मूवी रिव्यू: जासूसों की दुनिया में ले जाती है ‘रोमियो अकबर वॉल्टर’ By Shyam Sharma 04 Apr 2019 | एडिट 04 Apr 2019 22:00 IST in रिव्यूज New Update Follow Us शेयर रेटिंग : 3 स्टार स्पाई थ्रिलर्स को पसंद करने वालों दर्शकों की बड़ी संख्या है। भारत में इस तरह की फ़िल्में पहले कम बनती थी लेकिन इधर ट्रेंड तेज़ी से बढ़ा हैं। ‘बेबी’ जैसी हिट फ़िल्म के बाद अब इसी राह की एक और फिल्म है ‘रोमियो अकबर वॉल्टर’ यानी ‘रॉ’। कहानी रॉ जासूसों की दुनिया है। पाकिस्तान से हुए युद्ध से हुए थोड़े समय पहले की यह कहानी है। रोमियो उर्फ़ रहमतुल्लाह अली बैंक में काम करता है। खाली समय में नाटक वगैरह कर लेता है. किसी वजह से इंडियन इंटेलिजेंस एजेंसी रॉ की उस पर नज़र पड़ती है। रॉ चीफ श्रीकांत राय उसे एक ख़ुफ़िया मिशन के लिए फिट पाते हैं और पाकिस्तान में अपना जासूस बनाकर भेजते हैं। अकबर मलिक के नाम से फंक्शन करते रोमियो का मिशन है इसाक अफरीदी नाम के एक बेहद इम्पोर्टेन्ट पाकिस्तानी के इर्द-गिर्द रहना और काम की ख़बरें भारत पहुंचाना। इसाक खुद पाकिस्तानी आर्मी चीफ का खास है। अपने मिशन के दौरान रोमियो को पाकिस्तान द्वारा प्लान किए जा रहे एक अटैक की खबर लगती है। क्या वो अटैक रोक पाता है? या पकड़ा जाता है? अगर हां तो फिर उसका अंजाम क्या होता है? इन सब सवालों के जवाब पाने के लिए फिल्म देखनी होगी। माइनस व प्लस प्वाइंट रॉ की सबसे बड़ी कमजोरी है उसका स्क्रीनप्ले! जब आप जासूसी जैसी विषय पर फिल्म बनाते हैं तो आपको आपके किरदार से कहीं ज्यादा दिमाग लगाना पड़ेगा ताकि नायक विश्वसनीय लगे। दुश्मनों की पार्टी में हीरोइन से संवाद करना, बीच सड़क पर टैक्सी में बैठ कर रोमांस करना आदि एक रॉ एजेंट के लिए कतई मूर्खतापूर्ण काम है। इससे उसकी विश्वसनीयता कम होती है! रॉ शुरुआत और एंड में अच्छी फिल्म है। बीच में ढेर भटक जाती है। कई बार तो आप दुविधा में फंस जाते हैं कि चल क्या रहा है। कुछ चीज़ें तो हद अतार्किक लगती हैं जैसे जासूसी की बातें पब्लिक स्पेस में होना, दुश्मन देश के जासूस को उसका कवर ब्लो होने के बाद भी पाकिस्तानी आर्मी द्वारा ज़िम्मेदारी का काम सौंपना आदि। काफी सारे सीन्स प्रेडिक्टेबल हैं और कोई थ्रिल पैदा नहीं करते। इन जगहों पर मार खाने वाली फिल्म अंत आते-आते थोड़ी संभल जाती है। बैकग्राउंड स्कोर काफी अच्छा है। फिल्म की प्रोडक्शन वैल्यू कमाल की है! जिस तरह के लोकेशंस चुने गए हैं वो फिल्म को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं। अभिनय इसमें कोई दोराय नहीं कि जॉन अब्राहम ने फिल्म को संभाल रखा है। वो एक बैंकर कम जासूस का कन्फ्यूजन ठीक से कन्वे कर पाए हैं। जैकी किरदार को अपने एक्टिंग टैलेंट के दम पर निभा ले जाते हैं। सिकंदर खेर अभिनय से चौंकाते हैं। उन्होंने अपने किरदार का एक्सेंट बढ़िया ढंग से पकड़ा है। मौनी रॉय का पूरा ट्रैक ही गैरज़रूरी लगता है। हालांकि काम उनका ठीक-ठाक है। डायरेक्शन जब फिल्म टुकड़ों में अच्छी है तो रॉबी ग्रेवाल का डायरेक्शन भी वैसा ही है। टुकड़ों में अच्छी लेकिन कई सारे मसाले डालने के चक्कर में डिश का एक मेजर पोर्शन ख़राब हो गया। हालांकि रॉबी ग्रेवाल ने क्रिएटिव आज़ादी ली है लेकिन यह सब इतनी तेज़ गति से होता है कि आप उनको संदेह का लाभ देने को तैयार हो जाते हैं। अगर रॉबी ग्रेवाल अपने स्क्रीनप्ले पर और काम करते तो फिल्म का स्वरूप कुछ अलग होता। कुल मिलाकर ये उन फिल्मों में से है जो इतनी अच्छी नहीं होती कि किसी को रेकमेंड की जाए, लेकिन इतनी बुरी भी नहीं होती। इसे एवरेज फिल्म कह सकते हैं। मन करे देखिए, वरना छोड़ दीजिए। #bollywood #John Abraham #movie review #Romeo Akbar Walter हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article