रूप से दबे हुए नजर आते हैं। इस किरदार के साथ वह न्याय नहीं कर पाए। जवाहरलाल नेहरु के किरदार में नीरज काबी किसी भी  दृष्टिकोण से फिट नही बैठते। उपर से उनका अभिनय और भी निराशा जनक है। इंदिरा गांधी के किरदार में फातिमा सना शेख,सरदार पटेल के किरदार में गोविंद नामदेव जोकर ही नजर आते है। सैम की पत्नी सिल्लू के किरदार में सान्या मल्होत्रा भी निराश करती है। वह दिल्ली की पंजाबी पारसी महिला की भूमिका में बिल्कुल फिट नहीं बैठती हैं। मजेदार बात यह है कि सैम (विक्की कौशल) और सिल्लू (सान्या मल्होत्रा) एक साथ जीवन के चार दशकों से अधिक समय बिताने के बावजूद बूढ़े नही होते। किसी के बाल सफेद नजर नहीं आए। यह हास्यास्पद लगता है। सैम के बेटे व बेटी की शादी हो जाती है और उनके बच्चे भी हो जाते हैं,पर दोनों में से किसी के बाल जरा भी सफेद नही होते।

?si=UvBTojWBSOLasaPa

Latest Stories