मूवी रिव्यू: राजनीति का एक करिश्माई किरदार 'ठाकरे' By Shyam Sharma 24 Jan 2019 | एडिट 24 Jan 2019 23:00 IST in रिव्यूज New Update Follow Us शेयर रेटिंग**** इस सप्ताह मराठी पृष्ठभूमि पर दो बड़ी फिल्में रिलीज हुई। एक मणिकर्णिका -रानी झांसी तथा दूसरी महाराष्ट्र की राजनीति का चेहरा बदल देने वाले ‘ ठाकरे’ की बायोपिक। ठाकरे नाम सामने आते ही एक विवादास्पद , दबंग लेकिन अत्यन्त लोकप्रिय चेहरा बाल ठाकरे सामने आ जाता है। जिन्होनें मराठी माणुस को सामने लाने के लिये शिवसेना जैसी पार्टी बनाई, जिसका महाराष्ट्र के अलावा देष की राजनीति पर अच्छा खासा प्रभाव रहा। ऐसे शख्स की बायोपिक, जिसका निर्माण शिवसेना के सासंद संजय रावत ने किया और उसे निर्देशित किया अभिजीत पानसे ने। कहानी फिल्म शुरू होती है बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराने के बाद लखनऊ की अदालत में उस पर केस के चलने से। जहां बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना पार्टी पर बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराने का आरोप है। वहां से कहानी पीछे 1960 के दशक में चली जाती है जहां नोजवान ठाकरे फिर प्रैस जर्नल में बतौर कार्टूनिस्ट जॉब कर रहे हैं लेकिन अपने उग्र और बेबाक विचारों के रहते उन्हें नोकरी छौड़नी पड़ती है। उसके बाद इरोस सिनेमा में एक कार्टून फिल्म देखते हुये वे मराठी माणूस की दुर्दशा पर इस कदर आहत होते हैं कि उन्हें एहसास होता है कि अपनी ही सरजमीं पर मराठी माणूस कितना दीन हीन है कि उसे नोकरी या अन्य किसी रोजगार के लायक नहीं समझा जाता। बस इसके बाद ठाकरे निकल पड़ते हैं मराठीयों को उनका सम्मान दिलवाने के लिये। इसके लिये वे उन्हें संगठित करने के लिये शिवसेना नामक एक संगठन बनाते है। धीरे धीरे बाल ठाकरे नामक ये शख्स मुबंई की पीठ पर बैठने वाला ऐसे शख्स में तब्दील हो जाता है जिसके इशारे पर मुबंई और उसकी राजनीति चलती है। जो एक पावरफुल नेता के तौर पर उभर कर सामने आता है। ठाकरे का मुखपत्र मार्मिक, मिलों पर उनके द्धारा बनाई गई युनियनों का दबदबा। पहले दक्षिण भारतीयों के खिलाफ आंदोलन, इसके बाद गुजरातियों को महाराष्ट्र से बाहर खदेड़ने का आव्हान, इमरजेंसी का समर्थन, मुस्लिम लीग से हाथ मिलाना, हिंदूत्व का नारा देना। इसके अलावा कारवार बेलगांव, निपाणी का महाराष्ट्र में विलय। जनता पार्टी की विजय फिर शिवसेना के मनोहर जोशी का सीएम बनना। इसके बाद बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे का गिराया जाना और 1993 के कौमी दंगे जैसे सारी घटनायों के साथ फिल्म के समापन पर ठाकरे साहब का कहना कि मेरे लिये पहले देश है फिर मेरा राज्य। इसलिये मैं पहले जय हिन्द का नारा देता हूं फिर कहता हूं जय महाराष्ट्र। निर्देशन फिल्म में 1960से लेकर 1993 तक महाराष्ट्र का वो इतिहास है जब काफी सारी चीजों के साथ इंसान भी बदल रहा था । पार्श्व की सभी बातें ब्लैक एन व्हाइट में दिखाई गई हैं जो काफी अच्छी लगती हैं। अगर आर्ट डायरेक्षन की बात की जाये तो श्वेतशाम रंग में पुरानी मुबंई देखने में बहुत अच्छी लगती है। उस दौर के कुछ सेट्स प्रभावित करते हैं। उनके साथ बढ़िया कास्टिंग कहानी को और ज्यादा रीयल बनाती है जहां शरद पवार, इंदिरा गांदी ओर दादा कांडके जैसे किरदार कहानी को वास्तविकता की तरफ ले जाते हैं। इसे शिवसेना का दबदबा ही कहा जायेगा कि फिल्म में पुंगी बजाओ लुंगी उठाऔ जैसे संवाद कटने की बजाये फिल्म में वैसे ही मौजूद हैं। यही नहीं बाल ठाकरे द्धारा बोले जाने वाले कुछ संवाद फिल्म भी वैसे ही हैं जैसे वे सुने जाते रहे हैं। फिल्म की पटकथा तथा संगीत थोड़ा सुस्त रहा वरना फिल्म और बढ़िया बन सकती थी। अभिनय मोंटो के बाद एक बार फिर नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने सबित कर दिखाया कि वे इस प्रकार के किरदारों को भी बेहतरीन अभिव्यक्ति दे सकने वाले फनकार हैं । उन्होंने वाकई ठाकरे को बेहद करीब से पढ़ा और अभिनीत किया, लिहाजा वो उनके चलने बैठने, बोलने और उनके पाइप पीने तक को अपने आप में उतार लेते हैं। खासकर उन्होंने ठाकरे साहब के बोलने की शैली को बारीकी से आब्जर्व किया है। मीना ताई ठाकरे की भूमिका में अमृता राव ने उन्हीं की तरह ममतामई और उदार प्रवृति की महिला का किरदार बेहतरीन ढंग से अभिनीत किया है। इनके अलावा सभी सहयोगी कलाकार अपनी कलाकारी से फिल्म को और मजबूत बनाते हैं। क्यों देखें बाल ठाकरे जैसी करिश्माई शख्सियत से रूबरू होने तथा उनके प्रशंसकों को फिल्म बहुत पंसद आने वाली है। #Nawazuddin Siddiqui #Amrita Rao #movie review #Thackeray #Thackeray Review हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article