Guthlee Ladoo Movie Review: अत्यावष्यक सिक्षा के समान अधिकार पर अविश्वसनीय फिल्म By Shanti Swaroop Tripathi 14 Oct 2023 | एडिट 14 Oct 2023 05:21 IST in रिव्यूज New Update Follow Us शेयर रेटिंग: 2.5 स्टार भारतीय संविधान में हर नागरिक को सिक्षा का समान अध्किार दिया गया है. सिक्षा पाने का अधिकार हर धर्म जाति व हर वर्ग के लिए है. पर अफसोस इन दिनों सिक्षा पूरी तरह से बाजार के कब्जे में है. बहरहाल, फिल्मकार इशरत खान सिक्षा के अधिकार पर फिल्म 'गुठली लड्डू' लेकर आए हैं. मगर इस फिल्म को देखकर अहसास होता है, जैसे कि यह फिल्म चालिस और पचास के दशक की हो. इसी के चलते यह फिल्म पूरी तरह से अपना महत्व खो बैठती है. इसके अलावा जिस तरह से इस फिल्म की कहानी का समाधान दिखाया गया है, वह भी अविश्वसनीय लगता है. तो वही कानून का धता बताते हुए इस फिल्म में कई बार जाति सूचक शब्द 'भंगी' का उपयोग किया गया है, जो कि गैर जमानती अपराध है. 'भंगी' की बजाय 'हरिजन' शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए था.मगर इसे तो सेंसर बोर्ड ने भी पारित कर दिया है. तो क्या केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी कि सेंसर बोर्ड जातिसूचक 'भंगी' शब्द को जायज मानता है. अफसोस इस फिल्म को विष्व के तमाम इंटरनेषनल फिल्म फेस्टिवल में सराहा जा चुका है. कहानीः कहानी एक गांव की हैं,जहां चैबे जी का प्रायवेट स्कूल 'सरस्वती विद्यामंदिर है,जिसके प्रिंसिपल हरिशंकर बाजपेयी हैं. हरिशंकर की मांकी माने तो चैबे जी ने हरिशंकर को उनकी काबीलियत की बजाय उनके बाजपेयी होने के चलते स्कूल का प्रिसिंपल बनाया है. इस स्कूल में सभी बच्चे उंची जाति के हैं. जबकि नीची जाति के स्कूल के बच्चे स्कूल के अंदर कदम तक नही रख सकते. मगर हरिजन मंगरू का बेटा गुठली (धनय सेठ) अपने दोस्त लड्डू (हीत शर्मा) संग चोरी छिपे स्कूल के अंदर घुसकर खिड़की पर खड़े होकर वह सब पढ़ता रहता है जो कुछ टीचर पढ़ाते हैं. सिक्षा तो दूर समाज इन्हे छूना तक नही चाहता. इसलिए कई बार स्कूल के शिक्षक उन्हे मारकर भगाते भी हैं. यह बच्चे समाज की गंदगी साफ करने वाले परिवार से ताल्लुक रखते हैं. लड्डू को लड्डू खाने की ललक है, जबकि गुठली में पढ़ने -लिखने की एक जबरदस्त चाह. हरिजन जाति के गुठली की पढ़ने-लिखने की धुन को स्कूल के प्रिसिंपल हरिशंकर (संजय मिश्रा) देखते -समझते हैं, मगर वह भी जातिगत सामाजिक बेड़ियों और पूर्वाग्रहों के बीच खुद को असहाय पाते हैं. उन्हे चैबे के स्कूल में नौकरी जो करनी है. गुठली की इस हरकत की शिकायत उसके पिता मंगरू( सुब्रत दत्ता) और मां रानिया( कल्याणी मुले) तक पहुंचती है. पहले तो घर में उसे खूब कोसा जाता है, मगर एक दिन जब लड्डू की नाला सफाई में दर्दनाक मौत हो जाती है, तब गुठली के माता-पिता तय करते हैं कि वे अपने बेटे को गंदगी साफ करने के काम के बजाय पढ़ा-लिखा कर बड़ा आदमी बनाएंगे. अपनी मां की मौत के बाद हरिशंकरके मन में गुठली को सिक्षा देने का भाव पैदा होता है. फिर वह इस मिशन में गुठली के लिए इंस्ट्रुमेंटल साबित