मूवी रिव्यू: सोचने पर मजबूर करती है 'नो फादर्स इन कश्मीर' By Shyam Sharma 05 Apr 2019 | एडिट 05 Apr 2019 22:00 IST in रिव्यूज New Update Follow Us शेयर रेटिंग 3 स्टार यह फ़िल्म 2017-18 की तीन बेहतरीन फ़िल्मों की याद दिलाती है, नॉर्वेजियन-पाकिस्तानी निर्देशक इरम हक़ की ‘वॉट विल पीपल से’ जर्मन निर्देशक टोबायस वाइमैन की ‘माउंटेन मिरेकल-एन अनएक्सपेक्टेड फ़्रेंडशिप’ और स्पैनिश फ़िल्म ‘टू लेट टू डाइ यंग.’ कश्मीर समस्या की बात करने की तमाम कोशिश के बावजूद फ़िल्म 'नो फादर्स इन कश्मीर' इन तीनों फ़िल्मों का ऐसा कॉकटेल बन जाती है जिसे पीने वाला तय नहीं कर पाता कि किस स्वाद का मज़ा लिया जाए। लेखक, निर्देशक, प्रोड्यूसर और टॉर्चर के बाद पुरुषत्व खो चुके मौक़ापरस्त जिहादी समेत चार भूमिका निभाने वाले अश्विन कुमार का नाम आपको पहले ही उम्मीद दे चुका होता है कि फ़िल्म में आपको फ़िल्मी नहीं, असली कश्मीर देखने को मिलेगा। कश्मीर पर ‘इंशाअल्लाह कश्मीर’ और ‘इंशाअल्लाह फ़ुटबॉल’ नाम से बेहतरीन डॉक्युमेंटरीज़ बना चुके अश्विन इस मामले में निराश नहीं करते। उन्होंने कश्मीर को ज़मीन से समझा है, और फ़िल्म इस बात की बानगी है। कहानी नो फादर्स इन कश्मीर एक ब्रिटिश-कश्मीरी लड़की 'नूर मीर' (जारा वेब) की कहानी है। फिल्म में नूर अपनी मां और सौतेले पिता के साथ कश्मीर पहुंचती है। यहां वो दादा (कुलभूषण खरबंदा) और दादी (सोनी राजदान) के पास आती है। नूर को बताया गया था कि उसके पापा कई साल पहले घर छोड़कर चले गए थे लेकिन कश्मीर पहुंचकर उसे पता चलता है कि पिता को कई साल पहले भारतीय सेना ने उठा लिया था और फिर वो कभी घर नहीं लौटे। इसके बाद वो अपने पापा को ढूंढ़ने के लिए निकल पड़ती है। यहां नूर की मुलाकात माजिद (शिवम रैना) से होती है। माजिद के पिता भी गायब हैं। माजिद और नूर के पापा अच्छे दोस्त थे। नूर और माजिद की तलाश उन्हें भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर ले जाती है. वहां सेना के जवान उन्हें आतंकवादी समझ कर पकड़ लेते हैं। हालांकि, नूर को ब्रिटिश नागरिकता की वजह से जाने दिया जाता है. लेकिन माजिद को हिरासत में रखा जाता है। इसी के साथ फिल्म में तमाम उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। क्या नूर हामिद को निर्दोष साबित करके वहां से निकाल पाएगी? या नूर अपने पापा के बारे में कुछ जान पाएगी? ये जानने के लिए फिल्म देखनी होगी। निर्देशन निर्देशक उन हज़ारों परिवारों का दर्द दिखाने की कोशिश करता है जिनके बेटों, पतियों और पिताओं का आज़ तक पता नहीं चल सका है कि वे कहां हैं। ज़िंदा हैं या नहीं। यहां उन सवालों पर भी रौशनी डालने की कोशिश की गई है, जो घाटी में लगभग सबके सवाल होने पर भी पूछे नहीं, सिर्फ समझे जाते हैं। पैट्रो-डॉलर्स पर खुलते मदरसों, मस्जिदों की बात उठाई जाती है और उन लोगों की भी जो एक तरफ़ हिंदुस्तान से कश्मीर की आज़ादी मांगते हैं और दूसरी तरफ़ हिंदुस्तानी सेना से पैसा लेकर मुखबिरी करते हैं. निर्देशक सेना की मजबूरी दिखाने की कोशिश भी करता है कि ‘यहां हर आदमी दुश्मन है और देश का नागरिक भी। हम किसे बचाएं और किससे लड़ें?’ अभिनय अभिनय और किरदारों की बात की जाए तो नूर के किरदार में ज़ारा वैब काफी प्रभावित करती हैं। पहले हॉफ में मुश्किल से आगे बढ़ती फ़िल्म में उनका अभिनय हमें फ़िल्म से बांधे रखता है। माजिद की भूमिका निभाते शिवम भी संभावनाओं से भरे हुए हैं। जितनी देर नूर और माजिद पर्दे पर साथ रहते हैं, हम उन्हें और देखना चाहते हैं। वहीं फ़िल्म कुलभूषण खरबंदा, सोनी राज़दान जैसे मंझे हुए अभिनेताओं की पर्दे पर मौजूदगी से न्याय नहीं कर पाती। माजिद की मां की भूमिका निभाने वाली नताशा मागो का किरदार भी वैसा असर पैदा नहीं करता जैसा कर सकता था. यहां निर्देशन और स्क्रिप्ट का लचर होना खलता है। ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ की सिनेमेटोग्राफ़ी औसत है। फ़िल्म में वूंटकदल के नीचे से नाव ले जाने का दृश्य देखते हुए आप पिछले हफ़्ते आई नोटबुक की ख़ूबसूरत सिनेमेटोग्राफ़ी को याद किए बिना नहीं रह पाते। कुल मिलाकर कहा जाए तो घाटी के हालात बयान करती इस फ़िल्म की हालत घाटी जैसी ही हो जाती है जहां सबकुछ इतना गड्ड-मड्ड हो चुका है कि आखिर आप पहुंचना कहां चाहते हैं, समझना मुश्किल नज़र आने लगता है। फिर भी यह फ़िल्म आम भारतीय जनता को कश्मीर के हालात का दूसरा पहलू दिखाती है जो आमतौर पर मीडिया में नहीं दिखता। अपनी कमियों के बावजूद फ़िल्म सोचने पर मजबूर करती है। हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article