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मूवी रिव्यू: कुछ भी कहने में असमर्थ 'गांव द विलेज नो मोर'

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By Shyam Sharma
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मूवी रिव्यू: कुछ भी कहने में असमर्थ 'गांव द विलेज नो मोर'

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आज गांव शहरों में तब्दील हो रहे हैं जो गांव को शहर बनाने पर तुले हुये हैं। इस थॅाट को लेकर निर्देशक गौतम सिंह ने फिल्म‘ गांव ‘द विलेज नो मोर’ बनाई। फिल्म में कल्पना की है कि किस प्रकार किसी गांव में जब शहर घुसने लगता है तो वहां क्या परिवर्तन होते हैं।

भारत के नार्थ के किसी हिस्से में एक ऐसा गांव हैं जो पूरी तरह दुनिया से ही नहीं बल्कि भारत से भी कटा हुआ है। वहां के गांव वाले आज की किसी भी चीज से परिचित नहीं। यहां तक कि वे करेंसी का भी इस्तेमाल नहीं करते। उसी दौरान मुंबई से एक शख्स भारत न जाने कैसे नदी में बहता हुआ बेहोश हो उस गांव में आ जाता है। गांव का प्रधान और वैद्य उसकी दवा दारू कर उसे ठीक कर देता हैं। उसके बाद भारत को पता चलता हैं कि इस गांव को तो ये तक नहीं पता कि भारत को आजाद हुये सत्तर वर्ष हो चुके हैं। वो गांव में एक बैंक खुलवाता है और गांव वालों को वहां से लोन दिलवा कर खेतीबाड़ी  से संबधित सारी चीजें मुहया करवाता है लेकिन बैक मैनेजर जनरल मैनेजर से मिलकर गांव वालों को विलासिता की चीजों का चस्का लगा कर उनकी जमीनों पर कब्जा करने का प्लान बनाता है। लेकिन समय पर गांव वाले चेत जाते हैं और वे मैनेजर का प्लान फेल कर देते हैं। उसके बाद उन्हें एहसास होता  है कि हम अभी आजाद नहीं हुये। हम पहले अंग्रेजों के गुलाम थे अब पूंजीपति पूरे देष को अपने आधीन करने पर तुले हुये हैं।

डायरेक्टर जो कहना चाहता है एक हद तक कह पाता है लेकिन बहुत ही साधारण ढंग से ,लिहाजा दर्शक उससे प्रभावित नहीं हो पाता। गांव के ऐसे सैट लगाये हैं जैसे हम धार्मिक धारावाहिको में देखते  हैं। एक दो को छोड़कर सभी कलाकार नये हैं जो अभिनय में भी नये हैं। जैसे भारत की भूमिका में शादाब कमल,सांगू की भूमिका में नेहा महाजन बहुत साधारण रहे जबकि देबेन्दू भट्टाचार्य और गोपाल के सिंह दर्शकों को अपनी तरफ आकर्षित करने में कामयाब है।

क्हने का तात्पर्य है कि फिल्म जो कहना चाहती है उसे पूरी तरह से नहीं कह पाती।

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