रेटिंग***
आशुतोष गवारीकर एक ऐसे निर्देशक हैं जिन्हें एतिहासिक विषयों पर फिल्में बनाने में महारत हासिल है । उनकी ताजा तरीन फिल्म ‘ पानीपत’ में उन्होंने सतरह सो इस्वी में पानीपत में हुये मराठों और मुगलों के बीच तीसरे युद्ध जैसे बेहद जटिल विषय को फिल्माया है ।
कहानी
सदाशिव राव भाऊ पेशवा (अर्जुन कपूर) अपने चचेरे भाई नाना साहेब भाऊ पेशवा (मोहनीश बहल) की सेना का जांबाज पदाधिकारी है। वह अपना पहला युद्ध जीत कर लौटता हैं तो नाना साहेब उसका भव्य स्वागत करते हैं। लेकिन उसका इतना सम्मान नाना साहेब की पत्नि गोपिका बाई (पद्मनी कोल्हापुरे) को अखरने लगता हैं क्योंकि उसे लगता हैं कि कहीं कल सदाशिव राव उसके बेटे शहजाद विश्वास राव की जगह राजगद्दी न हथिया ले। लिहाजा वो नाना साहेब से कह कर सदाशिव का पद बदलवा देती है। सदाशिव जैसे वीर पेशवा से राज वैद्य की बेटी पार्वती बाई (कृति सैनन) प्यार करती है वो भी वैद्यिक विद्या में पारंगत है। दोनों जल्द ही विवाह बंधन में बंध जाते हैं। दिल्ली की गद्दी पर नजीब उद्दौला (मंत्रा) की नजर है। लिहाजा जब नाना साहेब का एक सेनापति उससे टेक्स वसूल करने जाता हैं तो वो उसकी हत्या कर एक तरह से मराठा सामराज्य को चुनौती देने जैसा संदेश देता है। उधर नजीब अपनी सहायता के लिये अफगानिस्तान के बादशाह अहमद शाह अब्दाली (सजंय दत्त) को हिन्दुस्तान की हुकुमत का लालच दे मदद मांगता है। नाना साहेब दिल्ली को बचाने का दायित्व सदाशिव राव को सौंपते हैं। इस लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली के साथ मराठों के साथ विश्वासघात कर सिजाउद्दौला खड़ा हो जाता है। पानीपत के मैदान में मराठों और मुगलों के बीच भयानक युद्ध छिड़ जाता है। लेकिन अफसोस कुछ हिन्दुस्तानी राजाओं द्धारा किये गये विश्वासघात के कारण वीरता औश्र जांबाजी से अपनी सेना के साथ लड़ता हुआ सदाशिव राव वीरगति को प्राप्त होता है। अहमद शाह अब्दाली ये युद्ध जीत तो जाता है लेकिन वो सदाशिव राव की अदभ्य वीरता का कायल हो काबुल लौट जाता है। इसके बाद उसने कभी हिन्दुस्तान का रूख नहीं किया। हालांकि बाद में नाना साहेब के एक अन्य भाई ने दोबारा दिल्ली पर कब्जा कर,मराठा राज कायम कर दिखाया था।
अवलोकन
इससे पहले इस विषय को किसी ने भी चुनने का साहस नहीं किया था, दरअसल यहां युद्ध में मराठों की हार हुई थी। बावूजद इसके आशुतोष ने ये विषय चुना और इसे बेहतरीन अभिव्यक्ति दी और विषय में प्रेम, बलिदान, विश्वासघात, शौर्य तथा जाबांजी जैसे रंग भरे। उस दौरान विश्वासघात की राजनीती आम बात थी। निर्देशक ने बताया कि उस दौरान राजाओं के निजी स्वार्थो के तहत देश की सुरक्षा दांव पर लगी थी। उधर पेशवाओं के अंदरूपी राजनीती का भी दिल्ली पर सीधा असर पड़ा लिहाजा दिन ब दिन उसकी स्थिति दयनीय हो चली थी। इन सारी बातों को दिखाते हुये आशु उस दौर के वीरों की जाबांजी जिन्होंने अपने देश के लिये अपनी जान तक न्यौछावर करने में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हुये दिखाने में पूरी तरह सफल रहे। फिल्म करीब तीन घंटे लंबी है, जो बीच बीच में ट्रिम की जा सकती थी। यही नहीं संपादन की धार भी उतनी पैनी नहीं दिखाई दी जितनी होनी चाहिये थी। फिल्म की मुख्य कास्टिंग भी शक के घेरे में दिखाई दी। हां आशुतोष युद्ध के दृश्य फिल्मानें के पहले से महारथी हैं लिहाजा यहां भी युद्ध के सीन रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं । नितिन देसाई के भव्य सैट देखने लायक हैं तथा बेहतरीन कास्ट्यूम के लिये नीता लूला शाबाषी की हकदार हैं। इसके अलावा सी के मुरलीधरन की फोटोग्राफी की दिल खोलकर तारीफ करनी होगी। संगीत की बात की जाये तो सपना है सच है अच्छा बना पड़ा है ।
अभिनय
अर्जुन कपूर के कॅरियर के लिये सदाशिव राव का किरदार एक सुनहरा मौका था जिसे वो पूरी तरह से नहीं भुना पाया। भूमिका मे न तो उसने लहजा चेंज किया और नहीं बॉडी लैंग्वेज का सहारा लिया। दूसरे भाग में वो थोड़ा खुला। कृति सेनन एक हद तक पार्वती की भूमिका को निभा ले गई। नवाब शाह ने मुख्य तोपची की भूमिका को यादगार बनाने में कसर नहीं छोड़ी। संजय दत्त अहमद शाह अब्दाली की भूमिका में जबरदस्त खुंखार और र्दुदांत लगे हैं लेकिन अंत तक सदाशिव और उनका आमना सामना नहीं दिखाया गया जो खलता है। महज एक सीन में जीनत अमान दिखाई दी। बाकी सहयोगी भूमिकाओं में मोहनीश बहल, पद्मनी कोल्हापुरे, कुनाल कपूर तथा सुहासनी मूले आदि कलाकारों को सहयोग सराहनीय रहा।
पानीपत क्यों देखें
एतिहासिक फिल्में देखने के शौकीन दर्शक ये फिल्म देख सकते हैं।
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