बेशक हम अपने आपको सभ्य समाज का हिस्सा मानते हैं जंहा औरत की आजादी की बात की जाती है लेकिन आज भी कितने ही ऐसे प्रदेश हैं जहां औरत का सिर्फ बिस्तर के तौर पर ही इस्तेमाल किया जाता है। लेखक निर्देशक देदिपिया जोशी की फिल्म ‘सांकल’ राजस्थान में बसे एक ऐसे मुस्लिम गांव की कहानी है जंहा आज भी औरत का इस्तेमाल सिर्फ अय्याशी के लिये किया जाता है।
कहानी
राजस्थान का एक ऐसा मुस्लिम गांव जंहा छोटी उम्र के लड़के की शादी व्यस्क लड़की से कर दी जाती है। उस्मानिया यानि हरीश कुमार, जिसकी पत्नि मर चुकी है। उसने भी अपने इकलौते छोटी उम्र के बेटे केसर की शादी एक व्यस्क लड़की अबीरा यानि तनिमा भट्टाचार्य से कर दी। एक दिन उस्मानिया ने अपनी बहू के साथ शारीरिक संबन्ध बना लिये, इसके बाद वो उसके लिये उसकी अय्याशी का सामान बन गई। किशोर अवस्था में पहुंचा केसर चेतन शर्मा सब कुछ समझ रहा था लेकिन वो अपने पिता के सामने बेबस था लेकिन एक दिन जब उससे बर्दाश्त नहीं हुआ तो उसने अपने पिता की हत्या कर दी और फरार हो गया। केसर को आश्रय मिलता है मिलिंद गुणाजी के पास, जो एक बड़ा फोटोग्राफर है।
एक दिन मिलिंद के साथ केसर अपने आपको अपने गांव में पाता है तो उसे पता चलता है कि अबीरा की गांव के सरपंच के सहयोग से एक अन्य परिवार के छोटे बच्चे के साथ शादी करवा दी जाती है। जहां अब अबीरा बच्चे के पिता और उसके भाईयों के लिये अय्याशी का सामान बनी हुई है। बाद में मिलिंद गुणाजी केसर की मदद करते हैं। केसर को अबीरा तो नहीं मिल पाती क्योंकि वो आत्महत्या कर लेती है, लेकिन वो अपनी बेटी की शादी उसके हम उम्र लड़के से कर बरसों पुरानी गांव की परंपरा को तोड़ने में सफल होता है।
निर्देशन
बेशक आज भी हमारे देश में कितने ही ऐसे राज्य हैं और उन्हें कितने ही ऐसे गांव हैं जहां परपंरा के नाम पर औरतों का जम कर शोषण होता है। सांकल भी एक ऐसे ही गांव की कहानी है जिसमें औरतें बरसों से घरों की बंद सांकल के पीछे जीवन बिताने पर मजबूर हैं। बहू ससुर के रिश्ते को तार तार करती कहानी सोचने पर मजबूर करती है कि हम आज भी बरसों पुरानी परंपराओं का शिकार बनते हुये एक ऐसी सांकल में बंधे हुये हैं जिन्हें आज भी तोड़ने की कोशिश नहीं की जाती , बेशक इस बीच इक्का दुक्का ऐसा शख्स सामने आता है जो इन परंपराओं के विरूद्ध खड़ा हो इन्हें बदलने की कोशिश करता दिखाई देता है लेकिन इनसे पूरी तरह निजात कब तक पाई जा सकेगी।
निर्देशक ने एक हद तक प्रभावशाली तरीके से कहानी को फिल्म का रूप देते हुये कहानी से दर्शकों को रूबरू करवाया है। गांव का माहौल वहां औरतों की स्थिति और फिर पीड़ित केसर की मदद कर उसे बरसों से सांकल में जकड़ी हुई परंपरा से आजाद करवाने में मिलिंद गुणाजी द्धारा मदद करना, बताता है कि कहीं न कहीं कुछ लोग कुरीतीयों से जकड़े इन लोगों में से किसी की मदद के लिये आगे आते रहते हैं। राजस्थान की लोकेशन और माहौल में रीयलिटी झलकती है। फिल्म का संगीत कहानी में ही गुंथा हुआ है।
अभिनय
कलाकारों में केसर के तीन पार्ट हैं जिसे चेतन शर्मा, जगत सिंह तथा समर्थ शांडिल्य ने बढ़िया तरह से निभाया है। पिता की भूमिका में हरीश कुमार और फोटोग्राफार के रोल में मिलिंद गुणा जी उल्लेखनीय रहे, लेकिन अबीरा की भूमिका को बढ़िया अभिव्यक्ति देने के लिये तनिमा भट्टाचार्य की तारीफ करनी होगी।
क्यों देखें
औरत का शोषण दर्शाने वाली इस फिल्म में बरसों पुरानी परंपराओं को तोड़ने की जद्दोजहद, दर्शकों को निराश नहीं करेगी।