मूवी रिव्यू: कांग्रेस के दस साल के कार्यकाल का कच्चा चिट्ठा ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ By Mayapuri Desk 11 Jan 2019 | एडिट 11 Jan 2019 23:00 IST in रिव्यूज New Update Follow Us शेयर रेटिंग*** संजय बारू की किताब ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ पर आधारित इसी नाम से विजय गुटे द्धारा निर्देशित फिल्म, रिलीज से पहले ही विवादों का शिकार हो गई, लेकिन फिल्म में विवाद जैसा कुछ भी नहीं है। फिल्म पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के दस साल के कार्यकाल को फिल्म के द्धारा दिखाया गया है। कहानी डा. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू द्धारा लिखी इस किताब में एक तरफ तो मनमोहन सिंह को सिंह इज किंग कहा गया है, वहीं दूसरी तरफ उन्हें एक कमजोर और महाभारत का भीश्मपितामह कहा गया। जिन्होंने एक राजनैतिक परिवार की खातिर देश के सवालों पर चुप्पी साध ली। फिल्म में बताया गया है, कि संजय ने बेशक अपनी किताब के बारे में प्रधान मंत्री को अवगत करवाया था, बावजूद इसके किताब के रिलीज होने के बाद मनमोहन सिंह संजय से कभी नहीं मिले। शायद उन्हें किताब में अंदरूनी बातें अच्छी नहीं लगी। फिल्म में डा. साहब का दस साल का कार्यकाल और पीएमओ की भीतरी दुनियां को जिस प्रकार बताया गया, उस पर कितने ही सवाल खड़े कर दिये, उनमें बड़ा सवाल था चुनावों के बेहद करीब इस फिल्म को बाहर लाना। फिल्म की कहानी के मुताबिक संजय बारू को मनमोहन सिंह स्वंय बुलाकर अपना मीडिया सलाहकर नियुक्त करते हैं संजय भी इस शर्त के साथ उनसे जुड़ जाते हैं कि वे सोनिया गांधी को नहीं बल्कि सीधे उन्हें रिपोर्ट करेगें। पीएमओ में बारू की खूब चलती है लेकिन वहां उनके दुश्मन भी बहुत हैं। बारू का काम मनमोहन सिंह की इमेज को मजबूत करना है, यहां तक उनके भाषण भी वही लिखते हैं। इसके बाद प्रधानमंत्री का मीडिया के सामने पूरे आत्मविश्वास के साथ आना, फिर बुश के साथ न्यूक्लियर की डील को लेकर बातचीत। बाद में विरोध स्वरूप लैफ्ट का सरकार से अपना सपोर्ट वापस लेना, इसके बाद पीएम को कठघरे में में खड़ा करना। पीएम के फैसलों पर हाईकमान का प्रभाव, बाद में पीएम और हाइ्र्रकमान का टकराव तथा विरोधियों का सामना आदि कितने ही मुद्दों को लेकर फिल्म आगे बढ़ती है। बारू के प्रभाव में पीएम न्यूक्लियर मुद्दे पर रिजाईन देने को तैयार हो जाते हैं लेकिन सोनिया गांधी उन्हें ऐसा नहीं करने देती। इसके बाद उनके कार्यकाल के अगले पांच साल, इसके बाद पार्टी कितने ही घोटालों के बोझ तले दबी अपने पतन की तरफ बढती है। निर्देशन फिल्म बताती है कि पीएम अपनी ही पार्टी की साजिश का किस तरह शिकार हुये। विजय गुटटे ने एक साफ सुथरी राजनैतिक फिल्म बनाई है जो उन्हें अच्छी लगेगी जो राजनीति में रूचि रखते हैं। वरना आम आदमी के लिये फिल्म में कुछ नहीं है। दरअसल फिल्म इतनी गूढ है कि उसके हर सीन को घ्यान से देखना पड़ता है। फिल्म की हाइ्र्रलाइन है पीएमओ की भीतरी दुनिया, जिससे आम दर्शक कतई परिचित नहीं है। जैसा कि कहा गया है विजय गुट्टे ने बिना किसी सिनेमा लिबर्टी के फिल्म पूरी तरह सीधी और सपाट बनाई है जिसमें कहीं कोई टर्न ट्वीस्ट नहीं है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक भी साधारण है। अभिनय अभिनय की बात की जाये तो यहां अक्षय खन्ना की अदायगी देखते बनती है। वे फिल्म के सूत्रधार भी हैं। उनका बोलने चलने का अंदाज काफी प्रभावशाली है। इसमें कोई दो राय नहीं कि उन्होंने संजय बारू के किरदार को कमाल की अदायगी से जीया है। मनमोहन सिंह के किरदार में फिल्म की शुरूआत में अनुपम खेर हाथां को आगे एक विशिष्ठ अंदाज में आगे किये हुये चलते हास्यप्रद लगते हैं लेकिन जैसे जैसे भूमिका आगे बढती ह तो उनकी बोलचाल स्वाभाविक लेगने लगती है इसके अलावा उनकी बेबसी, उनका खास परिवार के तले जानबूझ कर दबे रहना तथा अपनी बेचारगी को एक सधे हुये अभिनेता की तरह जीया है। सबसे बड़ी बात कि उन्होंने किरदार की गंभीरता को अंत तक बनाये रखा। सोनिया गांधी की भूमिका में जर्मन अभिनेत्री सुजन बर्नेट अच्छी लगी, लेकिन प्रियंका गांधी और राहुल गांधी को नाम मात्र का स्पेस मिला है। उस दौर के बाकी किरदार भी एक हद तक फिल्म को उसी दौर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। क्यों देखें फिल्म इस फिल्म को राजनीति में गहरी रूचि रखने वाले दर्शक ही देख सकते हैं। आम दर्शक के यहां कुछ पल्ले नहीं पड़ने वाला। #Anupam Kher #movie review #Akshaye Khanna #The Accidental Prime Minister हमारे न्यूज़लेटर की सदस्यता लें! विशेष ऑफ़र और नवीनतम समाचार प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति बनें अब सदस्यता लें यह भी पढ़ें Advertisment Latest Stories Read the Next Article