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मूवी रिव्यू: सामाजिक और धार्मिकता के ठेकेदोरों पर निशाना लगाती 'नक्काश'

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By Shyam Sharma
मूवी रिव्यू: सामाजिक और धार्मिकता के ठेकेदोरों पर निशाना लगाती 'नक्काश'
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रेटिंग***

अभी तक ईश्वर अल्लाह और हिन्दू मुस्लिम के आपसी सौहार्द पर न जाने कितनी फिल्में बन चुकी। इसी श्रंखला में लेखक निर्देशक जैगम इमाम की फिल्म ‘नक्काश’ का नाम भी शामिल हो चुका है। फिल्म में हिन्दू मुस्लिम का आपसी मेल मिलाप दिखाने के अलावा दोनों धर्मा के कटटरपंथी लोगों को भी स्पष्ट तरीके से दिखाया गया है।

कहानी

बनारस में दोनों धर्मो के लोग मिलजुल कर रहते हैं,  बावजूद इसके वहां भी दोनों समुदायों के कुछ लोग हैं जो दोनों धर्मो के बीच भेदभाव रखते है।  अल्लारखा सिद्धिकी यानि इनामुलहक एक ऐसा नक्काश है, जिसे नक्काशी में महारत हासिल है। उसकी बीवी नहीं है लिहाजा अब वो अपने दस वर्षीय बेटे  के साथ रहता है। दरअसल उसके पूर्वज भी यही काम करते आये है। बनारस के एक बड़े मंदिर के मंहत वेदांत जी यानि कुमुद मिश्रा अल्लारखा की कारीगरी पर मुग्ध हैं लिहाजा मंदिर के गर्भ की नक्काशी के लिये वे अल्लारखा को बुलाते है। यहां अल्लारखा जब भी मंदिर में काम करने जाता है तो पहले बाकायदा माथे पर तिलक वगैरह लगा हिन्दू वेश धारण कर लेता है। मंदिर में काम करने पर जंहा हिन्दूओं में इंसपेक्टर राजेश शर्मा उस पर खुंदक खाता है वहीं वेदांत जी का बेटा मुन्ना यानि पवन तिवारी को भी अल्लारखा का मंदिर में काम करना अखरता है, उसे किसी मुसलमान का मंदिर मे आना अच्छा नहीं लगता  दूसरी तरफ कुछ मुसलमान भी अल्लारखा के मंदिर में नक्काशी करने को लेकर क्षुब्द रहते हैं इसीलिये मोलवी उसके बेटे को मदरसे में लेने से मना कर देता है। बावजूद इसके अल्लारखा इन सब की परवाह न करते हुये अपने काम में मस्त रहता है। अल्लारखा का एक जिगरी दोस्त समद यानि शारिब हाशमी है जो ई रिक्शा चलाता है। वो अल्लारखा के दुखसुख का साथी है।  उसका एक ही सपना है कि वो अपने अब्बा को किसी तरह हज करवा दे, लेकिन उसके पास साधन नहीं है। इसके बाद कुछ घटनायें ऐसे मोड़ लेती हैं जिनकी बदौलत दोनों दोस्त आमने सामने खड़े हो जाते है। उसके बाद क्या होता है ये फिल्म देखने के बाद पता चलेगा।

डायरेक्शन

फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है वो संदेश, कि जब भगवान ने इंसान के बीच फर्क नहीं रखा तो इंसान क्यों अल्लाह और ईश्वर के नाम पर लोगों बांटने का काम करता है। फिल्म में जब अल्लारखा का बेटा उससे पूछता है कि अल्लाह कौन हैं तो उसे जवाब मिलता है कि अल्लाह भगवान के भाई हैं। अल्लारखा को अपने रवैये पर कभी पुलिस का तो कभी मुन्ना जैसे लोगों के कोप का शिकार भी होना पड़ता है, बावजूद उसकी सोच में कोई फर्क नहीं आ पाता। दूसरी तरफ उसका दोस्त समद अपने पिता को हज करवाने के लिये अपने दोस्त तक का इस्तेमाल करने से नहीं चूकता। फिल्म का पहला भाग थोड़ा धीमा है लेकिन दूसरे भाग में फिल्म भारी भरकम हो जाती है। पटकथा और संवाद तथा बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म को और मजबूत बनाते दिखाई देते हैं। फिल्म का क्लाईमेक्स एक हद तक वीक रहा। क्योंकि निर्देशक अगर थोड़े धैर्य के साथ सोचता तो क्लाइमेक्स और ज्यादा बेहतरीन हो सकता था।

अभिनय

इसे इत्तेफाक कहा जा सकता हैं कि पहली फिल्म फिल्मीस्तान में जंहा शारिब हाशमी नायक था और इनामुलहक कॅरेक्टर आर्टिस्ट था, वहीं अब मौजूदा फिल्म में इनामुलहक नायक है और शारिब चरित्र अभिनेता। इनामुल अपनी भूमिका में कुछ इस प्रकार घुसा दिखाई दिया कि कई जगह वो ओवर एक्टिंग कर गया, बावजूद इसके इसमें कोई कोई दो राय नहीं कि अल्लारखा किरदार को उसने बहुत ही प्रभावी ढंग से जीया। इसी प्रकार शारिब हाशमी ने अपनी भूमिका के अलग अलग शेड्स बहुत ही संजीदगी और नैचुरल ढंग से निभाकर दिखाते हुये अपने आपको एक समर्थ अभिनेता के तौर पर साबित किया। इनामुल के बेटे की भूमिका में हरमिंदर सिंह ने बहुत ही मासूम अभिनय किया है। छोटी भूमिकाओं में मंदिर के पुजारी वेदांत को कुमुद मिश्रा ने ओजस्वी ढंग से जी कर दिखाया। उनके नेता बेटे पवन तिवारी ने भी अपनी भूमिका अच्छे ढंग से निभाई। एक सीन में अनिल रस्तोगी भी अपनी झलक दिखाने में कामयाब रहे।

क्यों देखें

सामाजिक और धार्मिक दोनों के ठेकदारों पर निशाना लगाती ये फिल्म एक बार जरूर देखी जा सकती है।

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