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मूवी रिव्यू:  दलित होने का दंश 'तरपण'

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By Shyam Sharma
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मूवी रिव्यू:  दलित होने का दंश 'तरपण'

रेटिंग***

इस सप्ताह रिलीज फिल्मों में उल्लेखनीय रही नीलम आर सिंह की फिल्म‘ तरपण’। फिल्म शिद्धत से एहसास करवाती है कि बेशक हम कितने ही आधुनिक और जात पात को नजरअंदाज करने वाले क्यों न बने गये हों, लेकिन आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में सैकड़ों गरीब गुरबा, नेताओं द्धारा इस्तेमल किये जाने तथा अपने दलित होने को दंश झेल रहे हैं।

कहानी

यूपी के सलालतपुर नामक एक गांव में बड़जात यानि ऊंची जात और दलित अलग अलग हिस्सों में बटें हुये हैं जिन्हें वे टोला कहते हैं। बेशक आज दलित थोड़े सम्मान से जीने लगे हैं बावजूद इसके बड़जात की दहशत उन में से गई नहीं है। लिहाजा इस बात का फायदा दलित और बड़ी जात के लीडर उनका इस्तेमाल कर फायदा उठाते रहते हैं। एक दलित प्यारे की बड़ी बेटी एक बड़ी जात चाले की हवस का शिकार बन चुकी है जिसे मौत के बाद ही छुटकारा मिल पाया। अब जब प्यारे की दूसरी बेटी रजपतिया ने एक बड़ी जात वाले चन्दर के खेत से गन्ना तोड़ने की कोशिश की तो चन्दर रजपतिया की आबरू तक लेने पर उतारू हो गया, लेकिन आस पास कुछ दलित ओरतों की बदौलत ऐसा नहीं हो सका। अब गरीब दलित प्यारे, एक दलित नेता भाई जी के उकसावे पर चन्दर और और उसके परिवार के खिलाफ, पहले तो थाने में रजपतिया का चंदर द्धारा बलात्कार की रिपोर्ट लिखवाता है, जब वहां बात नहीं बन पाती तो  भाई जी क्षेत्रीय विधायक द्धारा एसपी से शिकायत करने के बाद चन्दर के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने में सफल हो जाता है। चन्दर को अरेस्ट कर लिया जाता है। आगे एक दो पेशी पर उसकी जमानत खारीज हो जाने की खुशी में भाई जी के उकसावे में आकर प्यारे बाकायदा दस हजार कर्ज लेकर गांव में नोटंकी बुलवाता है। यहां प्यारे की बीवी बार बार उसे रोकने की कोषिष करते हुये समझाने की कोशिश करती रहती है कि इन नेताओं के चक्कर में आकर एक तो हमने झूटे बलात्कार का केस कर पंगा ले लिया है, अब आगे कोर्ट कचहरी के चक्कर में आकर हम बरबाद हो जायेगें। जमानत पर बाहर आने के बाद चन्दर, भाई जी को तलाश कर उसे गोली मार देना चाहता है, लेकिन उसे प्यारे का लड़का न सिर्फ बचा लेता है बल्कि भाई जी के कहने पर बेहोश चन्दर की नाक तक काट लेता है। इसके बाद प्यारे वो दोष अपने पर लेते हुये ये कहते हुये जेल चला जाता हैं कि वो दलित होने को दंश झेलते हुये जेल नहीं बल्कि बड़ी बेटी जो बलात्कार का शिकार बनी थी का तरपण करने जा रहा था।

डायरेक्शन

जहां आज दलित, आरक्षण तथा कुछ नये कानूनों के सदके सर उठाकर चलने लगे हैं लेकिन वास्तव में ये अनुपात अभी भी बहुत कम है। निर्देशिका ने फिल्म के द्धारा यही बताने की सफल कोशिश की है कि आज भी कितने ही गांव खेड़ों में स्वर्ण, दलितों का लगातार शोषण करने से बाज नहीं आ रहे है। एक गांव का उदाहरण देते हुये जंहा एक स्वर्ण द्धारा एक दलित लड़की का शोषण करने की कोशिश करते हुये दिखाया है, वहीं दलित भी अपनी उस बेईज्जती को अब चुप चाप न सहते हुये स्वर्ण के न सिर्फ खिलाफ खड़ा हो जाता है बल्कि उसे झूठा ओराप लगाकर जेल तक भेजने में कामयाब हो जाता है। फिल्म में बताने की कोशिश की गई है बेशक दलितों में सिर उठाकर जीने की भावना जाग्रत हुई हैं लेकिन उसका नाजायज फायदा उठाने से दोनों पक्षों के नेता बाज नहीं आते हुये उन्हें पूरी तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। फिल्म की कथा पटकथा तथा लोकेशन जंहा आकर्शित करने में पूरी तरह सफल हैं वहीं कहानी को मजबूती देनें में संगीत का काफी योगदान है। फिल्म की कास्टिंग और कलाकरों का अभिनय फिल्म को अलग स्थान लिवाने में एक हद तक सफल साबित होता है ।

अभिनय

प्यारे की भूमिका में नंदकिशोर पंत,रजपतिया के रोल में नीलम तथा उसकी मां की भूमिका में पूनम आलोक इंगले ने सशक्त अभिनय किया है वहीं नेता भाई जी संजय कुमार बने बेहतरीन काम कर गये। चंदर के पिता बने अरूण चौहान और उनकी दबंग पत्नि की भूमिका में  वंदना अस्थाना का काम भी बढ़िया रहा। चंदर के रोल में अभिशेक मदरेचा ठीक लगे वहीं,उनकी दलित नोकरानी के तौर पर पदमजा रॉय अपनी अदायगी का बढ़िया परिचय देती नजर आती है। इनके अलावा सहयोगी भूमिकायें निभाने वाले सभी कलाकार अपना अच्छा सहयोग देते नजर आते हें।

क्यों देखें

शहरों में रहने वाले दर्शकों को देश के विभिन्न भागों में गरीब दलितों को लीडरान और कुछ असरदार लोगों द्धारा इस्तेमाल करते देखना हैं तो ये फिल्म जरूर देखें।

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