रेटिंग**
छह साल बाद पर्दे का मुंह देख पाने में निर्देशक चन्द्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म ‘ मौहल्ला अस्सी’ आखिर सफल हो ही गई। साहित्यकार काशीनाथ के अपन्यास पर आधारित काशी का अस्सी ये फिल्म समय की मार से थोड़ी जर्जर तो हुई लेकिन अपनी बात कहने में सफल है।
फिल्म राजनीति व बाजारीकरण के प्रभावों से मूल्यों, समाज और परंपराओं के बीच पैदा हुये द्वंद की तरफ इशारा करती है। धर्मनाथ पांडे यानि सनी देओल सिद्धांतवादी पुरोहित तथा संस्कृत के अध्यापक हैं जो काशी में विदेशियों की घुसपैठ के सख्त खिलाफ हैं लिहाजा उनसे भयभीत हो ब्राह्माणों के मौहल्लें में कोई विदेशियों को किराये पर घर तक नहीं देता। उनके लिये गंगा मैया है जिसे वे विदेशियों का स्वीमिंगपुल नहीं बनने देना चाहते। लिहाजा वे गाइढ गिन्नी यानि रवि किशन से भी चिढ़ते हैं। लेकिन एक वक्त ऐसा भी आता है जब स्वंय धर्मनाथ पांडे को अपने वसूल और मूल्य खोखले लगने लगते हैं लिहाजा वे खुद समझौता करने के लिये तैयार हो जाते हैं। इसके अलावा फिल्म का एक और किरदार है पप्पू की चाय की दुकान। उस दुकान के बारे में कहा जाता है कि या तो देश की समस्याओं पर चर्चा संसद में सुनी जा सकती हैं या फिर पप्पू की दुकान पर।
प्रसिद्ध साहित्यकार काशी नाथ के उपन्यास काशी का अस्सी पर आधारित ऐसी फिल्म हैं जो बनारस की पृष्ठभूमि पर रख कर की है। विवादों में घिरी ये फिल्म सेंसर के चुंगल से करीब छह साल बाद आजाद हो पाई। इसलिये वक्त की मार फिल्म पर साफ पड़ती दिखाई देती है मतलब कहानी के बीच-बीच में दरार नजर आने लगती है। जैसे 1988 और 1991 के बीच बाबरी मस्जिद के मामले को बिल्डअप करने के बाद सीधे 1998 में पहुंचना खटकता है। पटकथा थोड़ी ढिली हैं और संगीत साधारण।
सनी देओल ने धर्मनाथ पांडे की भूमिका निभाने में खासी मेहनत की है उन्होंने अपनी इमेज से सर्वथा अलग भूमिका निभाई है हालांकि उनके द्धारा संस्कृत बोलने में दिक्कत साफ दिखाई देती है। अनीता कंवर ने अपनी भूमिका को कुषलता से जीया है वहीं रवि किशन गाइड के रोल में प्रभावित करते हैं। बाकी सौरभ षुक्ला और सीमा आजमी का काम भी सराहनीय रहा।