होते हैं. और यहीं से कहानी में न केवल एक नया मोड़ आता है. तो पूरी फिल्म की कहानी के केंद्र में हरिजन के बच्चों की सिक्षा ही है. समीक्षाः निर्देशक इशरत खान ने समान शिक्षा का वाजिब सवाल उठाया है. मगर सफाई का काम करने वालें हरिजन के साथ गांव वाले जिस तरह से पेश आते हैं,उसका सही चित्रण करने में वह विफल रहे हैं. वास्तव में उन्हे अपने देश,समाज,शहर व गांव के हालातों का सही अहसास ही नही है,वह तो कल्पना की दुनिया में जी रहे है. वर्तमान समय में जिस तरह से सिक्षा का व्यापारीकरण हुआ,उसमें शहर हो या गांव,सिक्षा के रास्ते में बच्चे की जाति नहीं पैसा आड़े आ रहा है. निर्देशक ने जिस हालात को दिखाया है,जाति को लेकर वह हालात चालिस व पचास के दशक में नजर आते थे. आज नही. हो सकता है कि किसी दूर दराज गांव में ऐसा कोई बिरला नमूना मिल जाए. इस वजह से यह फिल्म अपने मायने खो देती है. अतीत में कुछ फिल्मकार विदेशो में अपनी फिल्मों के माध्यम से देश की गरीबी को बेचा करते थे,उसी तरह इशरत खान व प्रतीक रंगवानी ने कई दशक पुराने भारत के जातिगत समीकरण को बेचते हुए सबसे बड़ा झूठ फैलाने का काम किया है,जिसे सेंसर प्रमाण पत्र देकर सेसर बोर्ड ने बढ़ावा देने का ही काम किया है. माना कि सिक्षा का अधिकार हर किसी को है. यदि कोई बच्चा पढ़ना-लिखना चाहता है, तो यह सरकार की जिम्मेदारी है कि उसके लिए पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था की जाए. मगर फिल्मकार सिक्षा के बाजारीकरण व इस मामले में कहीं भी सरकार को कटघरे में खड़ा नही कर पाए हैं. फिल्म का क्लायमेक्स भी घटिया है. फिल्म निर्देशक जातिगत भेदभाव को भी सार्थक रूप से चित्रित करने में मार खा गए हैं. फिल्म के ज्यादातर द्रश्य मेलोड्रामैटिक है. फिल्म के कई दृश्य दिल को छू जाते हैं,जैसे उच्च जाति की महिला को मंगरू( सुब्रत दत्ता) की छुई हुई साइकिल पर हाथ लगाने से सख्त परहेज है, मगर उसी के दिए हुए पैसे लेने से कोई गुरेज नहीं. अभिनयः गुठली के किरदार में बाल कलाकार धनय सेठ का अभिनय शानदार है. वह सभी का दिल जीत लेता है. पढ़ाई को लेकर उसके अंदर की बाल सुलभ जिज्ञासा उसके चेहरे पर साफ तौर पर नजर आती है. लड्डू के किरदार में हीत शर्मा भी कमजोर नही है. गुठली और लड्डू की दोस्ती वाले सीन जज्बाती कर देते हैं. प्रिंसिपल हरिशंकर बाजपेयी के किरदार में संजय मिश्रा निराश करते हैं. वह बुरी तरह से चुक गए हैं. गुठली के माता-पिता के रूप में सुब्रत दत्ता और कल्याणी मुले अपने दमदार अभिनय से प्रभाव छोड़ जाती है. लड्डू के पिता के रूप में कंचन पागरे, स्कूल के मालिक व उंची जाति के नाम पर रोटी सेंकने वाले नेता के किरदार में आरिफ शाहडोली और हरिशंकर की माता के किरदार में सुनीता शिरोले का अभिनय ठीक ठाक है. #guthlee ladoo #Guthlee Ladoo movie #Guthlee Ladoo film #sanjay mishra and dhanay seth film guthlee ladoo #film guthlee ladoo promotion in delhi #guthlee ladoo movie review #guthlee ladoo review हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article